New
GS Foundation (P+M) - Delhi : 22nd August, 3:00 PM Independence Day Offer UPTO 75% Off, Valid Till : 15th Aug 2025 GS Foundation (P+M) - Prayagraj : 24th August, 5:30 PM Independence Day Offer UPTO 75% Off, Valid Till : 15th Aug 2025 GS Foundation (P+M) - Delhi : 22nd August, 3:00 PM GS Foundation (P+M) - Prayagraj : 24th August, 5:30 PM

भू-वैज्ञानिक विरासत को संरक्षित करने की आवश्यकता

(प्रारंभिक परीक्षा : भारत एवं विश्व का भूगोल & राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ)
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 1&3  - भौगोलिक विशेषताएँ, संरक्षण)

संदर्भ

  • सामाजिक विविधता की तरह ही भारत की भू-विविधता (Geodiversity) या प्रकृति के भू-वैज्ञानिक एवं भौतिक तत्त्वों की विविधता अद्वितीय है।
  • भारत में ऊँचे पर्वत, गहरी घाटियाँ, नक्काशीदार भू-आकृतियाँ, लंबी घुमावदार तटरेखाएँ, खनिज-युक्त गर्म झरने, सक्रिय ज्वालामुखी, विभिन्न प्रकार की मृदाएँ, खनिज-युक्त क्षेत्र तथा विश्व स्तर पर महत्त्वपूर्ण जीवाश्म स्थल हैं। इस कारण ‘भू-वैज्ञानिक अधिगम’ के लिये भारत को विश्व की ‘प्राकृतिक प्रयोगशाला’ (Natural Laboratory) भी कहा जाता है।

भारत का भू-वैज्ञानिक इतिहास

  • लगभग 150 मिलियन वर्ष पूर्व ‘सुपरकॉन्टिनेंट’ (पैंजिया) के टूटने के पश्चात् उत्तर की ओर भारतीय भू-भाग का एशियाई महाद्वीप के निचले मार्जिन पर करीब 100 मिलियन वर्षों तक संचलन होता रहा और यह विश्व की सबसे छोटी प्लेट सीमा के साथ जुड़ गया।
  • अरबों वर्षों में विवर्तनिक एवं जलवायविक उथल-पुथल के कई चक्रों द्वारा विकसित विभिन्न भूगर्भीय विशेषताएँ और भू-दृश्य, जो भारत के चट्टानी संरचनाओं और भू-खंडों में परिलक्षित होता है, देश की विरासत का हिस्सा हैं।
  • उदाहरणार्थ, गुजरात के कच्छ क्षेत्र में डायनासोर के जीवाश्म हैं और इसे जुरासिक पार्क का ‘भारतीय संस्करण’ माना जाता है। इसी तरह तमिलनाडु का तिरुचिरापल्ली क्षेत्र मूलतः एक मेसोज़ोइक महासागर है, जहाँ क्रेटेशियस कालखंड (60 मिलियन वर्ष पूर्व) के समुद्री जीवाश्मों का भंडार है।
  • भौतिक भूगोल एक सांस्कृतिक इकाई में कैसे परिवर्तित हो जाता है, इसे जानने के लिये सिंधु घाटी सभ्यता के पर्यावरणीय इतिहास के अध्ययन की आवश्यकता है, जो मानव सभ्यता को पोषित करने वाली सभ्यताओं में से एक है। भारत ऐसे बहुत-से उदाहरण प्रस्तुत करता है।

