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स्वतंत्रता के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास का सफर

स्वतंत्रता के समय भारत को एक ऐसी अर्थव्यवस्था विरासत में मिली जो

  • औद्योगिक रूप से पिछड़ी,
  • कृषि पर अत्यधिक निर्भर,
  • पूंजी व तकनीक की कमी से जूझ रही थी,
  • और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं से ग्रस्त थी।

इन परिस्थितियों में भारत का आर्थिक विकास केवल बाजार शक्तियों पर छोड़ना संभव नहीं था।  इसलिए भारत ने राज्य-नेतृत्व वाले विकास मॉडल को अपनाया, जिसने समय के साथ उदारीकरण, वैश्वीकरण और संस्थागत सुधारों के माध्यम से स्वयं को बदला।

भारतीय आर्थिक नीति का विकासात्मक चरणवार विश्लेषण

1. 1950–1964: केंद्रीकृत योजना एवं राज्य–प्रधान विकास मॉडल

  • स्वतंत्रता के बाद भारत ने आर्थिक विकास के लिए समाजवादी प्रेरणा पर आधारित केंद्रीकृत नियोजन मॉडल को अपनाया। 
  • वर्ष 1950 में योजना आयोग की स्थापना की गई, जिसने पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से संसाधनों के आवंटन और विकास प्राथमिकताओं का निर्धारण किया।
  • इस चरण में आर्थिक नीति का मुख्य फोकस भारी उद्योगों के विकास, जैसे इस्पात, ऊर्जा, मशीनरी और आधारभूत संरचना पर रहा। 
  • सार्वजनिक क्षेत्र को विकास का इंजन माना गया और आयात प्रतिस्थापन औद्योगिकीकरण (Import Substitution Industrialization – ISI) को आत्मनिर्भरता का साधन समझा गया।

सकारात्मक उपलब्धियाँ:

  • इस कालखंड में भारत का एक सुदृढ़ औद्योगिक आधार तैयार हुआ।
  • भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (IITs), सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों (PSUs) और वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थानों की स्थापना ने दीर्घकालिक तकनीकी क्षमता को मजबूत किया। 
  • इसके साथ ही कृषि सुधारों और संस्थागत ढाँचे के माध्यम से खाद्य आत्मनिर्भरता की नींव पड़ी।

सीमाएँ:

हालाँकि, अत्यधिक नियंत्रण और लाइसेंस–परमिट राज ने निजी उद्यमिता और प्रतिस्पर्धा को सीमित कर दिया। सार्वजनिक क्षेत्र में अक्षमता बढ़ी और उत्पादकता कम रही। परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था की विकास दर लंबे समय तक लगभग 3–3.5% पर अटकी रही, जिसेहिंदू दर की वृद्धि (Hindu Rate of Growth)कहा गया।

2. 1965–1980: संकट, नियंत्रण और आत्मनिर्भरता का दौर

  • यह चरण आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरताओं से प्रभावित रहा। 1960 के दशक के मध्य में सूखा, युद्ध और विदेशी सहायता पर निर्भरता ने भारत को आत्मनिर्भरता की दिशा में कठोर नीतियाँ अपनाने के लिए प्रेरित किया।
  • हरित क्रांति के माध्यम से कृषि उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई, जिससे खाद्यान्न सुरक्षा सुनिश्चित हुई। 
  • वर्ष 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर वित्तीय संसाधनों को प्राथमिकता क्षेत्रों तक पहुँचाने का प्रयास किया गया। 
  • इसी काल में “गरीबी हटाओ” जैसे नारों के साथ सामाजिक न्याय और पुनर्वितरण पर बल दिया गया।

सीमाएँ:

  • हालाँकि इन नीतियों के सामाजिक उद्देश्य स्पष्ट थे, लेकिन इनसे राजकोषीय घाटा बढ़ा और सार्वजनिक व्यय की दक्षता में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ। 
  • नियंत्रण आधारित व्यवस्था के कारण औद्योगिक उत्पादकता और प्रतिस्पर्धात्मकता कमजोर बनी रही।

