(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 व 3: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन; सांविधिक, विनियामक एवं विभिन्न अर्द्ध-न्यायिक निकाय) |
संदर्भ
एक ऐतिहासिक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की है कि केंद्र एवं राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974 और वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981 के तहत पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति हेतु क्षतिपूर्ति (मुआवजा) आरोपित का अधिकार रखते हैं।
हालिया वाद
- यह मामला राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड्स द्वारा लगाए गए पर्यावरणीय मुआवजे के खिलाफ औद्योगिक इकाइयों द्वारा दायर चुनौती से उत्पन्न हुआ था।
- उद्योगों ने तर्क दिया कि बोर्ड्स के पास ऐसा हर्जाना लगाने का वैधानिक अधिकार नहीं है और केवल न्यायालय या न्यायाधिकरण ही ऐसा कर सकते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
- औद्योगिक इकाइयों के तर्क को खारिज करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि:
- प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड केवल सलाहकार निकाय नहीं हैं, बल्कि निवारक एवं उपचारात्मक दोनों कार्यों के साथ सशक्त वैधानिक प्राधिकरण हैं।
- वे उन जगहों पर पारिस्थितिक संतुलन बहाल करने के लिए पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति लगा सकते हैं जहाँ नुकसान हुआ है।
- यह शक्ति अंतर्निहित है और पर्यावरणीय क़ानूनों के उद्देश्यों के अनुरूप है, भले ही अधिनियमों में इसका स्पष्ट रूप से उल्लेख न किया गया हो।
- सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने सक्रिय पर्यावरणीय शासन की आवश्यकता पर बल दिया और कहा कि नियामकों को प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए न्यायिक हस्तक्षेप का इंतज़ार नहीं करना चाहिए।
निर्णय का महत्त्व
- नियामक कार्रवाई का सशक्तिकरण : यह प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की प्रवर्तन क्षमताओं को मज़बूत करता है, जिससे वे उल्लंघनकर्ताओं के विरुद्ध त्वरित कार्रवाई कर सकते हैं।
- कानून की व्यापक व्याख्या: न्यायालय ने पर्यावरण संरक्षण के विधायी उद्देश्य पर ध्यान केंद्रित करते हुए एक उद्देश्यपूर्ण व्याख्या दृष्टिकोण अपनाया।
- जलवायु न्याय के लिए मिसाल : यह निर्णय अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) में निहित सतत विकास के प्रति भारत की प्रतिबद्धता की पुष्टि करता है।
चुनौतियाँ
यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय पर्यावरणीय शासन को बढ़ावा देता है किंतु यह निम्नलिखित प्रश्न उठाता है:
- प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय: दंड लगाते समय निष्पक्ष सुनवाई और पारदर्शिता सुनिश्चित करना।
- प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की क्षमता: कई राज्य बोर्ड्स के पास पर्याप्त धन और कम कर्मचारी हैं, जिससे मनमाने या असंगत कार्यान्वयन का जोखिम बना रहता है।
- अधिकारों की अतिव्यापिता : राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) जैसे न्यायाधिकरणों के साथ अतिव्यापी अधिकार क्षेत्र को दिशानिर्देशों या विधायी संशोधनों के माध्यम से स्पष्ट किया जाना चाहिए।
आगे की राह
- शक्तियों का संहिताकरण: संसद वायु और जल अधिनियमों में संशोधन करके क्षतिपूर्ति अधिरोपित करने की शक्ति का स्पष्ट रूप से उल्लेख करने पर विचार कर सकती है।
- क्षमता निर्माण: प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड्स की तकनीकी, कानूनी और वित्तीय क्षमताओं को सुदृढ़ करना आवश्यक है।
- जनभागीदारी पर बल : पर्यावरण संबंधी निर्णय लेने में जन भागीदारी और पारदर्शिता को संस्थागत रूप दिया जाना चाहिए।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB)
- स्थापना: वर्ष 1974
- प्राधिकार : जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974 के तहत
- नोडल मंत्रालय: पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC)
प्रमुख कार्य
- राष्ट्रीय नीतियों का निर्माण व समन्वय।
- राज्य बोर्ड्स को तकनीकी सलाह और मार्गदर्शन प्रदान करना।
- वायु व जल की गुणवत्ता की निगरानी करना।
- प्रदूषण नियंत्रण मानकों का निर्धारण।
- प्रदूषण फैलाने वालों पर कार्रवाई हेतु अनुशंसा देना।
- शोध व विकास तथा जन-जागरूकता को बढ़ावा देना।
अधिकार
- प्रदूषण फैलाने वालों पर प्रतिपूरक (restitutionary) क्षतिपूर्ति लगाने की शक्ति (सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय से पुष्ट)
- निरीक्षण, सैंपलिंग और दिशा-निर्देश जारी करने की शक्ति।
राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (SPCBs)
स्थापना: प्रत्येक राज्य में राज्य सरकार द्वारा, CPCB के निर्देशानुसार।
प्रमुख कार्य
- राज्य में जल व वायु प्रदूषण की रोकथाम।
- उद्योगों को NOC (अनापत्ति प्रमाणपत्र) जारी करना।
- स्थानीय पर्यावरण मानकों को लागू करना।
- सार्वजनिक शिकायतों की जाँच करना।
- CPCB को आँकड़े और रिपोर्ट भेजना।
- SPCBs को भी प्रतिपूरक पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति (Environmental Damages) लगाने का अधिकार प्राप्त है।
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