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कानून का शासन बनाम कानून द्वारा शासन

(प्रारंभिक परीक्षा : भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान, राजनीतिक प्रणाली)
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र 2 - भारतीय संविधान- ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएँ, संशोधन, महत्त्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी संरचना)


संदर्भ

  • एक आदर्श विश्व में यह उम्मीद की जाती है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने देश के कानूनों का पालन करेगा। व्यवहारिक विश्व मेंअधिकांश लोगकानून का पालन करते हैं, हालाँकि ऐसे भी कई लोग हैं, जो नियमित रूप से कानून तोड़ते हैं, और कभी-कभी वह ऐसा इरादे से भी करते हैं।
  • जिस रूप से कानून का प्रयोग और कार्यान्वयन किया जाता है, वह भिन्न हो सकता है। इसे ही कानून के शासन (Rule of Law) और कानून द्वारा शासन (Rule by Law) के रूप में परिभाषित किया जाता है।

ानून के शासन का अभिप्राय

  • कानून, सामान्य अर्थों में, सामाजिक नियंत्रण का एक उपकरण है, जो संप्रभु सरकार द्वारा समर्थित होता है। हालाँकि, कानून की ऐसी परिभाषा इसे ‘दो-धारी तलवार’ बनाती है।
  • इसका प्रयोग न केवल न्याय प्रदान करने के लिये किया जा सकता है, बल्कि उत्पीड़न को सही ठहराने के लिये भी किया जा सकता है।
  • अतएव, विद्वानों ने तर्क दिया है कि एक कानून को वस्तुतः कानून’ के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है, जब तक कि वह अपने भीतर ‘न्याय और समानता’ के आदर्शों को आत्मसात नहीं करता है।
  • एक ‘अन्यायपूर्ण कानून’ में ‘न्यायसंगत कानून’ के समान नैतिक वैधता नहीं हो सकती है, लेकिन वह समाज के कुछ वर्गों को दूसरों को हानि पहुँचाने की अनुमति दे सकता है।

औपनिवेशिक उदाहरण

  • ब्रिटिश औपनिवेशिक शक्ति ने राजनीतिक दमन के एक उपकरण के रूप में कानून का प्रयोग किया। अंग्रेजों और भारतीयों पर इसे अलग-अलग नियमों के साथ प्रयोग किया गया था।
  • यह कानून के शासन की बजाय कानून द्वारा शासन का प्रसिद्ध उदाहरण था, क्योंकि इसका उद्देश्य भारतीय विषयों को नियंत्रित करना था।
  • इस प्रकार स्वतंत्रता के लिये हमारे संघर्ष ने कानून के शासन द्वारा परिभाषित एक राज्य की स्थापना की दिशा में कदम बढ़ाया।
  • इसे सुनिश्चित करने के लिये एक ढाँचे की आवश्यकता थी। वह ढाँचा, जो देश में कानून और न्याय के बीच बाध्यकारी कड़ी बनाता है, यही “हम भारत के लोगों” ने खुद को संविधान के रूप में प्रदान किया है।

कानून के शासन के चार मूलभूत सिद्धांत

  • पहला, कानून स्पष्ट और सुलभ होना चाहिये ताकि लोगों को कम से कम यह पता हो कि कानून क्या है। अतः गुप्त कानून नहीं हो सकते, क्योंकि अन्तोगत्वा कानून समाज के लिये ही है। साथ ही, इसे सरल, स्पष्ट भाषा में लिखा जाना चाहिये।
  • दूसरा, कानून के समक्ष समानता का विचार। कानून के समक्ष समानता एक महत्त्वपूर्ण पहलू है, न्याय तक सुगम पहुँच। दूसरे शब्दों में, समान न्याय की गारंटी अर्थहीन हो जाएगी, यदि कमज़ोर वर्ग गरीबी या निरक्षरता या किसी अन्य प्रकार के वंचना के कारण अपने अधिकारों का प्रयोग करने में असमर्थ हैं।
  • तीसरा, कानूनों के निर्माण में भाग लेने का अधिकार। लोकतंत्र का सार यह है कि जो कानून नागरिकों पर लागू होते हैं उनके निर्माण में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उनकी भागीदारी होनी चाहिये।
  • भारत में, यह चुनावों के माध्यम से किया जाता है, जहाँ नागरिक अपने ‘सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार’ का प्रयोग करते हुए अपने प्रतिनिधियों को निर्वाचित करते हैं, जो उनके लिये कानून बनाते हैं।
  • चौथा, एक मज़बूत और स्वतंत्र न्यायपालिका की उपस्थिति। न्यायपालिका वह प्राथमिक अंग है, जो यह सुनिश्चित करती है कि अधिनियमित कानून संविधान के अनुरूप हैं या नहीं।
  • न्यायपालिका के मुख्य कार्यों में से एक है- कानूनों की न्यायिक समीक्षा करना। इस शक्ति को उच्चतम न्यायालय ने संविधान की मूल संरचना का हिस्सा माना है, जिसका अर्थ है कि संसद इसे कम नहीं कर सकती है।

स्वतंत्र न्यायपालिका की भूमिका

  • न्यायपालिका को सरकारी शक्ति और उसकी कार्रवाई की जाँच करने की स्वतंत्रता होती है।
  • न्यायपालिका को विधायिका या कार्यपालिका द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इससे कानून का शासन अर्थहीन हो जाएगा।
  • साथ ही, न्यायाधीशों को नागरिकों की राय के आधार पर भावनात्मक निर्णय नहीं लेना चाहिये, जिसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के माध्यम से बढ़ाया जा रहा है।
  • क न्यायाधीश की अंतिम ज़िम्मेदारी, अंततः संविधान और कानूनों को कायम रखने की होती है।
  • संविधान की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी केवल न्यायपालिका की नहीं है, बल्कि राज्य के तीनों अंगों, अर्थात् कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका की है।

मीडिया की भूमिका

  • मीडिया उपकरण, जिनमें सूचनाओं और तथ्यों का व्यापक विस्तार करने की क्षमता है, वे सही या गलत, अच्छा या बुरा तथा असली या नकली के बीच अंतर करने में असमर्थ हैं।
  • इस लिये, ‘मीडिया ट्रायल’ किसी मामलों को तय करने में ‘मार्गदर्शक कारक’ नहीं हो सकता है। कुल मिलकर, न्यायपालिका को स्वतंत्र रूप से कार्य करना तथा सभी बाहरी सहायता और दबावों का सामना करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
  • जहाँ कार्यपालिका के दबाव के बारे में बहुत चर्चा होती है, वहीं इस बात पर भी चर्चा होनी चाहिये कि सोशल मीडिया का रुझान संस्थानों को कैसे प्रभावित कर सकता है।
  • हालाँकि, उक्त को इस अर्थ के रूप में नहीं समझा जाना चाहिये कि न्यायाधीशों और न्यायपालिका का जो भी विमर्श चल रहा है, उससे पूरी तरह से अलग होने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

  • तेलुगु, महाकवि और 19 वीं/20 वीं शताब्दी के सुधारक गुरजादा अप्पाराव ने राष्ट्र की अवधारणा की एक सार्वभौमिक परिभाषा दी।
  • उन्होंने कहा, “एक राष्ट्र केवल एक क्षेत्र नहीं है, एक राष्ट्र अनिवार्य रूप से उसके लोग होते हैं, जब इसके लोग आगे बढ़ते हैं, तब राष्ट्र भी आगे बढ़ता है”।
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