3. 1991: संरचनात्मक सुधारों का निर्णायक मोड़

  • वर्ष 1991 का भुगतान संतुलन संकट भारतीय आर्थिक नीति के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ सिद्ध हुआ। 
  • विदेशी मुद्रा भंडार अत्यंत निम्न स्तर पर पहुँच गया था, जिससे भारत को व्यापक संरचनात्मक सुधार अपनाने पड़े।
  • इन सुधारों को LPG मॉडल (उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण) के रूप में जाना जाता है। 
  • उदारीकरण के तहत लाइसेंस–परमिट प्रणाली को समाप्त किया गया, निजीकरण द्वारा निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाई गई और वैश्वीकरण के माध्यम से विदेशी निवेश व अंतरराष्ट्रीय व्यापार को प्रोत्साहित किया गया।

परिणाम:

  • इन सुधारों से भारत की आर्थिक विकास दर में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।
  • सेवाक्षेत्र का तीव्र विस्तार हुआ और भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ गहराई से एकीकृत हुआ।

नई चुनौतियाँ:

  • हालाँकि, इस चरण में आय और क्षेत्रीय असमानता बढ़ी तथा अनौपचारिक क्षेत्र का विस्तार हुआ, जिससे रोजगार की गुणवत्ता एक गंभीर चिंता का विषय बनी।

4. 2015 के बाद: संस्थागत सुधार और दीर्घकालिक दृष्टि

  • हाल के वर्षों में भारत की आर्थिक नीति का फोकस अल्पकालिक नियंत्रण से हटकर संस्थागत सुधारों और दीर्घकालिक क्षमता निर्माण पर केंद्रित हुआ है।
  • नीति आयोग की स्थापना के साथ पंचवर्षीय योजनाओं का अंत हुआ और सहकारी संघवाद को बढ़ावा मिला।
  • GST ने एकीकृत राष्ट्रीय बाजार का निर्माण किया, जबकि IBC (दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता) ने वित्तीय अनुशासन और ऋण समाधान की प्रक्रिया को मजबूत किया। 
  • DBT और JAM ट्रिनिटी ने कल्याणकारी योजनाओं को अधिक लक्षित और पारदर्शी बनाया। 
  • वहीं PLI योजना के माध्यम से विनिर्माण क्षेत्र को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के योग्य बनाने का प्रयास किया गया।
  • इस चरण में राज्य की भूमिका एक नियंत्रक से बदलकर सक्षमकर्ता (Facilitator) की हो गई है।

II. भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचनात्मक विशेषताएँ

1. प्रति व्यक्ति आय: विकास बनाम वितरण

  • वर्ष 2025 में भारत की अनुमानित प्रति व्यक्ति आय लगभग 2,880 अमेरिकी डॉलर है। 
  • हालाँकि नाममात्र आय में तेज वृद्धि हुई है, लेकिन क्षेत्रीय असमानता और शहरी–ग्रामीण अंतर अब भी बने हुए हैं। 
  • यह स्पष्ट करता है कि केवल आय वृद्धि से मानव विकास सुनिश्चित नहीं होता

2. कृषि संकट और संरचनात्मक जड़ता

  • भारत में कृषि क्षेत्र लगभग 45% श्रमबल को रोजगार देता है, जबकि GDP में इसका योगदान केवल 16–18% है। सीमांत जोतों की अधिकता, मानसून पर निर्भरता और मूल्य अस्थिरता ने कृषि संकट को गहरा किया है।
  • समाधान के रूप में कृषि विविधीकरण, एग्री–प्रोसेसिंग को बढ़ावा और ग्रामीण गैर–कृषि रोजगार सृजन अत्यंत आवश्यक हैं।

3. जनसंख्या: लाभांश या बोझ?

