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हिमालय क्षेत्र में ब्लैक कार्बन का बढ़ता संकट

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नप्रत्र- 3: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)

संदर्भ

हिमालय को ‘एशिया का जल टावर ‘ कहा जाता है जोकि एशिया की कई प्रमुख नदियों का उद्गम स्थल है। क्लाइमेट ट्रेंड्स द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, ब्लैक कार्बन उत्सर्जन स्तर में विगत दो दशकों में निरंतर वृद्धि हो रही है। यह प्रवृत्ति हिम एवं ग्लेशियरों के तापमान को बढ़ा रही है, जिससे असमय बाढ़, जल स्रोतों में स्थिरता और जैव विविधता को गंभीर खतरा उत्पन्न हो रहा है। इस अध्ययन में वर्ष 2000 से 2023 के बीच ब्लैक कार्बन एवं बर्फ के तापमान में परिवर्तन के उपग्रह-आधारित माप का विश्लेषण किया गया।

हालिया अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष 

  • बर्फ की सतह के तापमान में वृद्धि : वर्ष 2000-2009 के दौरान हिमालय की बर्फ की सतह का औसत तापमान -11.27°C था, जो 2020-2023 में 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ -7.13°C हो गया।  
    • पूर्वी हिमालय में बर्फ की सतह सबसे गर्म रही। इसके बाद मध्य व पश्चिमी हिमालय रहा। वर्ष 2010-2019 के दशक में पूर्वी हिमालय में तापमान -5.69°C तक पहुंच गया।
  • ब्लैक कार्बन एवं तापमान का संबंध : ब्लैक कार्बन एवं बर्फ की सतह के तापमान के बीच घनिष्ठ धनात्मक संबंध पाया गया। जहाँ ब्लैक कार्बन की सघनता अधिक थी, वहाँ बर्फ की मोटाई एवं एल्बिडो में सर्वाधिक कमी देखी गई।
    • एल्बिडो किसी सतह की वह क्षमता होती है जिसके माध्यम से वह प्राप्त कुल सौर विकिरण का कितना भाग परावर्तित (Reflect) करती है। इसे 0 से 1 के बीच के अनुपात या प्रतिशत में व्यक्त किया जाता है।
  • बर्फ की मोटाई में परिवर्तन : वर्ष 2000-2009 में औसत बर्फ की मोटाई 0.059 मीटर थी, जो 2020-2023 में बढ़कर 0.117 मीटर हो गई। यह वृद्धि बढ़े हुए हिमपात, मौसमी वर्षा परिवर्तन या वायु द्वारा बर्फ के पुनर्वितरण के कारण हो सकती है।
  • क्षेत्रीय प्रभाव : पूर्वी एवं मध्य हिमालय, जो ब्लैक कार्बन स्रोतों (जैसे- भारत-गंगा मैदान) के निकट हैं, में बर्फ की मोटाई कम रही। वहीं, पश्चिमी हिमालय में अधिक ऊँचाई और पश्चिमी विक्षोभों के कारण बर्फ की मोटाई अधिक थी।

क्या है ब्लैक कार्बन

  • ब्लैक कार्बन अत्यंत सूक्ष्म कार्बन कण होते हैं जो अधूरे दहन से उत्पन्न होते हैं। ये अल्पकालिक जलवायु प्रदूषक (Short-lived Climate Pollutant) है जो वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में कम समय तक रहता है किंतु उच्च वैश्विक तापन क्षमता (High Global Warming Potential) वाले प्रदूषक हैं।
  • जब यह बर्फ पर जमता है, तो यह बर्फ की एल्बिडो को कम करता है, जिससे बर्फ अधिक ऊष्मा अवशोषित करती है और तेजी से पिघलती है। वैज्ञानिकों द्वारा इसे ‘हीट लैंप इफेक्ट’ कहा जाता है। 

ब्लैक कार्बन के स्रोत 

  • बायोमास दहन : ग्रामीण क्षेत्रों में लकड़ी, गोबर एवं अन्य बायोमास ईंधनों का उपयोग खाना पकाने व हीटिंग के लिए किया जाता है जोकि भारत में ब्लैक कार्बन उत्सर्जन का लगभग 42% है।
    • इसके अलावा पंजाब, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में फसल अवशेष के रूप में पराली जलाना भी इसका कारण है। 
  • जीवाश्म ईंधन का दहन : डीजल एवं पेट्रोल चालित वाहनों, विशेष रूप से डीजल इंजनों, से निकलने वाला धुआँ शहरी एवं औद्योगिक क्षेत्रों में ब्लैक कार्बन का प्रमुख स्रोत है।
    • इसके अलावा कोयला, तेल एवं अन्य जीवाश्म ईंधनों का उपयोग बिजली संयंत्रों, कारखानों व अन्य औद्योगिक प्रक्रियाओं में होता है।
  • कचरा जलाना : शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में कचरे का खुला दहन, विशेष रूप से भारत-गंगा मैदान (Indo-Gangetic Plain) में, ब्लैक कार्बन उत्सर्जन का हॉटस्पॉट है।
  • कोयला आधारित बिजली संयंत्र : कोयले के दहन से ब्लैक कार्बन एवं अन्य कण उत्सर्जित होते हैं। कुछ मात्रा में ब्लैक कार्बन निर्माण गतिविधियों एवं सड़कों पर धूल के उत्सर्जन से भी उत्पन्न होता है, विशेष रूप से भारत-गंगा मैदान में।

