भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) भारत की सबसे पुरानी संगठित वामपंथी पार्टी है, जो 26 दिसंबर 1925 को कानपुर सम्मेलन को अपनी स्थापना तिथि मानती है। 2025 में CPI के 100 वर्ष पूरे होना भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन, श्रमिक-किसान राजनीति और वैश्विक समाजवादी विचारधारा तीनों के अंतर्संबंधों को समझने का महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है।

वैश्विक वैचारिक पृष्ठभूमि: फ्रांसीसी क्रांति से रूसी क्रांति तक
(क) फ्रांसीसी क्रांति और वाम–दक्षिण विभाजन
- फ्रांसीसी क्रांति (1789) आधुनिक राजनीतिक विचारधाराओं की आधारशिला मानी जाती है।
- इस क्रांति ने समानता (Equality), स्वतंत्रता (Liberty) और बंधुत्व (Fraternity) जैसे मूल्यों को राजनीतिक संघर्ष का केंद्र बनाया।
- फ्रांसीसी संसद में राजशाही समर्थक प्रतिनिधि अध्यक्ष के दाईं ओर और परिवर्तनकारी, जनपक्षधर प्रतिनिधि बाईं ओर बैठते थे।
- यहीं से दक्षिणपंथ (Right) और वामपंथ (Left) का वैचारिक विभाजन अस्तित्व में आया।
- वामपंथ धीरे-धीरे समानता, सामाजिक न्याय और आम जनता के अधिकारों का पक्षधर बना, जबकि दक्षिणपंथ परंपरा, निजी संपत्ति और स्थापित सत्ता संरचनाओं के संरक्षण से जुड़ा।
(ख) मार्क्सवाद का उदय
- 19वीं सदी के औद्योगीकरण ने अभूतपूर्व आर्थिक वृद्धि के साथ-साथ भीषण सामाजिक असमानताएँ पैदा कीं।
- कारखानों में काम करने वाला श्रमिक वर्ग शोषण, कम मजदूरी और अमानवीय परिस्थितियों का शिकार हुआ।
- इसी ऐतिहासिक संदर्भ में कार्ल मार्क्स ने पूँजीवादी व्यवस्था की वैज्ञानिक आलोचना प्रस्तुत की।
मार्क्स के अनुसार:
- समाज का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है।
- पूँजीवाद में बुर्जुआ (पूँजीपति) वर्ग सर्वहारा (श्रमिक) वर्ग का शोषण करता है।
- यह व्यवस्था अपने आंतरिक विरोधाभासों के कारण अंततः ढह जाएगी।
उन्होंने एक ऐतिहासिक प्रक्रिया का सिद्धांत दिया—पूँजीवाद → समाजवाद → साम्यवाद, जिसमें उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व समाप्त होकर सामूहिक स्वामित्व स्थापित होगा और एक वर्गहीन, शोषणमुक्त समाज का निर्माण होगा।
(ग) रूसी क्रांति (1917)
- रूसी क्रांति ने मार्क्सवादी सिद्धांत को पहली बार व्यवहार में उतारा।
- यह क्रांति उस रूस में हुई जो औद्योगिक रूप से पिछड़ा, कृषि-प्रधान और ज़ार के निरंकुश शासन के अधीन था जो मार्क्स की मूल अपेक्षाओं के विपरीत था।
- व्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने सत्ता पर कब्जा किया और समाजवादी राज्य की स्थापना की।
इस क्रांति का वैश्विक महत्व यह था कि:
- इसने साम्राज्यवाद को पूँजीवाद की चरम अवस्था बताया।
- औपनिवेशिक एशिया और अफ्रीका के देशों को यह संदेश दिया कि मुक्ति केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन से जुड़ी है।
यहीं से भारत सहित अनेक उपनिवेशों में कम्युनिस्ट विचारधारा को व्यापक प्रेरणा मिली।
भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन को जन्म देने वाली तीन प्रमुख धाराएँ
(1) प्रवासी क्रांतिकारी–मार्क्सवादी धारा
- इस धारा का सबसे प्रमुख चेहरा एम. एन. रॉय थे।
- प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वे अमेरिका, मैक्सिको, जर्मनी और बाद में सोवियत संघ में सक्रिय रहे।
- उनका मानना था कि भारत की स्वतंत्रता को केवल राष्ट्रवादी आंदोलन तक सीमित नहीं रखा जा सकता, बल्कि उसे वैश्विक समाजवादी संघर्ष से जोड़ा जाना चाहिए।
- 1920 में रॉय ने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (कॉमिन्टर्न) में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया।
