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अर्द्ध-संघीय लोकतंत्र पर विचार 

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र-2: संघ एवं राज्यों के कार्य तथा उत्तरदायित्व, संघीय ढाँचे से संबंधित विषय एवं चुनौतियाँ, स्थानीय स्टार पर शक्तियों और वित्त का हस्तांतरण और उसकी चुनौतियाँ )

संदर्भ

वर्ष 2021 में हम स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगाँठ मनाई गई। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में यह उसकी  लोकतांत्रिक सफलता को दर्शाता है। परंतु देश में हाल ही में हुई कुछ घटनाओं ने भारत के संघीय ढाँचे की और ध्यान आकर्षित किया है।

भारतीय संघीय व्यवस्था

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 1 में भारत को ‘राज्यों के संघ’ (A union of States) के रूप में परिभाषित किया गया है। यहाँ भारतीय संघ कई राज्यों से मिलकर बना है। हालाँकि, अन्य संघों के विपरीत यहाँ राज्यों के लिये पृथक नागरिकता या संविधान का प्रावधान नही है।
  • एस.आर. बोम्मई वाद में यह स्पष्ट किया गया कि संघवाद का सामान्य रूप से लागू मॉडल संयुक्त राज्य अमेरिका है। इससे स्पष्ट है कि यह राज्यों का एक संघ है। ये राज्य अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र और संप्रभु थे, अतः इन राज्यों ने संघ बनाने का निर्णय किया। इस प्रकार अमेरिकी संघ राज्यों की सहमति का परिणाम है। यहाँ राज्यों के क्षेत्रों में संघीय सरकार द्वारा कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। जबकि भारत में संसद के पास नए राज्यों को बनाने उनकी सीमाओं तथा नाम में परिवर्तन करने तथा राज्यों को एकजुट या विभाजित करने की शक्ति है।
  • भारत में राज्य अपने निर्धारित विधायी क्षेत्र में संप्रभु हैं। उनकी कार्यकारी शक्ति उनकी विधायी शक्ति के साथ ही सहविस्तृत है। इस प्रकार, स्पष्ट है कि राज्यों की शक्तियाँ संघ के साथ समन्वयित नहीं हैं। इसी कारण भारतीय संविधान को प्रायः अर्ध-संघीय के रूप में वर्णित किया जाता है।
  • संघीय व्यवस्था बहु-सांस्कृतिक भारत की लोकतांत्रिक अनिवार्यता है। इसके अंतर्गत संप्रभु राज्य की घटक इकाइयाँ जाति, जनजाति या धर्म जैसी प्रतिस्पर्धी पहचान पर आधारित न होकर भाषा पर आधारित हैं।
  • अपने औपचारिक लोकतांत्रिक ढाँचे के साथ एक संप्रभु राज्य के अंतर्गत अपनी विविधता को बनाए रखने की संविधान की क्षमता उल्लेखनीय है।
  • देश में सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार तथा न्यायपालिका एवं संवैधानिक संस्थाओं के होते हुए किसी एक विभाजनकारी पहचान के अंतर्गत इसकी विविधता का ध्रुवीकरण कर पाना लगभग असंभव है।
  • संघीय व्यवस्था की परिचालन संबंधी कमियों के बाद भी लोकतांत्रिक संरचना एवं राष्ट्रीय अखंडता द्वंद्वात्मक रूप से परस्पर जुड़ी हुई है।

लोकतांत्रिक ढाँचे को कमजोर करने वाली घटनाएँ

  • इस बार अगस्त 2021 में हुआ संसद का मानसून सत्र हंगामे भरा रहा। इसमें सभापति के साथ अभद्रता की घटना हुई तथा अवरोध के कारण सदन को कई बार स्थगित भी करना पड़ा। साथ ही, इस सदन में काफी कम संख्या में विधेयक पारितहो सके।
  • भारतीय संघ के दो राज्यों (असम एवं मिज़ोरम) के मध्य सीमा विवाद, जिसमें राज्यों की पुलिस के मध्य संघर्ष की घटनाएँ हुईं तथा कई स्थानीय लोगों की जान गई। यह लोकतांत्रिक ढाँचे को कमज़ोर करने वाली घटनाएँ थीं।
  • आज़ादी के बाद से ऐसी घटनाएँ देश में बार-बार होती रही हैं। वर्तमान में ऐसी घटनाओं की तीव्रता में वृद्धि हुई है।

लोकतांत्रिक संघवाद की संरचनात्मक चुनौतियाँ

  • संचालन की दृष्टि से राज्यपालों की भूमिका एक प्रमुख चुनौती है। इन्हें केंद्र द्वारा नियुक्त किया जाता है। कई मामलों में यह अपनी संवैधानिक दायित्वों के स्थान पर केंद्रीय एजेंट की भूमिका का निर्वहन करने लगते हैं।
  • इस प्रकार, राष्ट्रीय शासन के महत्त्वपूर्ण उपकरण केंद्र द्वारा सौंपे गए या विनियोजित किये गए हैं, जबकि राज्यों को कानून और व्यवस्था तथा भूमि सुधार जैसे राजनीतिक रूप से विवादित विषय सौपें गए हैं।
  • संघर्षों को राजनीतिक रूप से हल करने के लिये कोई संघीय व्यवस्था नही है। राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधित्त्व करती है। इसके सदस्यों का निर्वाचन संबंधित राज्य के विधायकों द्वारा किया जाता है।
  • निर्वाचन के लिये संबंधित राज्य की आवासीय योग्यता के अभाव में यह सदन सभी राजनीतिक दलों के लिये राजकीय एवं वित्तीय संरक्षण का प्रमुख स्रोत बन गया है।
  • राज्यसभा को लोकसभा की तुलना में काफी कम अधिकार प्राप्त हैं। इसे लोकसभा द्वारा पारित किये गए विधेयकों पर भी विशेष अधिकार प्राप्त नहीं हैं। अमेरिका में सीनेट को अपने विधेयकों को वीटों करने की शक्ति प्राप्त है। यह शक्ति राज्यसभा को प्राप्त नही है।
  • दोनों सदनों के मध्य किसी विधेयक के संबंध में मतभेद की स्थिति में दोनों सदनों की संयुक्त बैठक का प्रावधान है। इस बैठक में निर्णय उपस्थित एवं मत देने वाले सदस्यों के साधरण बहुमत से होता है। यह अत्यंत ही हास्यास्पद है।
  • परंपरागत रूप में यह देखा गया है कि किसी राज्य में बहुमत वाला कोई दल केंद्रीय विधायिका में हाशिये पर होने की स्थिति में संसदीय कार्रवाई में बाधा उत्पन्न करता है। देश की अर्द्ध-संघीय व्यवस्था में इस प्रकार के कई उदाहरण मौजूद हैं।

निष्कर्ष

भारतीय संघीय व्यवस्था की अधिकांश खामियाँ संरचनात्मक हैं। ये संघर्षों एवं हिंसा को जन्म देती हैं। अतः भारत की अर्द्ध-संघीय व्यवस्था को बनाए रखने के लिये तथा विद्यमान खामियाँ के निवारण हेतु गंभीर प्रयास किये जाने चाहिये।

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