(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: संघ एवं राज्यों के कार्य तथा उत्तरदायित्व, कार्यपालिका और न्यायपालिका की संरचना, संगठन व कार्य, शासन व्यवस्था, पारदर्शिता तथा जवाबदेही के महत्त्वपूर्ण पक्ष) |
संदर्भ
भारत में नई आपराधिक कानून प्रणाली के तहत भारतीय न्याय संहिता (BNS) ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की जगह ली है, जिसमें धारा 152 में देशद्रोह जैसे प्रावधानों को नए रूप में प्रस्तुत किया गया है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने इस धारा की संवैधानिक वैधता, विशेषकर इसके दुरुपयोग की संभावना को लेकर सवाल उठाया है।
भारतीय न्याय संहिता की धारा 152
- क्या है : BNS की धारा 152 उन कृत्यों को दंडित करती है जो जानबूझकर या उद्देश्यपूर्ण रूप से देश की संप्रभुता, एकता एवं अखंडता को खतरे में डालते हैं।
- प्रावधान : इसमें बोले या लिखे शब्दों, संकेतों, दृश्य, इलेक्ट्रॉनिक संचार, वित्तीय साधनों या अन्य माध्यमों से अलगाववाद, सशस्त्र विद्रोह, विध्वंसक गतिविधियों को उकसाना या अलगाववादी भावनाओं को प्रोत्साहित करना शामिल है।
- सजा : आजीवन कारावास या सात वर्ष तक की कैद और जुर्माना।
- स्पष्टीकरण : सरकार की नीतियों या कार्रवाइयों की वैध तरीके से आलोचना को इस धारा के दायरे से बाहर रखा गया है, जब तक कि यह उकसावे का कारण न बने।
दुरूपयोग की संभावना
- धारा 152 की भाषागत अस्पष्टता (Vagueness) इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन का हथियार बना सकती है, विशेषकर पत्रकारों के खिलाफ, जैसा कि आईटी एक्ट की धारा 66A के मामले में हुआ था।
- राज्य द्वारा इसका दुरुपयोग असहमति को कुचलने के लिए हो सकता है, जहाँ बिना हिंसा उकसाए भी FIR दर्ज की जा सकती है।
- पत्रकारों के मामले में, लिखित या प्रसारित सामग्री के आधार पर गिरफ्तारी की धमकी से ‘चिलिंग इफेक्ट’ उत्पन्न होता है, जो स्वतंत्र पत्रकारिता को प्रभावित करता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अस्पष्टता से दुरुपयोग की संभावना बढ़ाती है किंतु केवल संभावना से कानून को असंवैधानिक घोषित नहीं किया जा सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय का हालिया निर्णय
- 12 अगस्त, 2025 को सर्वोच्च न्यायालय ने पूछा कि क्या धारा 152 के दुरुपयोग की ‘संभावना’ इसे असंवैधानिक बनाने का आधार हो सकती है।
- न्यायालय ने ‘द वायर’ के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन को असम पुलिस की FIR के तहत किसी जबरदस्ती कार्रवाई से संरक्षण दिया, जहाँ धारा 152 के तहत मामला दर्ज था।
- न्यायालय ने कहा कि पत्रकारों के मामले में हिरासत में पूछताछ जरूरी नहीं होती है क्योंकि यह लिखित सामग्री से जुड़े होते हैं। साथ ही, केंद्र एवं असम सरकार को नोटिस भी जारी किया।
- न्यायालय ने केदार नाथ सिंह मामले का हवाला दिया, जहाँ देशद्रोह केवल हिंसा उकसाने पर लागू होता है और कहा कि मामलों को केस-बाय-केस (मामला-दर-मामला) देखा जाएगा।
संतुलन की आवश्यकता
- न्यायालय ने पत्रकारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19) और राज्य के जांच करने तथा सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के अधिकार के बीच संतुलन बनाने पर जोर दिया।
- राजनीतिक असहमति को संप्रभुता के लिए खतरा नहीं माना जा सकता है; केवल हिंसा उकसाने वाले कृत्यों पर धारा लागू होनी चाहिए।
- विधायिका को ‘संप्रभुता’ जैसे शब्दों को बहुत स्पष्ट रूप से परिभाषित करने से बचना चाहिए क्योंकि इससे अधिक दुरुपयोग हो सकता है।
- केस-बाय-केस मूल्यांकन से संतुलन स्थापित किया जा सकता है, जहाँ हिरासत की जरूरत की जाँच कठोरता से की जाए।
संबंधित चिंताएँ
- धारा की अस्पष्टता से असहमति को दबाने का खतरा है जो संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन कर सकती है।
- पत्रकारों को अलग वर्ग नहीं माना जा सकता है किंतु उनके मामलों में जांच का दुरुपयोग आम है, जिससे स्वतंत्र मीडिया प्रभावित होता है।
- कानून को असंवैधानिक घोषित करने के लिए केवल दुरुपयोग की संभावना पर्याप्त नहीं है; ठोस सबूत चाहिए।
- IPC की धारा 124A की तरह, BNS की धारा 152 की वैधता पर संविधान पीठ का फैसला लंबित है, जो अनिश्चितता बढ़ाता है।
आगे की राह
- सर्वोच्च न्यायालय को धारा 152 की वैधता पर अंतिम फैसला देना चाहिए, जैसे कि दिशानिर्देश जारी करके दुरुपयोग रोकना।
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रभावित किए बिना विधायिका द्वारा कानून को अधिक स्पष्ट बनाने पर विचार करना चाहिए।
- पुलिस और जांच एजेंसियों को प्रशिक्षित करना चाहिए कि केवल हिंसा उकसाने वाले मामलों में उक्त धारा लागू की जाए।
- पत्रकारों के लिए विशेष सुरक्षा उपाय, जैसे- अग्रिम जमानत की आसान पहुँच और दुरुपयोग पर सख्त कार्रवाई।
आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 438
- इसे भारतीय न्याय सुरक्षा संहिता (BNSS) में धारा 482 के रूप में शामिल किया गया है।
- यह धारा व्यक्ति को गिरफ्तारी की आशंका होने पर अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) की अनुमति देती है, यदि अपराध गैर-जमानती हो।
- आवेदक उच्च न्यायालय या सेशन कोर्ट (सत्र न्यायालय) में आवेदन कर सकता है, जहाँ न्यायालय अभियोग की प्रकृति, आवेदक की पृष्ठभूमि, भागने की संभावना और अपमानित करने के उद्देश्य को ध्यान में रखता है।
- न्यायालय अंतरिम आदेश जारी कर सकता है और यदि जमानत दी जाती है, तो गिरफ्तारी पर व्यक्ति को जमानत पर रिहा किया जाएगा।
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