चर्चा में क्यों?
हाल ही में विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने नई दिल्ली में आयोजित “जैविक हथियार सम्मेलन के 50 वर्ष: वैश्विक दक्षिण के लिए जैव सुरक्षा को मजबूत करना” विषयक सम्मेलन को संबोधित किया।

जैव सुरक्षा
- जैव सुरक्षा उन नीतियों, प्रक्रियाओं और संस्थागत व्यवस्थाओं का समेकित ढांचा है, जिनका उद्देश्य जैविक पदार्थों, रोगजनकों और जैव प्रौद्योगिकियों के जानबूझकर दुरुपयोग, चोरी या जैविक हमलों को रोकना तथा मानव, पशु, कृषि और पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित करना है।
- इसमें प्रयोगशालाओं में खतरनाक रोगजनकों और सूक्ष्मजीवों के सुरक्षित प्रबंधन और नियंत्रण की व्यवस्था शामिल होती है।
- इसके अंतर्गत किसी रोगजनक के जानबूझकर फैलाए जाने या जैविक हमले की पहचान, रोकथाम और प्रभावी नियंत्रण की प्रणाली विकसित की जाती है।
संभावित जोखिम:
1. जैविक हथियारों का खतरा
जैविक हथियारों के अंतर्गत हानिकारक वायरस, बैक्टीरिया या टॉक्सिन्स का जानबूझकर प्रसार किया जाता है।
- अदृश्य शत्रु: इन्हें पहचानना कठिन होता है क्योंकि इनके लक्षण प्रकट होने में समय लगता है, जिससे संक्रमण तेजी से फैल जाता है।
- दोहरे उपयोग वाली तकनीक: वैज्ञानिक शोध के लिए विकसित की गई तकनीक का दुरुपयोग घातक रोगाणुओं को अधिक संक्रामक बनाने के लिए किया जा सकता है।
- जैव-आतंकवाद: गैर-राज्य अभिकर्ताओं (Non-state actors) द्वारा सार्वजनिक स्थानों या जल स्रोतों में जैविक एजेंट छोड़ने का जोखिम हमेशा बना रहता है।
2. कृषि और खाद्य सुरक्षा पर प्रभाव
केवल इंसानों को ही नहीं, बल्कि फसलों और पशुधन को भी निशाना बनाया जा सकता है।
- आर्थिक पतन: यदि प्रमुख फसलों (जैसे गेहूं या धान) में कोई कृत्रिम महामारी फैला दी जाए, तो इससे देश की खाद्य आपूर्ति श्रृंखला टूट सकती है और आर्थिक अस्थिरता आ सकती है।
- पशुधन क्षति: फुट एंड माउथ डिजीज (FMD) जैसे रोगों का प्रसार ग्रामीण अर्थव्यवस्था को तबाह कर सकता है।
3. जनजीवन और स्वास्थ्य प्रणाली पर दबाव
- स्वास्थ्य ढांचे का ढहना: अचानक फैली महामारी अस्पतालों और चिकित्सा संसाधनों पर भारी बोझ डालती है, जिससे मृत्यु दर में अत्यधिक वृद्धि हो सकती है।
- सामाजिक अस्थिरता: अज्ञात बीमारियों का डर समाज में अफरा-तफरी और मनोवैज्ञानिक तनाव पैदा करता है।
भारत को जैव सुरक्षा की आवश्यकता क्यों है?
- भारत की भौगोलिक, पर्यावरणीय और सामाजिक परिस्थितियाँ इसे जैविक खतरों और जैव-आपात स्थितियों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती हैं।
- सीमा पार आवागमन और विविध पारिस्थितिक तंत्रों के कारण संक्रामक रोगों और जैव-आपदाओं के प्रसार का जोखिम बना रहता है।
- कृषि पर भारत की अत्यधिक निर्भरता और विशाल जनसंख्या जैविक खतरों के प्रभाव को और अधिक गंभीर बना देती है।
- अरंडी के तेल से प्राप्त विषैले पदार्थ रिसिन के संभावित निर्माण की खबरें गैर-सरकारी तत्वों द्वारा जैविक हथियारों के उपयोग की आशंका को उजागर करती हैं।
- जैव प्रौद्योगिकी के तीव्र प्रसार से जीव विज्ञान पर मानव नियंत्रण बढ़ा है, जिससे दुर्भावनापूर्ण तत्वों द्वारा जैविक हथियारों के विकास की संभावना भी बढ़ गई है।
भारत में जैव सुरक्षा संस्थान और कानूनी ढांचा
प्रमुख एजेंसियाँ और उनके कार्य
- जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT), 1986
देश में जैव प्रौद्योगिकी अनुसंधान और विकास का प्रशासन संभालता है। यह विभाग प्रयोगशालाओं में जैव सुरक्षा ढाँचों के अनुपालन की निगरानी करता है और पुनर्संयोजित डीएनए अनुसंधान से जुड़े दिशानिर्देशों को लागू करता है।
- राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (NCDC)
इसकी जड़ें 1909 में कसौली में स्थापित केंद्रीय मलेरिया ब्यूरो में हैं, जिसे बाद में 1963 में राष्ट्रीय संचारी रोग संस्थान (NICD) में बदल दिया गया और फिर 30 जुलाई, 2009 को इसका नाम बदलकर NCDC कर दिया गया। यह संक्रामक रोगों और जैविक प्रकोपों की निगरानी करता है। यह प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली विकसित करता है और त्वरित प्रतिक्रिया एवं प्रबंधन के लिए रणनीतियाँ लागू करता है।
