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भारत में स्थानीय स्वशासन (Local Self-Government in India)

  • स्थानीय स्वशासन उस व्यवस्थात्मक ढांचे को कहते हैं जिसमें नागरिकों द्वारा प्रत्यक्ष या प्रतिनियुक्त प्रतिनिधियों का चुनाव कर, वे खुद अपने क्षेत्र की स्थानीय समस्याएँ (जैसे सड़क, पानी, सफाई, प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य केंद्र आदि) हल करते हैं। 
  • यह लोकतंत्र की मूल आधारशिला है, क्योंकि:
    • नागरिक सहभागिता बढ़ती है: लोग सीधे अपने प्रतिनिधियों को चुनकर सरकारी निर्णयों में शामिल होते हैं।
    • स्थानीय जरूरतों की समझ बेहतर बनती है: क्षेत्र विशेष की समस्याएँ केन्द्र सरकार से अधिक दूरस्थ हो सकती हैं; स्थानीय निकाय इन्हें ठीक से पहचानकर संबोधित कर सकते हैं।
    • प्रशासनिक जवाबदेही सुनिश्चित होती है: चुने गए प्रतिनिधि अपने मोहल्लों और गांवों में लोगों के बीच प्रतिदिन नजर आते हैं, इसलिए उन्हें जवाबदेह बनाया जा सकता है।

भारत में स्थानीय स्वशासन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 

कालखंड

प्राचीन भारत में स्थानीय स्वशासन:-

भारत में स्थानीय स्वशासन की जड़ें अत्यंत प्राचीन हैं। वैदिक काल से ही "ग्राम सभाओं" का उल्लेख मिलता है जो स्वशासित ग्रामीण इकाइयाँ थीं।

महाजनपद काल में भी स्थानीय निकायों द्वारा कर संग्रह, कानून-व्यवस्था और सार्वजनिक कार्यों का संचालन होता था।

विशेष रूप से चोल साम्राज्य (9वीं–13वीं शताब्दी) में 'सभा' (ब्राह्मणों की समिति) और 'उर' (गैर-ब्राह्मणों की सभा) जैसे संस्थान बेहद प्रभावशाली थे। इनमें कर निर्धारण, जल प्रबंधन, मंदिर प्रशासन, आदि जैसे कार्य समुदाय द्वारा ही संचालित होते थे। ये पूरी तरह लोकतांत्रिक और भागीदारी आधारित प्रणाली पर आधारित थीं।

मध्यकालीन भारत में स्थानीय स्वशासन:-

  • दिल्ली सल्तनत और मुगल काल में स्थानीय स्तर पर प्रशासनिक इकाइयाँ मौजूद थीं लेकिन इनकी स्वायत्तता सीमित थी।
  • जमींदारी, मुकद्दमी और पटवारी जैसी व्यवस्थाएँ थीं, लेकिन ये केंद्र या साम्राज्य के प्रति उत्तरदायी थीं, न कि जनता के प्रति।
  • स्थानीय स्वशासन के लोकतांत्रिक स्वरूप का धीरे-धीरे ह्रास हुआ और सामंती नियंत्रण बढ़ा।|

ब्रिटिश काल में स्थानीय स्वशासन (1858–1947) 

  • 1882 में लॉर्ड रिपन ने स्थानीय स्वशासन के महत्व को मान्यता दी और नगरपालिकाओं व जिला परिषदों के गठन की सिफारिश की। इसी कारण उन्हें भारत में स्थानीय स्वशासन का जनककहा जाता है।
  • बाद में, मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार (1919) और भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत स्थानीय निकायों को कुछ अधिकार दिए गए, लेकिन ये संस्थाएँ वित्त और निर्णयों के लिए ब्रिटिश अधिकारियों पर निर्भर थीं।
  • इन निकायों में प्रशासनिक, वित्तीय और राजनीतिक स्वतंत्रता का अभाव था। हालांकि, यह भारत में स्थानीय लोकतंत्र की बुनियाद तैयार करने का चरण था।|

स्वतंत्रता के बाद में स्थानीय स्वशासन (1947–1992) 

  • संविधान निर्माताओं ने स्थानीय स्वशासन के महत्व को समझते हुए अनुच्छेद 40 में राज्य को “ग्राम पंचायतों के गठन को बढ़ावा देने” का निर्देश दिया।
  • लेकिन शुरुआत में पंचायती राज कोई संवैधानिक रूप नहीं था; राज्यों पर इसकी जिम्मेदारी छोड़ी गई।
  • 1957 में बलवंत राय मेहता समिति ने त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली की सिफारिश की:
    1. ग्राम पंचायत (गांव स्तर)
    2. पंचायत समिति (ब्लॉक स्तर)
    3. जिला परिषद (जिला स्तर)
  • इसके आधार पर राजस्थान में 1959 में प्रथम बार पंचायती राज प्रणाली लागू हुई।
    • बाद में अशोक मेहता समिति (1978), जीवीके राव समिति (1985) और एलएम सिंघवी समिति (1986) ने स्थानीय निकायों को संवैधानिक दर्जा देने की वकालत की।|