भू-वैज्ञानिक साक्षरता का अभाव

  • भू-विरासत स्थल स्वयं में शिक्षा प्रदान करने वाले स्थल हैं, जहाँ लोग आवश्यक भू-वैज्ञानिक साक्षरता प्राप्त करते हैं। भू-वैज्ञानिक साक्षरता इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत में भू-विरासत स्थलों के प्रति जागरूकता का अभाव देखा जाता है।
  • भौतिक, जीव एवं रसायन विज्ञान जैसे अन्य ‘शुद्ध’ विषयों की तुलना में भारतीय कक्षाएँ पर्यावरण विज्ञान और भूविज्ञान जैसे विषयों को उपेक्षित नज़र से देखती हैं। भू-वैज्ञानिक साक्षरता के प्रति सरकार व अकादमिक जगत में रुचि का अभाव ऐसे समय में दुर्भाग्यपूर्ण है, जब संपूर्ण जगत वैश्विक उष्मन जैसे संकट का सामना कर रहा है।
  • जलवायु की अनिश्चित प्रकृति को देखते हुए भू-वैज्ञानिक अतीत से सीखने की आवश्यकता है, जैसे मियोसीन युग (23 से 5 मिलियन वर्ष पूर्व) में जलवायु उष्ण हो गई थी। ऐसे में   जलवायु संबंधी अनुमानों का अनुकरण करके भविष्य की जलवायु का अनुमान लगाया जा सकता है।
  • भू-विरासत पार्कों से अर्जित शैक्षिक गतिविधियों के द्वारा जलवायु परिवर्तन की पिछली घटनाओं के संबंध में लोगों को जागरूक किया जा सकता है। साथ ही, इस प्रकार की गतिविधि से मानव अस्तित्व के लिये अपनाए जाने वाले अनुकूलन उपायों को भी सुलभ बनाया जा सकता है।

भू-वैज्ञानिक विरासत की पहचान

  • पृथ्वी के साझी भू-वैज्ञानिक विरासत को पहली बार वर्ष 1991 में यूनेस्को के प्रायोजित कार्यक्रम, ‘हमारी भू-वैज्ञानिक विरासत के संरक्षण पर प्रथम अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी' के द्वारा चिह्नित किया गया था।
  • डिग्ने (फ्राँस) में संपन्न हुई इस संगोष्ठी में विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों ने एक साझी विरासत की अवधारणा का समर्थन किया तथा स्वीकार किया कि ‘मनुष्य और पृथ्वी एक समान विरासत को साझा करते हैं, हम और हमारी सरकारें केवल इसके संरक्षक हैं’।
  • इस कार्यक्रम में घोषणा की गई कि अद्वितीय भू-वैज्ञानिक विशेषताओं और परिदृश्यों वाले निर्दिष्ट क्षेत्रों को भू-पार्कों के तौर पर विकसित किया जाएगा ताकि लोगों को भू-वैज्ञानिक महत्त्व के बारे में शिक्षित किया जा सके।
  • इसके अतिरिक्त, ये स्थल भू-पर्यटन को बढ़ावा देंगे, जिससे राजस्व और रोज़गार सृजन में भी सहायता मिलेगी।
  • 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में यूनेस्को ने ‘डिग्ने संकल्प’ को अपनाने पर ज़ोर दिया तथा  भू-विरासत स्थलों के वैश्विक नेटवर्क को बढ़ावा देने के लिये एक औपचारिक कार्यक्रम कीघोषणा की थी।
  • इस कार्यक्रम का उद्देश्य ‘विश्व विरासत अभिसमय’ को यूनेस्को के ही एक अन्य कार्यक्रम ‘मैन और बायोस्फीयर कार्यक्रम’ के समान महत्त्व प्रदान करना था। इसी क्रम में यूनेस्को ने राष्ट्रीय भू-पार्क विकसित करने के लिये दिशा-निर्देश जारी किया, परिणामस्वरूप आज 44 देशों में 169 वैश्विक भू-पार्क स्थापित किये जा चुके हैं।

भारत की स्थिति

  • दुर्भाग्य से भारत में भू-विरासत को संरक्षित करने के लिये कोई कानून या नीति नहीं है। हालाँकि, भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) ने 32 स्थलों को ‘राष्ट्रीय भू-वैज्ञानिक स्मारकों’ के रूप चिह्नित किया है लेकिन भारत में ऐसा एक भी भू-पार्क नहीं है, जिसे यूनेस्को द्वारा मान्यता प्रदान की गई हो।
  • उल्लेखनीय है कि भारत, यूनेस्को के वैश्विक भू-पार्कों की स्थापना का हस्ताक्षरकर्ता है। जी.एस.आई. ने वर्ष 2014 में खान मंत्रालय को भू-विरासत संरक्षण के लिये एक मसौदा विधेयक प्रस्तुत किया था लेकिन इस पर कोई प्रगति नहीं हो सकी।
  • इस संबंध में अन्य देशों की बात करें तो वियतनाम एवं थाईलैंड जैसे देशों ने अपनी भू-वैज्ञानिक और प्राकृतिक विरासत को संरक्षित करने लिये कानून अधिनियमित किये हैं। 

