(प्रारंभिक परीक्षा: पर्यावरणीय पारिस्थितिकी, जैव-विविधता और जलवायु परिवर्तन संबंधी सामान्य मुद्दे) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन) |
संदर्भ
भारत की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में से एक अरावली एक बार फिर नीति एवं न्यायिक विमर्श के केंद्र में है। सर्वोच्च न्यायालय ने हालिया आदेश में अरावली पहाड़ियों और पर्वत श्रृंखलाओं की एक समान वैज्ञानिक परिभाषा तय करते हुए दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान एवं गुजरात में फैले इसके क्षेत्रों में नए खनन पट्टों व नवीनीकरण पर रोक लगा दी है। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला केवल खनन नियंत्रण तक सीमित नहीं है बल्कि दीर्घकालिक पारिस्थितिक सुरक्षा की दिशा में एक संरचनात्मक हस्तक्षेप है।
अरावली पर्वत श्रृंखला का पारिस्थितिक महत्व
- लगभग दो अरब वर्ष पुरानी अरावली पर्वतमाला भारत की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला है। यह इंडो–गंगा के मैदानों को मरुस्थलीकरण से बचाने वाली प्राकृतिक ढाल के रूप में कार्य करती है और थार रेगिस्तान के पूर्व की ओर फैलाव को रोकती है।
- दिल्ली से गुजरात तक लगभग 650 किलोमीटर में फैली यह श्रृंखला-
- जलवायु स्थिरीकरण में योगदान देती है
- जैव-विविधता को सहारा देती है
- भूजल पुनर्भरण प्रणालियों को मजबूत करती है
- चंबल, साबरमती व लूनी जैसी नदियों का स्रोत है
- अरावली पर्वतमाला विभिन्न खनिज संसाधनों (जैसे- बलुआ पत्थर, चूना पत्थर, संगमरमर, ग्रेनाइट तथा सीसा, जस्ता, तांबा, सोना व टंगस्टन) से समृद्ध होने के कारण लंबे समय से खनन गतिविधियों का केंद्र रही है। किंतु बीते चार दशकों में पत्थर और रेत के अत्यधिक खनन ने वायु गुणवत्ता को प्रदूषित करने के साथ भू-जल पुनर्भरण को गंभीर रूप से प्रभावित किया है।
खनन पर अब तक की कार्रवाई
- पर्यावरण मंत्रालय ने 1990 के दशक से खनन को केवल स्वीकृत परियोजनाओं तक सीमित करने के नियम बनाए, परंतु इनका व्यापक उल्लंघन हुआ।
- वर्ष 2009 में सर्वोच्च न्यायालय ने हरियाणा के फरीदाबाद, गुरुग्राम एवं मेवात में खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया।
- मई 2024 में न्यायालय ने अरावली में नए खनन पट्टों एवं नवीनीकरण पर रोक लगाते हुए केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (CEC) को विस्तृत जाँच का निर्देश दिया।
केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (CEC) की प्रमुख सिफारिशें
- अरावली पर्वतमाला के दीर्घकालिक संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (CEC) ने एक विज्ञान-आधारित और बहुस्तरीय रणनीति का सुझाव दिया।
- इस समिति का जोर खनन नियंत्रण के साथ-साथ पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने पर था। इसकी मुख्य सिफारिशें इस प्रकार हैं–
- सभी राज्यों में अरावली पर्वतमाला का समग्र एवं वैज्ञानिक मानचित्रण किया जाए, ताकि इसकी वास्तविक भौगोलिक सीमा व संवेदनशील क्षेत्रों की स्पष्ट पहचान हो सके।
- खनन गतिविधियों के संचयी पर्यावरणीय प्रभाव का विस्तृत आकलन किया जाए, जिससे दीर्घकालिक नुकसान को समझा और रोका जा सके।
- वन्यजीव गलियारे, भूजल पुनर्भरण क्षेत्र, जल निकाय और संरक्षित आवास जैसे पारिस्थितिक रूप से अत्यंत संवेदनशील क्षेत्रों में खनन पर कड़ा प्रतिबंध लगाया जाए।
- जब तक वैज्ञानिक मानचित्रण और पर्यावरणीय मूल्यांकन की प्रक्रिया पूरी न हो जाए, तब तक किसी भी नए खनन पट्टे के आवंटन या मौजूदा पट्टों के नवीनीकरण की अनुमति न दी जाए।
- पत्थर-पीसने (स्टोन क्रशर) इकाइयों पर सख्त नियंत्रण और नियमन लागू किया जाए क्योंकि इनसे वायु प्रदूषण में उल्लेखनीय वृद्धि होती है।
- इन सभी सिफारिशों को सर्वोच्च न्यायालय ने नवंबर 2025 के अपने आदेश में स्वीकार करते हुए अरावली पर्वतमाला के संरक्षण के लिए इन्हें लागू करने का निर्देश दिया।
अरावली ‘ग्रीन वॉल’ परियोजना
- जून 2025 में केंद्र ने अरावली ‘ग्रीन वॉल’ परियोजना शुरू की। इसके तहत गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली के 29 जिलों में अरावली के आसपास पाँच किलोमीटर के बफर क्षेत्र में हरियाली बढ़ाई जाएगी।