  • भारत की कार्यशील आयु जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है, जो एक संभावित जनसांख्यिकीय लाभांश प्रस्तुत करती है। परंतु कौशल अंतर और महिला श्रम भागीदारी की कम दर इस अवसर को सीमित कर रही है। 
  • अतः शिक्षा, स्वास्थ्य और कौशल विकास में निवेश निर्णायक भूमिका निभाएगा।

4. गरीबी में कमी, असमानता में वृद्धि

  • पिछले दशकों में भारत में चरम गरीबी में उल्लेखनीय कमी आई है, लेकिन इसके साथ ही संपत्ति और आय का संकेन्द्रण भी बढ़ा है। 
  • यह विरोधाभास भारत के विकास पथ में समावेशी और न्यायसंगत विकास की आवश्यकता को स्पष्ट रूप से रेखांकित करता है।

III आर्थिक संवृद्धि बनाम आर्थिक विकास (Economic Growth vs Economic Development – Conceptual Clarity)

अक्सर आर्थिक संवृद्धि और आर्थिक विकास को समानार्थक मान लिया जाता है, किंतु अर्थशास्त्र में ये दोनों भिन्न लेकिन परस्पर संबंधित अवधारणाएँ हैं।  किसी देश की वास्तविक प्रगति को समझने के लिए दोनों के बीच का अंतर स्पष्ट होना आवश्यक है।

आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth)

आर्थिक संवृद्धि से तात्पर्य किसी देश की अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं के वास्तविक उत्पादन में वृद्धि से है, जिसे सामान्यतः वास्तविक GDP या प्रति व्यक्ति आय के माध्यम से मापा जाता है।

प्रमुख विशेषताएँ

 (i) मात्रात्मक अवधारणा

  • आर्थिक संवृद्धि संख्या आधारित (Quantitative) होती है।
  • यह केवल यह बताती है कि अर्थव्यवस्था कितनी बड़ी हुई, न कि समाज कितना बेहतर हुआ।

(ii) GDP / आय केंद्रित

  • मापन के प्रमुख साधन:
    • वास्तविक GDP
    • प्रति व्यक्ति आय
    • विकास दर (%)
  • यह नहीं बताती कि आय का वितरण समान है या नहीं

 (iii) अल्पकालिक संकेतक

  • आर्थिक संवृद्धि को वार्षिक या तिमाही आधार पर मापा जा सकता है।
  • यह चक्रीय उतार-चढ़ाव से प्रभावित होती है।

(iv) सीमाएँ

  • उच्च GDP के बावजूद
    • गरीबी बनी रह सकती है
    • असमानता बढ़ सकती है
    • बेरोजगारी रह सकती है

उदाहरण: तेज़ GDP वृद्धि के बावजूद यदि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार में सुधार न हो, तो वह केवल आर्थिक संवृद्धि है, विकास नहीं।

आर्थिक विकास (Economic Development)

  • आर्थिक विकास एक समग्र, सतत एवं दीर्घकालिक प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत केवल राष्ट्रीय आय या प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि ही नहीं होती, बल्कि समाज की सामाजिक, आर्थिक, संस्थागत एवं मानवीय संरचना में गुणात्मक परिवर्तन भी होता है। 
  • इसका अंतिम उद्देश्य लोगों के जीवन-स्तर और जीवन-गुणवत्ता में निरंतर सुधार सुनिश्चित करना है।

1. गुणात्मक एवं मात्रात्मक अवधारणा

  • आर्थिक विकास एक ऐसी अवधारणा है जिसमें मात्रात्मक वृद्धि (Quantitative Growth) तथा गुणात्मक सुधार (Qualitative Improvement) दोनों सम्मिलित होते हैं।
  • इसमें न केवल राष्ट्रीय आय, प्रति व्यक्ति आय एवं उत्पादन में वृद्धि होती है, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, जीवन-प्रत्याशा, मानव गरिमा एवं सामाजिक सुरक्षा जैसे पहलुओं में भी सुधार होता है।