विकास बनाम संरक्षण

  • भू-वैज्ञानिक क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय प्रगति के बावजूद भारत में भू-संरक्षण की अवधारणा पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया है तथा विकास के नाम पर कई जीवाश्म स्थलों को नष्ट कर दिया गया है।
  • विकास की यह दौड़ शीघ्र ही हमारे भू-विरासत स्थलों को नष्ट कर सकती है। उदाहरणार्थ, अंजार स्थित (कच्छ ज़िला) भू-वैज्ञानिक खंड इरिडियम की उच्च सांद्रता उल्कापिंड के प्रभाव को प्रमाणित करती है, जिसके कारण लगभग 65 मिलियन वर्ष पूर्व डायनासोर इस ग्रह से विलुप्त हो गए थे।
  • उक्त क्षेत्र में एक नया रेल ट्रैक बिछाने से इस स्थल को व्यापक नुकसान पहुँचा था। इसी प्रकार अजमेर ज़िले में ‘नेफलाइन सायनाइट’ नामक एक अनूठी चट्टान को प्रदर्शित करने वाला एक ‘राष्ट्रीय भू-वैज्ञानिक स्मारक’ एक सड़क चौड़ीकरण परियोजना में नष्ट हो गया था।
  • महाराष्ट्र के बुलढाणा ज़िले में अवस्थित ‘लोनार क्रेटर’ अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व का एक प्रमुख भू-विरासत स्थल है। इसे भी विकास के नाम पर नुकसान पहुँचाया गया है किंतु अब उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के पश्चात् इसके संरक्षण पर कार्य चल रहा है।
  • वर्तमान स्थिति ये है कि अधिकांश भू-वैज्ञानिक विरासत स्थल लुप्त होने की कगार पर हैं, जिसका मुख्य कारण समृद्ध होते रियल एस्टेट कारोबार की अनियोजित गतिविधियाँ हैं।
  • भू-वैज्ञानिक स्थलों के विनाश में अविनियमित पत्थर खनन गतिविधियों का भी बड़ा योगदान रहा है। इस स्थिति से निपटने के लिये स्थायी संरक्षण उपायों की आवश्यकता है।
  • प्राकृतिक संपत्ति एक बार नष्ट हो जाने के पश्चात् पुनः बनाई नहीं जा सकती है और यदि उन्हें बृहत् स्तर पर नुकसान पहुँचा दिया जाता है, तो वे अपने अधिकांश ‘वैज्ञानिक मूल्य’ खो देते हैं।

भू-संरक्षण विधायन की आवश्यकता

  • भू-विरासत स्थलों के महत्त्व को देखते हुए इनके संरक्षण के लिये तत्काल कानून बनाने की आवश्यकता है। जैव-विविधता अधिनियम, 2002 में लागू किया गया था और अब भारत में 18 अधिसूचित बायोस्फीयर रिज़र्व हैं।
  • भू-संरक्षण को भूमि-प्रयोग के लिये प्रमुख मार्गदर्शक कारक बनाने की आवश्यकता है। इसलिये ऐसी गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिये एक प्रगतिशील कानूनी ढाँचे को निर्मित करना महत्त्वपूर्ण होगा। वर्ष 2009 में राज्यसभा में प्रस्तुत किये गए एक विधेयक के माध्यम से ‘राष्ट्रीय विरासत स्थल आयोग’ के गठन का आधा-अधूरा प्रयास किया गया था।
  • इस विधेयक को संसदीय स्थायी समिति के पास भेज दिया गया था लेकिन कुछ ‘अघोषित कारणों’ से सरकार इस विधेयक से पीछे हट गई और इसे वापस ले लिया गया।
  • वर्ष 2019 में ‘सोसाइटी ऑफ अर्थ साइंटिस्ट्स’ के तत्वावधान में भू-वैज्ञानिकों के एक समूह ने प्रधानमंत्री और संबंधित मंत्रालय के समक्ष भू-विरासत स्थलों की सुरक्षा के लिये राष्ट्रीय संरक्षण नीति आवश्यकता पर ध्यान देने का अनुरोध किया था। हालाँकि, इस संबंध में सरकार द्वारा अब तक कोई विशेष प्रयास नहीं किये गए हैं।
« »
  • SUN
  • MON
  • TUE
  • WED
  • THU
  • FRI
  • SAT
Have any Query?

Our support team will be happy to assist you!

OR
X