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15वें वित्त आयोग की सिफारिशें व सहकारी संघवाद

(मुख्या परीक्षा – जी.एस. पेपर-2 : “विषय - संघीय ढाँचे से सम्बंधित विषय एवं चुनौतियाँ, स्थानीय स्तर पर शक्तियों और वित्त का हस्तांतरण और उससे जुड़ी चुनौतियाँ।)

संदर्भ

  • हाल ही में, 15वें वित्त आयोग ने सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी है। इस रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र द्वारा राज्यों को दिये जाने वाले राजस्व के उर्ध्वाधर हस्तांतरण (वर्ष 2020-21 के लिये) को 42% से घटाकर 41% कर दिया गया है।
  • वस्तुतः यह कटौती जम्मू-कश्मीर व लद्दाख के नए केंद्रशासित प्रदेशों में कर आवंटन के उद्देश्य से की गई है, लेकिन इस रिपोर्ट के साथ ही एक विवाद भी शुरू हो गया है; दरअसल, जनसंख्या नियंत्रण व प्रजनन-दर को कम करने की दिशा में सकारात्मक कार्य करने वाले दक्षिण के राज्यों को कर-राजस्व के क्षैतिज वितरण में कम हिस्सा प्राप्त हुआ है क्योंकि उनकी जनसंख्या कम हुई है, जबकि इन राज्यों का तर्क है कि उन्होंने जनसंख्या नियंत्रण के क्षेत्र में बेहतर काम किया है अतः कर-आवंटन में कटौती करके उन्हें हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिये।

पृष्ठभूमि

  • वित्त आयोग कर-राजस्व के हस्तांतरण के लिये राज्यों में विद्यमान वन क्षेत्र, कर-अंतराल तथा राज्य के क्षेत्रफल के साथ-साथ जनांकिकीय प्रदर्शन पैमाने को भी आधार मानता है।
  • दक्षिण के राज्यों ने वित्त आयोग द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले जनांकिकीय प्रदर्शन पैमाने की आलोचना की है।
  • उल्लेखनीय है कि 14वें वित्त आयोग ने वर्ष 2011 की जनसंख्या की तुलना में वर्ष 1971 की जनसंख्या को अधिक महत्त्व देते हुए, कर-राजस्व में राज्यों की हिस्सेदारी की गणना करने के लिये 1971 और 2011 दोनों वर्षों की जनगणनाओं को शामिल किया था।
  • इस संदर्भ में 15वें वित्त आयोग का तर्क है कि उसके पास वर्ष 2011 की जनगणना का उपयोग करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है, जबकि राजकोषीय समेकन हेतु नवीन जनगणना आँकड़ों का उपयोग करना आवश्यक है।
  • ध्यातव्य है कि वर्ष 2011 के जनगणना आँकड़ों के उपयोग से उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़ी आबादी वाले राज्यों को कर-राजस्व के क्षैतिज वितरण में अधिक हिस्सेदारी प्राप्त हुई है, जबकि कम प्रजनन दर वाले छोटे राज्यों की हिस्सेदारी कम हुई है।

  • वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, 5 हिंदी भाषी राज्यों (बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और झारखंड) की संयुक्त जनसंख्या 47.8 करोड़ है, जो देश की कुल जनसंख्या का 39.48% है, जबकि इनका क्षेत्रफल देश के कुल क्षेत्रफल का 32.4% है।  अतः इन राज्यों को कर के क्षैतिज वितरण में आनुपातिक रूप से अधिक हिस्सा (45.17%) प्राप्त हुआ है।
  • दूसरी ओर, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और अविभाजित आंध्र प्रदेश जैसे दक्षिणी राज्यों को कर-आवंटन में सिर्फ 13.89% हिस्सा प्राप्त हुआ है, जबकि इनका क्षेत्रफल देश के कुल क्षेत्रफल का 19.34% है और यहाँ देश की 20.75% जनसंख्या निवास करती है।