- पशुपालन और दुग्ध उत्पादन विभाग, 1991
पशुधन जैव सुरक्षा, सीमा पार रोगों की निगरानी और रोकथाम के लिए उत्तरदायी है। यह जूनोटिक रोगों और पशु स्वास्थ्य के खतरे को नियंत्रित करने के लिए नीतियाँ तैयार करता है।
- भारतीय पादप संगरोध संगठन (ICAR-NCIPM)
कृषि आयात-निर्यात की निगरानी करता है। यह विदेशी कीट, रोगजनक और पादप रोगों के प्रवेश को रोकने के लिए नियम लागू करता है और घरेलू कृषि सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
कानूनी और नियामक ढांचा
- पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986
खतरनाक सूक्ष्मजीवों और आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों (GMOs) के उपयोग और प्रबंधन को नियंत्रित करता है। यह अधिनियम जैव प्रौद्योगिकी अनुसंधान और उद्योग में सुरक्षा मानकों को लागू करने में सहायक है।
- सामूहिक विनाश के हथियार और उनके वितरण तंत्र (अवैध गतिविधियों का निषेध) अधिनियम, 2005
जैविक हथियारों के निर्माण, भंडारण, वितरण और उपयोग को अपराध घोषित करता है। इसके तहत जैविक हथियारों से संबंधित गतिविधियों पर कानूनी नियंत्रण सुनिश्चित किया जाता है।
- जैव सुरक्षा नियम, 1989
प्रयोगशालाओं और अनुसंधान संस्थानों में जैव सुरक्षा के मानक तय करते हैं। यह नियम खतरनाक सूक्ष्मजीवों के उपयोग, भंडारण और प्रयोग के लिए प्रक्रियाएँ और स्वीकृतियाँ प्रदान करता है।
- 2017 के दिशानिर्देश
पुनर्संयोजित डीएनए अनुसंधान और जैव नियंत्रण एजेंटों के सुरक्षित उपयोग के लिए दिशा-निर्देश जारी किए गए। ये दिशानिर्देश अनुसंधान गतिविधियों में जोखिम कम करने और जैव सुरक्षा सुनिश्चित करने में सहायक हैं।
- राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA), 2006
जैविक आपदाओं, महामारी और जैव-आतंकवाद जैसी परिस्थितियों से निपटने के लिए तैयारी, प्रतिक्रिया और पुनर्वास से संबंधित विस्तृत दिशानिर्देश प्रदान करता है। यह एजेंसियों के बीच समन्वय और राष्ट्रीय स्तर पर रणनीतिक योजना को सुदृढ़ बनाता है।
विश्व में जैव सुरक्षा
1. जैविक हथियार सम्मेलन (BWC)
यह दुनिया की पहली ऐसी बहुपक्षीय निरस्त्रीकरण संधि है, जो हथियारों की एक पूरी श्रेणी के विकास, उत्पादन और भंडारण को प्रतिबंधित करती है।
- पूर्ण नाम: जैविक और विषाक्त हथियार सम्मेलन (Biological and Toxin Weapons Convention - BTWC)।
- हस्ताक्षर: 1972 में हस्ताक्षर हुए और 1975 में लागू हुई।
- मुख्य उद्देश्य: जैविक एजेंटों (जैसे बैक्टीरिया, वायरस, कवक) और उनसे प्राप्त विषाक्त पदार्थों का हथियारों के रूप में उपयोग पूरी तरह समाप्त करना।
- भारत की स्थिति: भारत इस संधि का एक संस्थापक हस्ताक्षरकर्ता और सक्रिय सदस्य है।
BWC की मुख्य चुनौतियाँ:
- इसमें सत्यापन तंत्र का अभाव है। यानी, यह जांचने के लिए कोई स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय संस्था नहीं है कि कोई देश गुप्त रूप से जैविक हथियार बना रहा है या नहीं।
- यह केवल सरकारी स्तर पर प्रतिबंध लगाती है, गैर-राज्य अभिकर्ताओं (आतंकवादियों) पर अंकुश लगाने में इसकी सीमाएं हैं।
2. ऑस्ट्रेलिया समूह (AG)
यह एक अनौपचारिक और स्वैच्छिक देशों का समूह है, जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि निर्यात के माध्यम से रासायनिक या जैविक हथियारों का विकास न हो।
- स्थापना: 1985 में (ईराक-ईरान युद्ध में रासायनिक हथियारों के उपयोग के बाद)।
- उद्देश्य: सदस्य देश उन रसायनों, जैविक एजेंटों और दोहरे उपयोग वाली प्रौद्योगिकियों के निर्यात पर नियंत्रण रखते हैं। जिनका उपयोग हथियार बनाने में किया जा सकता है।
- कार्यप्रणाली: यह कोई संधि नहीं है, बल्कि देशों का एक साझा मंच है, जहाँ वे निर्यात नियंत्रण नियमों पर सहमति बनाते हैं।
- भारत की स्थिति: भारत वर्ष 2018 में ऑस्ट्रेलिया समूह का 43वाँ सदस्य बना।
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प्रश्न. भारत ने किस वर्ष ऑस्ट्रेलिया समूह का सदस्य बनकर जैविक और रासायनिक हथियारों के नियंत्रण में भाग लिया?
(a) 1975
(b) 1985
(c) 2018
(d) 2022
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