1992 का ऐतिहासिक बदलाव

  • लंबे समय तक चली बहस और समितियों की सिफारिशों के बाद, 73वाँ और 74वाँ संविधान संशोधन अधिनियम 1992 में पारित किए गए और 24 अप्रैल 1993 से प्रभावी हुए।
  • इससे भारत में स्थानीय स्वशासन को संवैधानिक दर्जा मिला।
    • 73वाँ संशोधन: ग्रामीण क्षेत्रों के लिए – ग्राम पंचायत, पंचायत समिति, जिला परिषद।
    • 74वाँ संशोधन: शहरी क्षेत्रों के लिए – नगर पंचायत, नगर पालिका, नगर निगम।

इन संशोधनों से लोकतंत्र की नींव को मजबूती, जन सहभागिता को बढ़ावा, और वंचित वर्गों का सशक्तिकरण सुनिश्चित हुआ।

73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 (ग्रामीण स्थानीय स्वशासन के लिए)

लागू होने की तिथि: 24 अप्रैल 1993

(इसलिए 24 अप्रैल को हर वर्ष राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस मनाया जाता है)

उद्देश्य:

ग्राम स्तर पर लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण को मजबूती देना और जनता को शासन में भागीदारी का अधिकार देना।

मुख्य प्रावधान:

1. त्रिस्तरीय पंचायती राज प्रणाली:

स्तर

संस्था

स्तर

I

ग्राम पंचायत

गांव स्तर

II

पंचायत समिति

ब्लॉक/तालुका स्तर

III

जिला परिषद

जिला स्तर

2. ग्राम सभा:

ग्राम पंचायत के क्षेत्र में आने वाले सभी मतदाताओं की एक सामान्य सभा। यह पंचायत की गतिविधियों पर निगरानी रखती है।

3. आरक्षण की व्यवस्था:

  • अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), और महिलाओं (कम से कम 33%) के लिए पदों और सीटों में आरक्षण।
  • महिलाओं के लिए सभी स्तरों पर आरक्षित सीटें।

4. निर्वाचन की प्रक्रिया:

  • पंचायतों के चुनाव हर 5 वर्ष में होंगे।
  • स्वतंत्र चुनाव कराने हेतु प्रत्येक राज्य में राज्य निर्वाचन आयोग की स्थापना की गई।

5. वित्तीय सशक्तिकरण:

  • पंचायतों को आर्थिक स्वायत्तता देने हेतु राज्यों को राज्य वित्त आयोग गठित करना होता है, जो पंचायती संस्थाओं के वित्तीय वितरण की सिफारिश करता है।

6. अनुच्छेद और अनुसूची:

  • अनुच्छेद 243 से 243-ओ तक जोड़े गए।
  • अनुसूची 11वीं जोड़ी गई, जिसमें पंचायतों को सौंपे जाने वाले 29 विषयों की सूची दी गई (जैसे – कृषि, जल प्रबंधन, शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्राम सड़कें, सामाजिक कल्याण आदि)।

74वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 (शहरी स्थानीय स्वशासन के लिए)

लागू होने की तिथि: 1 जून 1993

उद्देश्य:

शहरी क्षेत्रों में स्थानीय निकायों को सशक्त बनाना, भागीदारी बढ़ाना और बेहतर शहरी प्रशासन सुनिश्चित करना।

मुख्य प्रावधान:-

1. शहरी स्थानीय निकायों के प्रकार:

शहरी संस्था

कब गठित होती है

नगर पंचायत

वह क्षेत्र जो गांव से शहर बनने की प्रक्रिया में है।

नगर पालिका (Municipal Council)

छोटे और मध्यम आकार के शहरों के लिए।

नगर निगम (Municipal Corporation)

बड़े शहरों और महानगरों के लिए।

2. सदस्यों का निर्वाचन:

  • सभी निकायों में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा सदस्य चुने जाते हैं।
  • प्रमुख पदों (जैसे मेयर) का चुनाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हो सकता है, राज्य सरकार तय करती है।

3. आरक्षण व्यवस्था:

  • अनुसूचित जाति, जनजाति और महिलाओं (33%) के लिए आरक्षित सीटें।
  • यह आरक्षण सदस्यता के साथ-साथ अध्यक्षीय पदों पर भी लागू होता है।

4. राज्य निर्वाचन आयोग:

  • शहरी निकायों के चुनावों के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष प्रणाली सुनिश्चित करता है।

5. राज्य वित्त आयोग:

  • प्रत्येक 5 वर्ष में गठित होकर शहरी निकायों के लिए वित्तीय वितरण और अनुदान की सिफारिश करता है।

6. अनुच्छेद और अनुसूची:

  • अनुच्छेद 243-P से 243-ZG तक जोड़े गए।
  • अनुसूची 12वीं जोड़ी गई, जिसमें नगरपालिकाओं को सौंपे जाने वाले 18 कार्य/विषयों की सूची दी गई (जैसे – नगरीय नियोजन, जल आपूर्ति, ठोस कचरा प्रबंधन, स्वास्थ्य, परिवहन, स्ट्रीट लाइटिंग आदि)।