इस प्रकार, देखा जाए तो वित्त आयोग की सिफारिशें कर-आवंटन में कमी करके दक्षिणी राज्यों द्वारा प्रगतिशीलता व जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में किये जा रहे सकारात्मक प्रयास की मूल भावना को हतोत्साहित करती हैं।

ध्यातव्य है कि जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में राज्यों द्वारा किये जा रहे प्रयासों को प्रोत्साहित करने के लिये वित्त आयोग द्वारा निर्धारित मापदंड वर्ष 1971 की जनसंख्या के अनुपात में वर्ष 2011 की प्रजनन दर पर आधारित हैं।

केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, और तेलंगाना जैसे राज्यों में प्रजनन दर आनुपातिक प्रतिस्थापन दर से कम है। हालाँकि, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों को अनुपातिक रूप से अधिक हिस्सेदारी प्राप्त हुई है, जबकि इन राज्यों में प्रजनन दर प्रतिस्थापन स्तर से नीचे है। दूसरी ओर, आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक व पश्चिम बंगाल की प्रजनन दर भी कम है, लेकिन कर-हस्तांतरण में उनकी हिस्सेदारी में कमी आई है। इस मामले में कर्नाटक को सर्वधिक नुकसान हुआ है।

वित्त आयोग

  • वित्त आयोग एक अर्द्धन्यायिक एवं सलाहकारी संस्था है। यह एक संवैधानिक निकाय है, इसका गठन संविधान के अनुच्छेद 280 के तहत वित्त आयोग अधिनियम, 1951 के द्वारा किया गया था।
  • इसका गठन राष्ट्रपति द्वारा प्रत्येक 5 वर्ष के अंतराल पर किया जाता है।
  • वित्त आयोग में एक अध्यक्ष तथा 4 अन्य सदस्य होते हैं।
  • संसद को यह अधिकार है कि वह अध्यक्ष एवं सदस्यों की नियुक्ति की प्रक्रिया तथा अर्हता का निर्धारण करे।

अध्यक्ष पद के लिये व्यक्ति को सार्वजनिक मामलों का जानकार होना चाहिये; जबकि अन्य सदस्यों में उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने की अर्हता हो, उन्हें प्रशासन व वित्तीय मामलों का विशेष ज्ञान हो और लेखा एवं वित्त मामलों का विशिष्ट ज्ञान हो।

वित्त आयोग के कार्य

  • आयोग राष्ट्रपति से संघ एवं राज्यों के बीच करों की शुद्ध प्राप्तियों के वितरण व आवंटन की सिफारिश करता है।
  • अनुच्छेद 275 के तहत संचित निधि से राज्यों को अनुदान/सहायता दिये जाने सम्बंधी प्रस्ताव प्रस्तुत करता है।
  • राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर पंचायतों एवं नगरनिकाओं के संसाधनों की आपूर्ति राज्य की संचित निधि से करता है।
  • इसके आलावा, यह राष्ट्रपति द्वारा प्रदत्त अन्य किसी विशिष्ट निर्देश (जो देश के सुदृढ़ वित्त के हित में हों) पर भी काम करता है ।

वित्त आयोग अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपता है, राष्ट्रपति वित्त आयोग की सिफारिशों को संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखवाता है। वित्त आयोग द्वारा की गई सिफारिशें सलाहकारी प्रकृति की होती हैं, ये सरकार के लिये बाध्यकारी नहीं हैं।

15वाँ वित्त आयोग

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 22 नवंबर, 2017 को 15वें वित्त आयोग के गठन को मंजूरी प्रदान की थी। इसका कार्यकाल 2020-25 तक होगा। श्री एन.के. सिंह को इसका अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। श्री अजय नारायण झा , श्री अनूप सिंह ,श्री अशोक लाहिड़ी इसके पूर्ण कालिक सदस्य हैं, जबकि नीति आयोग के सदस्य श्री रमेश चन्द्र जी इसके अंशकालिक सदस्य हैं।

