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कितना कारगर है मानव-हाथी संघर्ष में रेडियो कॉलरिंग?

(प्रारंभिक परीक्षा- राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 1 : वनस्पति एवं प्राणिजगत में परिवर्तन और इस प्रकार के परिवर्तनों के प्रभाव)

संदर्भ 

हाल ही में, असम राज्य में पहली बार सोनितपुर ज़िले में एक जंगली हाथी को ‘रेडियो-कॉलर’ (Radio-Collar) पहनाया गया है।

संयुक्त प्रयास

  • असम राज्य के वन विभाग ने यह कार्य ‘वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड-इंडिया’ (WWF-India) एन.जी.ओ. के सहयोग से किया। यह संयुक्त प्रयास राज्य में मानव-हाथी संघर्ष के अध्ययन और उसे कम करने की एक पहल है।
  • मार्च 2020 में, वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने असम के सोनितपुर और विश्वनाथ ज़िलों में पाँच हाथियों को कॉलरिंग की मंज़ूरी दी थी। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़, ओडिशा और तमिलनाडु में भी कॉलरिंग का प्रयास किया गया है।

क्या हैं रेडियो-कॉलर

  • रेडियो कॉलर जी.पी.एस. से युक्त कॉलर होते हैं जो हाथियों के ठिकाने और गतिविधियों के बारे में जानकारी प्रदान कर सकते हैं। इनका वज़न लगभग 8 किग्रा. होता है और ये हाथियों के गले में फिट किये जाते हैं।
  • रेडियो कॉलर दो प्रकार के होते हैं- सेटेलाइट आधारित जी.पी.एस. (Global Positioning System) व रेडियो आधारित वी.एच.एफ. (Very High Frequency)।
  • कॉलरिंग प्रक्रिया में उपयुक्त हाथी (प्रायः एक वयस्क हाथी) की पहचान करना, उसे निश्चतेक देना (चेतनाशून्य करना) और हाथी के होश में आने से पहले उसके गले में कॉलर पहनाना शामिल है।
  • इसके अतिरिक्त, किसी भी नियत समय में हाथी की वास्तविक गतिविधियों (दौड़ना, चलना, खाना, पीना, आदि) को समझने के लिये कॉलर में एक ‘एक्सेलेरोमीटर’ (त्वरणमापी) भी लगाया जा रहा है।

हाथियों के रेडियो-कॉलरिंग में समस्याएँ

  • टैग करने के लिये सबसे पहले संबंधित झुंड के प्रमुख हाथी (Matriarch/कुलमाता) की पहचान करनी पड़ती है, जो कि अत्यधिक समय लेने वाली और चुनौतीपूर्ण प्रक्रिया है।
  • इसके अतिरिक्त, हाथियों को ट्रैंक्विलाइज़ करने के लिये हेलीकॉप्टर और अन्य अत्याधुनिक उपकरणों की कमी भी एक समस्या है। साथ ही, कॉलर और ट्रैंक्विलाइजिंग दवाओं सहित रेडियो कॉलरिंग के सभी घटक भारत में उपलब्ध नहीं हैं। इनका आयात करना पड़ता है और ये अत्यधिक खर्चीले होते हैं।
  • चेतना शून्य करने के लिये विशेषज्ञ पहले से चिह्नांकित हाथियों को 15 से 20 मीटर की दूरी से ट्रैंक्विलाइज गन (डार्ट गन) से निश्चतेक देते हैं, जिसके बाद उनको रेडियो कॉलर पहनाया जाता है। तत्पश्चात् हाथी को होश में आने के लिये एंटी डोज़ का इंजेक्शन दिया जाता है।
  • हाथियों के आकार (Size) में वृद्धि होने के कारण कॉलर कसे (Tight) हो सकते हैं, इसलिये कॉलरिंग के लिये प्राय: किसी वयोवृद्ध हाथी का चुनाव किया जाता है, जिसके वृद्धि की संभावना कम होती है।
  • साथ ही, उन स्थानों की भौगोलिक स्थिति भी महत्त्वपूर्ण होती है, क्योंकि घने जंगलों और अत्यधिक पहाड़ियों व नदियों वाले स्थानों में यह कार्य चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
  • इसके अतिरिक्त, डिवाइस में तकनीकी खराबी और कॉलर के वजन तथा हाथियों द्वारा अपने गले को पेड़ों से रगड़ने के कारण या तो सिग्नल कमज़ोर हो जाते हैं या अंततः कॉलर गिर जाता है। साथ ही, ट्रैकिंग कॉलर के इंफेक्‍शन से बाघिन की मौत का मामला भी सामने आ चुका है। 

रेडियो- कॉलरिंग से लाभ

  • रेडियो कॉलर से वन्य प्राणियों की स्थिति और आवागमन का पता चलता है। रेडियो कॉलर एक तरह का इलेक्‍ट्रॉनिक डिवाइस है, जिसमें उपग्रहों के माध्यम से जानवरों की गतिविधियों पर निगरानी रखी जाती है, जो सिग्नल देता है।  
  • जी.पी.एस. से मिली जानकारी से विभिन्न क्षेत्रों और वासस्थानों में हाथियों के झुंड के आवागमन पैटर्न की निगरानी और अध्ययन में मदद मिलती है। इससे हाथियों के द्वारा आवागमन के लिये अधिक प्रयोग किये जाने वाले क्षेत्रों और गलियारों, आवास की पर्याप्तता और उसके संरक्षण की आवश्यकता का पता चलता है। इससे संघर्ष की प्रकृति और उसके कारणों को समझने में सहायता मिलेगी। 
  • कॉलर एक प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली के रूप में काम करेगा। इससे लोग संघर्ष से बचने के लिये पूर्व तैयारी कर सकते हैं जो संघर्ष को कम करने में मदद करेगा। 
  • चूँकि, वन्यजीवों के वासस्थानों का ह्रास हो रहा है और उनके पारंपरिक गलियारों के उपयोग में कमी आ रही, अत: उनके आवागमन की सीमाओं व परिधियों का अध्ययन और नए वासस्थानों की सूची बनाना आवश्यक है।
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