2. मानव पूंजी पर केंद्रित

  • आर्थिक विकास का केंद्रबिंदु मानव पूंजी का विकास है। 
  • इसके अंतर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य, कौशल विकास एवं पोषण पर निवेश किया जाता है।
  • मानव पूंजी में निवेश से उत्पादकता बढ़ती है, नवाचार को प्रोत्साहन मिलता है तथा अर्थव्यवस्था में दीर्घकालिक और समावेशी वृद्धि संभव होती है

3. समानता एवं सामाजिक न्याय

  • आर्थिक विकास का उद्देश्य केवल “अधिक उत्पादन” या “तेज़ विकास दर” प्राप्त करना नहीं है, बल्कि इसके माध्यम से गरीबी में कमी, आय एवं अवसरों की असमानता में गिरावट, लैंगिक समानता, सामाजिक समावेशन तथा क्षेत्रीय संतुलन स्थापित करना भी है।
  • इस प्रकार आर्थिक विकास समावेशी विकास (Inclusive Development) को बढ़ावा देता है।

4. संस्थागत सुदृढ़ता

  • आर्थिक विकास के लिए मजबूत एवं प्रभावी संस्थानों का होना आवश्यक है। 
  • इसमें सुशासन, कानून का शासन, पारदर्शिता, उत्तरदायित्व, भ्रष्टाचार-नियंत्रण तथा सक्षम राज्य व्यवस्था शामिल हैं।
  • मजबूत संस्थान न केवल आर्थिक गतिविधियों को सुगम बनाते हैं, बल्कि विकास को टिकाऊ, स्थिर और न्यायसंगत भी बनाते हैं।

5. दीर्घकालिक एवं टिकाऊ प्रकृति

  • आर्थिक विकास का स्वरूप दीर्घकालिक और सतत (Sustainable) होता है। 
  • यह पीढ़ियों के बीच न्याय (Inter-generational Equity), पर्यावरणीय संरक्षण, प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग तथा जलवायु संतुलन पर बल देता है, ताकि वर्तमान विकास भविष्य की आवश्यकताओं से समझौता न करे।

अमर्त्य सेन:- “विकास स्वतंत्रताओं का विस्तार है।”

विकसित भारत @2047 : विकास का नया प्रतिमान (Viksit Bharat @2047 – A New Development Paradigm)

भारत की स्वतंत्रता के 100 वर्ष पूरे होने पर विकसित भारत @2047 केवल एक आर्थिक लक्ष्य नहीं, बल्कि आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी और नैतिक रूपांतरण का समग्र दृष्टिकोण है। यह पारंपरिक GDP-केंद्रित सोच से आगे बढ़कर मानव-केंद्रित, समावेशी और सतत विकास मॉडल प्रस्तुत करता है।

विकसित भारत @2047 के प्रमुख लक्ष्य (Targets)

$10 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था का लक्ष्य

भारत का उद्देश्य 2047 तक स्वयं को $10 ट्रिलियन से अधिक की अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित करना है।

इसका तात्पर्य केवल आकार नहीं, बल्कि संरचना से है—

  • उच्च उत्पादकता
  • औद्योगिक गहराई
  • वैश्विक प्रतिस्पर्धा

रणनीतिक आधार

  • विनिर्माण का GDP में हिस्सा बढ़ाना (Make in India + PLI)
  • सेवाओं का उच्च-मूल्य विस्तार (IT, FinTech, HealthTech)
  • घरेलू मांग + निर्यात संतुलन

उच्च मानव विकास सूचकांक (HDI)

विकसित भारत का अर्थ केवल “अमीर भारत” नहीं, बल्कि “स्वस्थ, शिक्षित और सक्षम भारत” है।