15वें वित्त आयोग से सम्बंधित शर्तों के संदर्भ में चिंता के मुख्य कारण

15वें वित्त आयोग से सम्बंधित शर्तों द्वारा केंद्र की सहकारी संघवाद (Cooperative federalism) की नीति प्रभावित होने की आशंका जताई जा रही है। आयोग द्वारा वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर राज्यों के बीच संसाधनों का आवंटन किये जाने की अनुशंसा की गई है (वर्तमान में इसके लिये 1971 की जनगणना का उपयोग किया जाता है)।

हालाँकि, एक दृष्टि से नवीनतम जनगणना आँकड़ों का प्रयोग किया जाना उचित प्रतीत होता है, किंतु इससे उत्तरी और दक्षिणी राज्यों के मध्य विवाद का एक गम्भीर मुद्दा उभर रहा है, क्योंकि दक्षिण के राज्यों ने जनसंख्या और प्रजनन दर को कम करने की दिशा में काफी काम किया है।

देखा जाए तो दक्षिण के राज्य विकास की दृष्टि से भी तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं, अतः कर-राजस्व में हिस्सेदारी घटने से विकास कार्यों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। यहाँ तक ​​कि पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर के राज्यों ने पूर्व स्थिति की अपेक्षा जनसंख्या नियंत्रण में काफी सफलता प्राप्त की है और नवीनतम जनगणना का आधार उनको मिलने वाले कर आवंटन के हिस्से को कम कर सकता है। इसके विपरीत, उत्तर के कुछ राज्यों ने जनसंख्या की बढ़ती प्रवृत्ति पर नियंत्रण जारी रखा है, अतः उनके लिये निधि आवंटन में वृद्धि हो सकती है। इस प्रकार, कर-राजस्व का यह आवंटन अनेक प्रकार की विसंगतियों को भी उत्पन्न कर रहा है, जो दक्षिणी राज्यों के लिये अहितकारी हैं, इसीलिये ये राज्य इसका विरोध कर रहे हैं।

सहकारी संघवाद

भारतीय संविधान में सहकारी संघवाद की व्यापक परिकल्पना की गई है। संघवाद, शासन की ऐसी व्यवस्था है, जिसमें सरकार की शक्ति को केंद्र और क्षेत्रीय इकाइयों (जैसे, भारत में राज्य) में बांट दिया जाता है। संविधान में इसी परिकल्पना के संदर्भ में भारत को ‘राज्यों का समूह’ घोषित किया था। यही इसका संघीय स्वरूप है।

सहकारी संघवाद एक ऐसी अवधारणा है, जिसमें केंद्र और राज्य सम्बंध स्थापित करते हुए, एक दूसरे के सहयोग से अपनी समस्याओं का समाधान करते हैं। इस प्रकार के क्षैतिज सम्बंध यह दर्शाते हैं कि केंद्र और राज्यों में से कोई किसी से श्रेष्ठ नहीं है। इन संबंधों को सौहार्द्रपूर्ण बनाए रखने के लिये संविधान में अंतरराज्यीय परिषद्, क्षेत्रीय परिषद् और सातवीं अनुसूची की व्यवस्था की गई है।

केंद्र द्वारा सहकारी संघवाद की उपेक्षा एक आदर्श संघीय शासन व्यवस्था में केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का बंटवारा करके परस्पर सहयोग की अपेक्षा की जाती हैं। चूँकि, विभिन्न कारणों से भारत में संघीय व्यवस्था का झुकाव केंद्र की तरफ है। अतः यहाँ केंद्र द्वारा समय-समय पर सहकारी संघवाद की अवहेलना की गई है। उदाहरणार्थ, सन् 1947 और 1977 के बीच 44 बार, 1977 और 1996 के बीच लगभग 59 बार तथा 1991 से लेकर 2016 तक 32 बार राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया गया। वर्ष 1994 के एस.आर. बोमई बनाम केंद्र सरकार के मामले में उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार पर लगाम लगाने की कोशिश की थी, परंतु सरकार ने अपनी विधायी शक्तियों की प्रयोग जारी रखा। हाल ही में, दिल्ली सरकार बनाम केंद्र सरकार के विवाद में उच्चतम न्यायालय ने कड़ा रुख अपनाते हुए दिल्ली सरकार की कार्यपालिका शक्तियों को वरीयता प्रदान की है।