- यहाँ यह निर्णय लिया गया कि औपनिवेशिक देशों के कम्युनिस्टों को पहले साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष को प्राथमिकता देनी होगी, भले ही इसके लिए अस्थायी गठबंधनों का सहारा क्यों न लेना पड़े।
(2) भारत के भीतर उभरते वाम समूह
प्रवासी प्रयासों से स्वतंत्र, भारत के भीतर भी 1920 के दशक की शुरुआत में कई वामपंथी समूह उभरे:
- लाहौर में: गुलाम हुसैन
- बंबई में: एस. ए. डांगे
- कलकत्ता में: मुजफ्फर अहमद
- मद्रास में: सिंगारवेलु चेट्टियार
ये समूह स्थानीय स्तर पर श्रमिकों और किसानों के बीच काम कर रहे थे। वे समझते थे कि बिखरे प्रयासों से आगे बढ़ना संभव नहीं है, इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर संगठन और वैचारिक एकता की आवश्यकता महसूस की जा रही थी।
(3) श्रमिक–किसान संगठनों का विकास
तीसरी धारा सामाजिक आधार से जुड़ी थी। 1920 में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) का गठन हुआ, जिसकी अध्यक्षता लाला लाजपत राय ने की। इसके साथ ही:
- औद्योगिक श्रमिक वर्ग संगठित हुआ
- हड़तालें और मजदूरी संघर्ष बढ़े
- किसान आंदोलनों ने ज़मींदारी और लगान शोषण को चुनौती दी
यही वर्ग आगे चलकर कम्युनिस्ट आंदोलन की सामाजिक रीढ़ बना।
ताशकंद बनाम कानपुर: कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना का विवाद
(क) ताशकंद (1920)
- कॉमिन्टर्न की स्वीकृति से प्रवासी भारतीय क्रांतिकारियों ने 1920 में ताशकंद में एक कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की घोषणा की।
- इसका स्वरूप अंतरराष्ट्रीय था और यह सोवियत नेतृत्व से वैचारिक रूप से जुड़ी हुई थी।
- हालाँकि, इस प्रयास की सबसे बड़ी सीमा यह थी कि इसका भारत के भीतर सक्रिय श्रमिक–किसान आंदोलनों से सीधा संपर्क नहीं था।
(ख) कानपुर (1925)
इसके विपरीत, 1925 में कानपुर में भारत के विभिन्न हिस्सों से आए कम्युनिस्ट समूहों ने राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन में:
- ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अंत
- श्रमिक–किसान गणराज्य की स्थापना
- उत्पादन और वितरण के साधनों के समाजीकरण को पार्टी के मूल लक्ष्य घोषित किया गया।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) का स्पष्ट दृष्टिकोण यह है कि
- ताशकंद (1920) = अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट घटक
- कानपुर (1925) = भारतीय परिस्थितियों में विकसित साम्राज्यवाद-विरोधी पहल
इसी कारण CPI 26 दिसंबर 1925 को अपनी औपचारिक स्थापना तिथि मानती है।
औपनिवेशिक काल में कम्युनिस्टों की भूमिका
(क) दमन और संघर्ष
- औपनिवेशिक शासन ने प्रारंभ से ही कम्युनिस्ट गतिविधियों को राज्य-विरोधी मानकर कठोर दमन किया।
- 1923 का कानपुर बोल्शेविक षड्यंत्र इस दमन की शुरुआती कड़ी था, जिसमें ब्रिटिश सरकार ने कम्युनिस्ट विचारों के प्रचार को राजद्रोह बताकर नेताओं पर मुकदमे चलाए।
- इसके बाद 1929 का मेरठ षड्यंत्र कांड आया, जिसमें रेल हड़तालों और श्रमिक आंदोलनों से जुड़े प्रमुख कम्युनिस्ट नेताओं पर साम्राज्य के विरुद्ध साजिश का आरोप लगाया गया।
- इस मुकदमे के परिणामस्वरूप पार्टी पर प्रतिबंध, नेतृत्व की लंबी कैद, और संगठनात्मक गतिविधियों पर कड़ा अंकुश लगा।
- इसके बावजूद, कम्युनिस्ट आंदोलन भूमिगत रहकर श्रमिकों और किसानों के बीच कार्य करता रहा, जिससे उसका जनाधार कमजोर नहीं पड़ा।
(ख) संयुक्त मोर्चा का प्रयोग
- 1930 के दशक में कम्युनिस्टों ने यह महसूस किया कि अकेले संघर्ष से साम्राज्यवाद का मुकाबला कठिन है।
- इसी संदर्भ में 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (CSP) के गठन के बाद कांग्रेस के भीतर वामपंथी शक्तियों से सहयोग बढ़ा। इस दौर में एक केंद्रीय वैचारिक दुविधा उभरी --
क्या कांग्रेस को भीतर से समाजवादी दिशा में रूपांतरित किया जाए, या उसके विकल्प के रूप में स्वतंत्र वाम मोर्चा खड़ा किया जाए?