- सरकार के अनुसार, यह पहल वर्ष 2030 तक 26 करोड़ हेक्टेयर बंजर भूमि की बहाली में सहायक होगी।
एक समान परिभाषा की आवश्यकता
- न्यायालय ने पाया कि राज्यों और विशेषज्ञ संस्थानों द्वारा अरावली की पहचान के लिए असंगत मानदंड अपनाए जा रहे थे। यहाँ तक कि भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI) की परिभाषाएँ भी समय के साथ भिन्न रही हैं।
- अरावली पर्वतमाला एवं शृंखला का हिस्सा होने के लिए वर्ष 2010 में एफ.एस.आई. ने निम्नलिखित शर्तें निर्धारित की है-
- पहाड़ियों की ढलान 3° से अधिक हो
- तलहटी का बफर = 100 मीटर
- पहाड़ियों के बीच की दूरी या घाटी की चौड़ाई = 500 मीटर और
- ऊपर परिभाषित पहाड़ियों से चारों ओर से घिरा क्षेत्र हो, वे अरावली पर्वतमाला और पर्वतमाला का हिस्सा होंगी।
- यद्यपि विभिन प्रकार की असंगतियों को दूर करने के लिए पर्यावरण मंत्रालय, भारतीय वन सर्वेक्षण, राज्य वन विभागों, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण और केंद्रीय पर्यावरण आयोग के प्रतिनिधियों को शामिल कर एक संयुक्त समिति गठित की गई।
समिति द्वारा दिए निष्कर्ष
- अक्तूबर 2025 में समिति ने निष्कर्ष प्रस्तुत किए और अंततः यह तय हुआ कि 100 मीटर से अधिक ऊँची पहाड़ियाँ अरावली की परिभाषा में आएंगी।
- एमिकस क्यूरे ने इसे बहुत संकीर्ण बताते हुए आशंका जताई कि इससे 100 मीटर से कम ऊँचाई वाली पहाड़ियों में खनन खुल सकता है।
- वहीं, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ने दलील दी कि वैकल्पिक तकनीकी मानदंड वास्तव में बड़े क्षेत्रों को बाहर कर देते हैं जबकि 100 मीटर का मानक अपेक्षाकृत अधिक समावेशी है।
सर्वोच्च न्यायालय के अतिरिक्त निर्देश
- अरावली पर्वतमाला के संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने एक अन्य महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए पूरे क्षेत्र को कवर करने वाली सतत खनन प्रबंधन योजना तैयार करने का आदेश दिया है।
- इस योजना के अंतर्गत-
- उन क्षेत्रों का स्पष्ट निर्धारण किया जाएगा जहाँ खनन पूरी तरह वर्जित रहेगा
- ऐसे इलाकों की पहचान की जाएगी जहाँ सीमित और कड़े नियंत्रण के साथ खनन की अनुमति दी जा सकती है
- संवेदनशील पर्यावासों एवं वन्यजीव गलियारों का वैज्ञानिक मानचित्रण किया जाएगा
- खनन से होने वाले संचयी पारिस्थितिक प्रभावों का मूल्यांकन किया जाएगा
- क्षेत्र की पारिस्थितिक वहन क्षमता तय की जाएगी
- पर्यावरण बहाली एवं पुनर्वास के उपायों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाएगा।
- वस्तुतः इस समग्र योजना का उद्देश्य खनन गतिविधियों को नियंत्रित करते हुए अरावली की पारिस्थितिक समग्रता को बनाए रखना है।
खनन पर पूर्ण प्रतिबंध न लगाने का कारण
- सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि पिछले अनुभवों से यह साबित होता है कि पूर्ण खनन प्रतिबंध प्राय: विपरीत परिणाम देते हैं जिससे अवैध खनन सिंडिकेट, हिंसक रेत माफिया और अनियमित खनन गतिविधियां बढ़ जाती हैं।
- इस कारण न्यायालय ने संतुलित दृष्टिकोण अपनाया है, जिसके तहत -
- मौजूदा कानूनी खनन गतिविधियाँ कड़े नियमों और निगरानी के अंतर्गत जारी रहेंगी।
- नई खनन परियोजनाओं को तब तक रोका जाएगा जब तक वैज्ञानिक आधार पर तैयार की गई प्रबंधन योजना लागू नहीं हो जाती है।
- जो क्षेत्र पारिस्थितिक रूप से अत्यधिक संवेदनशील हैं, वहाँ खनन पर स्थायी प्रतिबंध रहेगा।
निष्कर्ष: संरक्षण एवं विकास के बीच संतुलन
सर्वोच्च न्यायालय का यह आदेश अरावली को केवल एक भौगोलिक संरचना नहीं, बल्कि राष्ट्रीय पारिस्थितिक संपदा के रूप में देखने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। एक समान परिभाषा, वैज्ञानिक मानचित्रण और चरणबद्ध नियमन के जरिए न्यायालय ने संरक्षण एवं विकास के बीच व्यावहारिक संतुलन साधने का प्रयास किया है। आने वाले वर्षों में इस ढांचे का प्रभाव इस बात से तय होगा कि राज्य एवं केंद्र इसे कितनी ईमानदारी से लागू करते हैं।