भारत में ब्लैक कार्बन हॉटस्पॉट 

  • भारत-गंगा मैदान (Indo-Gangetic Plain) : यह क्षेत्र ब्लैक कार्बन उत्सर्जन का एक प्रमुख केंद्र है क्योंकि यहाँ घनी आबादी, औद्योगिक गतिविधियां एवं बायोमास दहन की प्रथाएँ प्रचलित हैं। यह हिमालयी क्षेत्रों में ब्लैक कार्बन के संचयन का प्रमुख स्रोत है।
  • मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र : इन राज्यों में वन एवं कृषि जनित आग ब्लैक कार्बन उत्सर्जन का महत्वपूर्ण कारक है।

हिमालयी ग्लेशियरों पर ब्लैक कार्बन का प्रभाव

  • ग्लेशियर पिघलने की दर : ब्लैक कार्बन बर्फ की सतह को काला करता है जिससे एल्बीडो कम हो जाता है और बर्फ तेजी से पिघलती है। अध्ययन के अनुसार, 2000-2023 के बीच हिमालय के ग्लेशियर 5-21% तक सिकुड़ गए हैं।
  • जल संसाधनों पर खतरा : हिमालय से निकलने वाली नदियाँ दक्षिण एशिया की जीवनरेखा हैं। ग्लेशियरों के पिघलने से अल्पकाल में बाढ़ एवं दीर्घकाल में पानी की कमी हो सकती है जो कृषि, पेयजल व आजीविका को प्रभावित करेगी।
    • यह भारत, नेपाल, भूटान एवं बांग्लादेश में लगभग दो अरब लोगों की जल सुरक्षा को प्रभावित करता है।
  • प्राकृतिक आपदाओं का जोखिम : बढ़ता तापमान एवं ग्लेशियर पिघलन हिमस्खलन व ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF) जैसे जोखिमों को बढ़ाता है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2023 में सिक्किम के साउथ ल्होनक ग्लेशियर में ऐसे घटना देखी गई थी। 
  • पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव : ग्लेशियरों के पिघलने से नदियों में भारी धातुओं का मिश्रण हो रहा है जो जल गुणवत्ता एवं जैव-विविधता को प्रभावित करता है।
  • आर्थिक प्रभाव : जल संसाधनों की कमी और प्राकृतिक आपदाओं से भारत की अर्थव्यवस्था (विशेष रूप से कृषि व ग्रामीण क्षेत्रों में) पर भारी प्रभाव पड़ सकता है।
  • राष्ट्रीय सुरक्षा : हिमालयी क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव सीमावर्ती क्षेत्रों में भू-राजनीतिक तनाव को बढ़ा सकते हैं। 

समाधान एवं नीतिगत सुझाव

  • ब्लैक कार्बन उत्सर्जन में कमी : ब्लैक कार्बन एक अल्पकालिक प्रदूषक है, इसलिए इसका उत्सर्जन कम करना त्वरित एवं प्रभावी जलवायु शमन रणनीति हो सकती है।
    • बायोमास दहन को कम करने के लिए स्वच्छ रसोई ईंधन (जैसे- LPG, सौर ऊर्जा) को बढ़ावा देना।
    • डीजल वाहनों पर कड़े उत्सर्जन मानक लागू करना और इलेक्ट्रिक वाहनों को प्रोत्साहित करना।
  • नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा : कोयला एवं तेल के स्थान पर सौर व पवन ऊर्जा का उपयोग बढ़ाकर जीवाश्म ईंधन से होने वाले ब्लैक कार्बन को कम किया जा सकता है।
  • वैज्ञानिक अनुसंधान एवं निगरानी : उपग्रह आधारित निगरानी व मशीन लर्निंग का उपयोग करके ब्लैक कार्बन के प्रभावों का सटीक आकलन करना।
    • हिमालयी ग्लेशियरों पर दीर्घकालिक अध्ययन व डाटा संग्रह को बढ़ावा देना।
  • क्षेत्रीय सहयोग : भारत, नेपाल, भूटान एवं बांग्लादेश जैसे देशों के बीच हिमालयी जल संसाधनों के प्रबंधन के लिए क्षेत्रीय सहयोग को मजबूत करना।
  • जलवायु अनुकूलन : बाढ़ एवं सूखे से प्रभावित क्षेत्रों को आर्थिक सहायता प्रदान करना और जल प्रबंधन तथा फसल विविधीकरण के माध्यम से छोटे किसानों की जलवायु प्रतिरोधकता बढ़ाना।
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