HDI के प्रमुख घटक

  • शिक्षा (Learning Outcomes, Skills)
  • स्वास्थ्य (Life Expectancy, Nutrition)
  • जीवन-स्तर (Per Capita Income)

नीतिगत दिशा

  • नई शिक्षा नीति (NEP 2020)
  • आयुष्मान भारत
  • पोषण अभियान
  • स्किल इंडिया

वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं (GVCs) में नेतृत्व

विकसित भारत का लक्ष्य सिर्फ निर्यातक नहीं, बल्कि मूल्य सृजक (Value Creator) बनना है।

मुख्य क्षेत्र

  • सेमीकंडक्टर
  • इलेक्ट्रॉनिक्स
  • फार्मा
  • रक्षा
  • ग्रीन टेक्नोलॉजी

रणनीतियाँ

  • PLI योजना
  • लॉजिस्टिक्स सुधार
  • Ease of Doing Business
  • Free Trade Agreements (FTAs)
  • भारत का उद्देश्य है Global Factory नहीं, Global Hub बनना।

विकसित भारत @2047 के मुख्य स्तंभ (Core Pillars)

 उत्पादकता आधारित वृद्धि (Productivity-Led Growth) क्यों आवश्यक ?

  • केवल श्रम-आधारित वृद्धि अब पर्याप्त नहीं
  • जनसंख्या लाभांश को उत्पादक बनाना अनिवार्य

उत्पादकता बढ़ाने के साधन

  • तकनीकी उन्नयन
  • कौशल विकास
  • MSMEs का सशक्तिकरण
  • कृषि में तकनीक (Agri-Tech)
  • Shift: Low productivity → High productivity economy

डिजिटल एवं हरित अर्थव्यवस्था (Digital & Green Economy)

(A) डिजिटल अर्थव्यवस्था

भारत का Digital Public Infrastructure (DPI) विश्व-स्तरीय बन चुका है।

मुख्य घटक

  • आधार
  • UPI
  • DigiLocker
  • ONDC

लाभ

  • वित्तीय समावेशन
  • पारदर्शिता
  • लागत में कमी
  • नवाचार
  • डिजिटल भारत = विकास का Multiplier

(B) हरित अर्थव्यवस्था

विकसित भारत की परिकल्पना पर्यावरणीय स्थिरता के बिना अधूरी है।

प्रमुख लक्ष्य

  • Net Zero @2070
  • नवीकरणीय ऊर्जा
  • ग्रीन हाइड्रोजन
  • सर्कुलर इकॉनमी

रणनीति

  • जलवायु कार्रवाई + रोजगार सृजन
  • Green Growth ≠ Growth Sacrifice
  • विकास + पर्यावरण = Sustainable Prosperity

सामाजिक न्याय + आर्थिक दक्षता (Social Justice with Economic Efficiency)

यह विकसित भारत का सबसे विशिष्ट और भारतीय प्रतिमान है।

सामाजिक न्याय

  • गरीबी उन्मूलन
  • क्षेत्रीय संतुलन
  • महिला सशक्तिकरण
  • वंचित वर्गों का समावेशन

आर्थिक दक्षता

  • बाजार-आधारित समाधान
  • प्रतिस्पर्धा
  • नवाचार
  • न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन

उदाहरण

  • DBT → लीकेज कम
  • GST → दक्ष कर प्रणाली
  • IBC → पूंजी का बेहतर आवंटन
  • उद्देश्य: Equity without inefficiency

निष्कर्ष 

भारतीय अर्थव्यवस्था की यात्रा यह दर्शाती है कि केवल आर्थिक संवृद्धि पर्याप्त नहीं, जब तक वह समानता, क्षमता और स्थायित्व से न जुड़ी हो।
विकसित भारत @2047 तभी संभव है जब भारत

  • कृषि से उद्योग व सेवाओं की ओर संरचनात्मक परिवर्तन,
  • मानव पूंजी में निवेश,
  • और समावेशी संस्थागत ढांचे को प्राथमिकता दे।
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