करों के विभाजन में सहकारी संघवाद

करों के विवादास्पद मामले में केंद्र सरकार सदैव ही लाभ की स्थिती में रहती है। उसे संविधान में दिये गए प्रावधानों का लाभ मिल जाता है। वस्तु और सेवा कर के मामले में राज्यों को चुंगी कर, प्रवेश शुल्क, विलासिता व मनोरंजन कर आदि छोड़ने पड़े हैं, परंतु उन्हें पंचायत और नगरपालिकाओं के माध्यम से कर उगाहने का अधिकार दिया गया है। इस प्रकार की शक्तियों से वस्तु एवं सेवा कर कानून एवं स्थानीय कर कानून में विवाद होने की स्थिति बन जाती है। संविधान में वस्तु एवं सेवा कर सुधारों के बाद राज्यों को पेट्रोल, डीज़ल आदि पर कर उगाहने का अधिकार मिल गया है। हालाँकि, जीएसटी परिषद् को अभी इन वस्तुओं को अपने दायरे में लेना बाकी है।

संविधान के अनुच्छेद 269 (1) के अंतर्गत जीएसटी परिषद् को अंतरराज्यीय व्यापार से सम्बंधित करों को साझा करने के सम्बंध में सिफारिश करने का अधिकार है। यह अधिकार वित्त आयोग को नहीं है। यह तथ्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि जीएसटी परिषद में राज्यों को भी मत देने का अधिकार है।

अनुच्छेद 270 (1) और 270 (2) बताते हैं कि जीएसटी कानून के अंतर्गत आने वाले करों में हिस्सेदारी अनुच्छेद 270 (2) के अनुसार दी जाएगी। इस प्रकार, एक बार फिर से यहाँ वित्त आयोग की भूमिका प्रमुख हो जाती है।
जीएसटी परिषद् और वित्त आयोग की शक्तियों की तुलना पृथक रूप में नहीं की गई है। वित्त आयोग की सिफारिशों को संसद के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, इनमें राज्यों के लिये वाद--विवाद की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है। अगर केंद्र सरकार जीएसटी परिषद् की सिफारिशों को अमल में लाने से इनकार कर दे, तो राज्यों के पास उच्चतम न्यायालय में अपील का ही एकमात्र रास्ता बचता है।

हालाँकि, स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक ऐसी नौबत कभी नहीं आई है। सहकारी संघवाद की असली परीक्षा सही मायनों में गठबंधन राजनीति में ही हो पाती है।

सहकारी संघवाद (Cooperative federalism) को बढ़ावा देने वाली प्रमुख पहलें :

  • 14वें वित्त आयोग ने केंद्रीय कर-राजस्व के उर्ध्वाधर हस्तांतरण में राज्यों की हिस्सेदारी 32% से बढ़ाकर 42% तक करने की सिफारिश की थी, ताकि "सहकारी संघवाद" को बढ़ावा मिले।
  • इसके अतिरिक्त, पूर्व में योजना आयोग को एक केंद्रीय संस्था के रूप में देखा जा रहा था, जो राज्य सरकारों के प्रति उत्तरदायी नहीं मानी जा रही थी, इसके स्थान पर सहयोगात्मक या सहकारी संघवाद पर आधारित नीति आयोग का गठन किया गया है।
  • इन सबके अलावा, जीएसटी अधिनियम द्वारा "जीएसटी परिषद" को एक संवैधानिक निकाय के रूप में स्थापित किया गया है जो अपने निर्णयों में राज्यों को उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करती है।

आगे की राह

जनसंख्या नियंत्रण के क्षेत्र में प्रभावी कार्य करने वाले राज्यों की कर-हिस्सेदारी को इस तरह कम कर देना कहीं न कहीं उनके प्रयासों को हतोत्साहित करता है जिस पर वित्त आयोग को विशेष रूप से ध्यान देना चाहिये।

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