स्थानीय स्वशासन की चुनौतियाँ (Challenges of Local Self-Government)

1. राजनीतिक हस्तक्षेप (Political Interference)

स्थानीय निकायों के कार्यों में विधायक, सांसद या राज्य सरकारों का हस्तक्षेप आम बात है। इससे स्वतंत्र कार्यप्रणाली बाधित होती है और पंचायतों/नगरपालिकाओं के निर्णय लेने की क्षमता कमजोर पड़ती है

2. वित्तीय संसाधनों की कमी (Lack of Financial Autonomy)

  • पंचायतों और नगरपालिकाओं को कर लगाने या संसाधन जुटाने की सीमित स्वतंत्रता होती है।
  • राज्य सरकारों पर अधिक निर्भरता होती है, जिससे विकास कार्यों में देरी होती है।
  • राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों को कई बार नजरअंदाज कर दिया जाता है।

3.  जनप्रतिनिधियों का प्रशिक्षण न होना (Lack of Training among Representatives)

  • चुने गए प्रतिनिधियों में प्रशासनिक, वित्तीय और तकनीकी ज्ञान की कमी देखी जाती है।
  • उन्हें योजनाओं, कानूनों और अधिकारों की जानकारी कम होती है, जिससे वे प्रभावी शासन नहीं कर पाते।

4. नौकरशाही की मनमानी (Bureaucratic Dominance)

  • प्रशासनिक अधिकारी कभी-कभी निर्वाचित प्रतिनिधियों को नजरअंदाज कर निर्णय लेते हैं।
  • इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर होती है और प्रतिनिधियों का मनोबल गिरता है।

5. सामाजिक असमानता और जातीय प्रभाव (Social Inequalities & Caste Dynamics)

  • पंचायतों में जातिगत राजनीति हावी होती है, जिससे योग्य लोगों को मौका नहीं मिलता।
  • महिला और दलित प्रतिनिधियों को प्रायः ‘रबर स्टैम्प’ बना दिया जाता है, निर्णय उनके पति या जातीय समूह लेते हैं।

6. जन भागीदारी की कमी (Low People's Participation)

  • ग्राम सभाएं औपचारिकता भर बनकर रह गई हैं।
  • लोगों को न तो जानकारी होती है और न ही वे योजनाओं में सक्रिय भागीदारी करते हैं।

स्थानीय स्वशासन का महत्व (Importance of Local Self-Government)

1. लोकतंत्र की नींव मजबूत करता है

यह लोकतंत्र का सबसे मूल और जीवंत रूप है, जहां आम नागरिक प्रत्यक्ष रूप से शासन का हिस्सा बनते हैं।

2. स्थानीय समस्याओं का त्वरित समाधान

स्थानीय निकाय क्षेत्र की जमीनी समस्याओं को अधिक अच्छे से समझते हैं, इसलिए वे तेजी से समाधान दे सकते हैं।

3. नागरिकों को सशक्त बनाना (Empowered Citizenship)

नागरिकों को प्रशासन, बजट, विकास और योजनाओं में प्रत्यक्ष भूमिका मिलती है, जिससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है।

4. महिला और दलित नेतृत्व को बढ़ावा

  • आरक्षण नीति के तहत महिलाओं, अनुसूचित जातियों और जनजातियों को नेतृत्व का अवसर मिलता है।
  • इससे लोकतांत्रिक समावेशन और सामाजिक न्याय को बढ़ावा मिलता है।

5. प्रशासनिक दक्षता

स्थानीय स्तर पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता से प्रशासन तेज, पारदर्शी और जवाबदेह बनता है।

महिला सशक्तिकरण और स्थानीय स्वशासन (Women Empowerment through Local Governance)

संवैधानिक प्रावधान:

  • 73वां और 74वां संशोधन अधिनियम महिलाओं को 1/3 (33%) आरक्षण प्रदान करता है – सदस्यता और अध्यक्ष पदों दोनों के लिए।
  • यह व्यवस्था महिलाओं को नेतृत्व के अनुभव और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी का अवसर देती है।

राज्यों द्वारा 50% आरक्षण की पहल:

  • बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ जैसे कई राज्यों ने महिलाओं को 50% तक आरक्षण प्रदान किया है।
  • इससे हजारों महिलाएं ग्राम प्रधान, सरपंच, महापौर और पार्षद बनीं, जिससे जमीनी स्तर पर महिलाओं का सशक्तिकरण हुआ।

प्रभाव और चुनौतियाँ:

  • कई महिलाएं पहली बार नेतृत्व अनुभव करती हैं, जिससे उनमें आत्मनिर्भरता और जागरूकता आती है।
  • हालांकि, कुछ जगहों पर ‘प्रॉक्सी शासन’ भी देखने को मिलता है, जहां पति या परिवार के सदस्य महिला प्रतिनिधि के नाम पर सत्ता चलाते हैं। इसे "सरपंच पति" की समस्या कहा जाता है।
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