- यह “रूपांतरण बनाम विकल्प” की बहस औपनिवेशिक काल के अधिकांश समय कम्युनिस्ट राजनीति को दिशा देती रही।
- संयुक्त मोर्चे से जनआंदोलनों की व्यापकता तो बढ़ी, पर वैचारिक मतभेदों के कारण यह प्रयोग स्थायी सिद्ध नहीं हो सका।
(ग) किसान-आंदोलन और ग्रामीण प्रश्न
1940 के दशक में कम्युनिस्टों ने ग्रामीण भारत में निर्णायक भूमिका निभाई।
- तेभागा आंदोलन (बंगाल) में बटाईदार किसानों ने फसल का बड़ा हिस्सा पाने की मांग उठाई, जिससे ज़मींदारी शोषण राष्ट्रीय बहस का विषय बना।
- तेलंगाना किसान संघर्ष (हैदराबाद) में किसानों ने भूमि पुनर्वितरण और बेगार प्रथा के विरुद्ध संगठित संघर्ष किया।
इन आंदोलनों ने भूमि सुधार, किसान अधिकार और ग्रामीण असमानता को भारतीय राजनीति के केंद्र में ला दिया और स्वतंत्रता के बाद की नीतियों को भी प्रभावित किया।
स्वतंत्रता के बाद: विभाजन और संसदीय मार्ग
स्वतंत्रता के बाद कम्युनिस्ट आंदोलन एक निर्णायक मोड़ पर पहुँचा। 1964 में पार्टी का विभाजन हुआ और दो प्रमुख धड़े उभरे—
- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI)
- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (CPI-M)
विभाजन के प्रमुख कारण थे:
- कांग्रेस से संबंधों को लेकर मतभेद—सहयोग बनाम टकराव
- संविधान के भीतर संघर्ष की सीमा पर असहमति
- चीन–सोवियत विभाजन के वैश्विक प्रभाव
इसके बाद कम्युनिस्ट आंदोलन की मुख्यधारा ने संसदीय लोकतंत्र के रास्ते को अपनाया।
चुनावी राजनीति के माध्यम से:
- केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में सरकारें बनीं
- भूमि सुधार, शिक्षा का विस्तार और सार्वजनिक स्वास्थ्य में संरचनात्मक परिवर्तन किए गए
आलोचना और समकालीन प्रासंगिकता
आलोचनाएँ
कम्युनिस्ट आंदोलनों और समाजवादी राज्यों पर अक्सर अधिनायकवाद, संगठनात्मक जड़ता,और आर्थिक अप्रचलन जैसे आरोप लगाए गए हैं।
फिर भी प्रासंगिक क्यों ?
आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में:असमानता बढ़ रही है,श्रम और पूँजी के बीच खाई गहरी हो रही है,और सामाजिक न्याय का प्रश्न पहले से अधिक तीव्र है।
- इसी संदर्भ में साम्यवाद आज भी स्वयं को “सामाजिक रेखा के नीचे” खड़े लोगों श्रमिकों, किसानों और हाशिये के समुदायों की आवाज़ के रूप में प्रस्तुत करता है।