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सिनेमा एवं भारतीय समाज

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: सामाजिक एवं आर्थिक विकास)

भूमिका 

  • सिनेमा को प्राय: सातवीं कला कहा जाता है। भारत में सिनेमा एक प्रमुख सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था के रूप में कार्य करता है जो लोगों के विचारों को आकार देता है, सामाजिक मानदंडों को प्रभावित करता है और क्षेत्रों व वर्गों में विविधता को दर्शाता है।
  • इसकी व्यापक पहुँच इसे जागरूकता, सामाजिक सुधार एवं राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने में सहायक बनाती है किंतु यह रूढ़िवादिता, संस्कृति के व्यावसायीकरण व सामाजिक पूर्वाग्रहों को भी मजबूत कर सकता है।

भारतीय सिनेमा का सकारात्मक प्रभाव

1. भारतीय संस्कृति को वैश्विक पहचान : RRR एवं द एलिफेंट व्हिस्परर्स जैसी अंतर्राष्ट्रीय सफलताओं ने भारत की वैश्विक सांस्कृतिक पहचान को बढ़ावा दिया है और राष्ट्रीय गौरव को बढ़ावा दिया है।

2. भारत की सांस्कृतिक विविधता का प्रतिबिंब : भारतीय सिनेमा क्षेत्रीय परंपराओं, सौंदर्यशास्त्र और रीति-रिवाजों को प्रदर्शित करता है, जैसे- 

  • डेढ़ इश्किया: लखनऊ की नवाबी संस्कृति
  • पीकू: बंगाली घरेलू और सांस्कृतिक लोकाचार
  • खूबसूरत: राजस्थानी महल और विरासत

3. बदलते पारिवारिक मूल्य: 1960 के दशक में ‘खानदान’ जैसी फिल्मों में समाज की अपेक्षाओं एवं पितृसत्तात्मक मानदंडों से बने परिवारों को दिखाया गया। बाद के सिनेमा ने निम्नलिखित का अन्वेषण किया-

  • अवैधता: मासूम, कल हो ना हो
  • विवाहेत्तर संबंध एवं तलाक: कभी अलविदा ना कहना
  • छोटे परिवारों में भावनात्मक बंधन: गुडबाय, जिसने अंतर-पीढ़ीगत अंतर और विकसित हो रही भावनात्मक अभिव्यक्ति पर प्रकाश डाला।

4. महिला सशक्तिकरण और शिक्षा

  • दुर्गा सोहाय (बंगाली): इसमें नायिका लचीलेपन एवं शक्ति के प्रतीक के रूप में उभरती है जो देवी दुर्गा की भावना को प्रतिबंबित करती है।
  • निल बटे सन्नाटा: यह शिक्षा को एक परिवर्तनकारी उपकरण के रूप में प्रदर्शित करता है जिसमें एक माँ अपनी पुत्री को प्रेरित करने के लिए स्कूल लौटती (जाती) है।

5. सामाजिक परिवर्तन के लिए एक उपकरण के रूप में सिनेमा

  • स्वास्थ्य एवं सामाजिक मुद्दों पर जागरूकता बढ़ाना
  • पा: दर्शकों को प्रोजेरिया से परिचित कराया।
  • तारे ज़मीन पर: समाज को डिस्लेक्सिया के प्रति संवेदनशील बनाया।
  • LGBTQ+ अधिकारों को आगे बढ़ाना: ‘फायर’ एवं ‘अलीगढ़’ ने लैंगिक पहचान, गरिमा व मानवाधिकारों पर महत्वपूर्ण संवाद शुरू किया।
  • राष्ट्रवादी और नागरिक विचारों को प्रभावित करना: ‘मुथु’ जैसी तमिल सिनेमा और ‘स्वदेश’ जैसी बॉलीवुड फिल्मों ने नागरिक जिम्मेदारी, राष्ट्रवाद एवं सामाजिक चेतना को मजबूत किया।

समाज पर सिनेमा के नकारात्मक प्रभाव

  1. लैंगिक रूढ़िवादिता एवं मर्दानगी का अमर्यादित चित्रण  
    • आइटम सॉग्स के माध्यम से महिलाओं का वस्तुकरण अभी भी प्रचलित है।
    • ‘कबीर सिंह’ एवं ‘एनिमल’ जैसी फिल्में आक्रामकता व अस्वास्थ्यकर पुरुष व्यवहार का महिमामंडन करती हैं।
    • ‘हम तुम्हारे हैं सनम’ और ‘पुष्पा’ जैसी फिल्मों में घरेलू हिंसा को तुच्छ बताया गया है।
  2. अवास्तविक बॉडी स्टैंडर्ड को बढ़ावा देना : सिनेमा में प्राय: कास्टिंग में गोरी त्वचा को प्राथमिकता देना और बॉडी शेमिंग (जहाँ पतले व अधिक वज़न वाले दोनों तरह के लोगों का मज़ाक उड़ाया जाता है) जैसे चीज़ों को बढ़ावा देता है।
  3. पारंपरिक पारिवारिक संस्थाओं पर सवाल उठाना: ‘ओके जानू’ जैसी फ़िल्में लिव-इन रिलेशनशिप व आधुनिक उदार मूल्यों को सामान्य बनाती हैं जो रूढ़िवादी पारिवारिक मानदंडों को चुनौती देती हैं।
  4. सांस्कृतिक मिश्रण और पसंद में बदलाव : पश्चिमी नृत्य शैलियाँ (हिप-हॉप, जैज़) और पश्चिम से प्रेरित संगीत (रैप) का महत्व बढ़ता जा रहा है। यह कभी-कभी कथक एवं भरतनाट्यम जैसी शास्त्रीय भारतीय परंपराओं पर हावी हो जाता है।
  5. कमज़ोर समुदायों का खराब प्रतिनिधित्व : दोस्ताना’ में LGBTQ+ पहचान का मज़ाक उड़ाया गया और ‘गोलमाल’ जैसी फ़िल्मों में विकलांगता (बोलने में दिक्कत, अंधापन, आदि) का मज़ाक उड़ाया गया।
  6. नशीली दवाओं के सेवन का महिमामंडन: ‘देव डी’ जैसी फ़िल्में धूम्रपान, शराब पीने और ड्रग्स के इस्तेमाल को फैशनेबल या मुश्किलों से निपटने के तरीके के रूप में दिखाती हैं जो युवाओं के व्यवहार को प्रभावित करता है।
  7. राजनीतिक प्रचार एवं सामाजिक विभाजन: कुछ फ़िल्में पक्षपातपूर्ण विचारधाराओं को बढ़ावा देने के लिए भावनाओं और ऐतिहासिक शिकायतों का हथियार के तौर पर इस्तेमाल करती हैं, जिससे प्राय: सामाजिक एवं राजनीतिक विभाजन गहरा होता है।

निष्कर्ष 

भारतीय सिनेमा जनसंचार का एक शक्तिशाली माध्यम बना हुआ है जो सामाजिक परिवर्तन लाने, सांस्कृतिक विविधता का जश्न मनाने और सार्वजनिक चेतना को आकार देने में सक्षम है। फिर भी, रूढ़िवादिता, सनसनीखेज व राजनीतिकरण के मुद्दे अधिक नैतिक ज़िम्मेदारी की मांग करते हैं। रचनात्मक स्वतंत्रता और सामाजिक जवाबदेही के बीच संतुलन बनाना यह सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है कि सिनेमा भारत के सामाजिक ताने-बाने को मज़बूत करे, न कि उसे विकृत करे।

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