(प्रारंभिक परीक्षा : पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी) |
संदर्भ
राष्ट्रीय मत्स्य आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो के प्रायद्वीपीय जलीय आनुवंशिक संसाधन केंद्र, कोच्चि के शोधकर्ताओं ने पश्चिमी घाट से मीठे पानी की मछलियों की दो नई प्रजातियों की खोज की है। जिससे लेबियो निग्रेसेंस(Labeo nigrescens) से संबंधित 155 वर्षों पुरानी टैक्सोनॉमिक (वर्गीकरणीय) संबंधी पहचान का पता चला है।
खोज के बारे में
- इस अनुसंधान में वैज्ञानिकों ने केरल और कर्नाटक की नदियों से नए नमूने एकत्र कर तुलना के लिए बाहरी और आंतरिक शारीरिक लक्षणों का उपयोग किया।
- यह विश्लेषण विशेष रूप से लेबियो निग्रेसेंस की पहचान स्पष्ट करने के लिए किया गया था, जो 1870 में पहली बार दर्ज की गई थी लेकिन लंबे समय से भ्रमित कर रही थी।
खोजी गई नई प्रजातियों के बारे में
- खोजी गई दोनों मछलियाँ ताजे जल की प्रजातियां हैं। साथ ही, ये अपने-अपने नदी तंत्रों की स्थानिक (एंडेमिक) भी हैं।
लैबियो उरु (Labeo uru)
- नामकरण : इसका नाम ‘uru’ रखा गया है जो पारंपरिक मलयाली लकड़ी की नाव (उरु) से प्रेरित है।
- स्थान: चंद्रगिरी नदी (केरल)
- यह नदी कर्नाटक के कोडगु जिले (Coorg) की पश्चिमी घाट की पहाड़ियों से निकलकर केरल के कासरगोड ज़िले में प्रवेश करती है।
- लगभग 105 किमी. की लंबाई तय करने के बाद यह अरब सागर में गिरती है।
- विशेषता: इसके पंख नाव की पाल की भांति लंबे होते हैं।
- इसके शरीर की बनावट और स्केल पैटर्न इसे अन्य प्रजातियों से अलग बनाते हैं।
लेबियो चेकिडा (Labeo chekida)
- यह एक छोटी, गहरे रंग की मछली जिसे स्थानीय रूप से 'काका चेकिडा' के नाम से जाना जाता है,जिसका तात्पर्य इसकी गहरे रंग की त्वचा से है।
- स्थान: चालाकुडी नदी(केरल)
- यह नदी अनामलाई पहाड़ियों के शोलायार वन क्षेत्र, तमिलनाडु-केरल सीमा के पास स्थित पश्चिमी घाट से निकलती है।
- इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ परंबीकुलम, शोलायार, करापारा और कुंजीमारा हैं।
- इस नदी पर बने अथिराप्पिल्ली जलप्रपात को "दक्षिण भारत का नियाग्रा" भी कहा जाता है।
- प्राकृतिक अधिवास: यह एक छोटी प्रजाति है जो नदी के विशिष्ट पारिस्थितिकी तंत्र में पाई जाती है।
खोज का महत्त्व
- इस खोज से यह स्पष्ट होता है कि भारत की नदियाँ केवल जलस्रोत नहीं हैं, बल्कि अज्ञात जैवविविधता का भंडार भी हैं।
- जलविद्युत परियोजनाओं, बांधों और प्रदूषणके कारण इन नाजुक पारिस्थितिकी तंत्रों पर खतरा मंडरा रहा है।
- शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि यदि वर्तमान गति से विनाश होता रहा, तो कई प्रजातियाँ वैज्ञानिक रूप से दर्ज होने से पहले ही विलुप्त हो जाएंगी।
पश्चिमी घाट का पारिस्थितिक महत्त्व
- परिचय : यह पश्चिमी तट पर स्थित पर्वतीय क्षेत्र है, जो लगभग 1,600 किमी (1,000 मील) लंबा है। यह क्षेत्र पांच राज्यों में गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटका, केरल, और तमिलनाडु में फैला हुआ है।पश्चिमी घाट को वर्ष 2012 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया है।
- जैव विविधता का हॉटस्पॉट: यह क्षेत्र दुनिया के 36 जैव विविधता हॉटस्पॉट में शामिल है। यहाँ 7000 से अधिक वनस्पति प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से लगभग 1500 स्थानिक (endemic) हैं।
- जलवायु नियंत्रण और मानसून : पश्चिमी घाट मानसूनी हवाओं को रोककर वर्षा में सहायता करता है, जिससे पश्चिमी भारत में नमी बनी रहती है। यह स्थानीय और क्षेत्रीय जलवायु संतुलन बनाए रखने में सहायक है।
- जल स्रोतों का संरक्षण : गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, पेरियार जैसी प्रमुख नदियों का उद्गम स्थल। ये नदियाँ पेयजल, सिंचाई और जल विद्युत उत्पादन का प्रमुख स्रोत हैं।
- मृदा संरक्षण और पारिस्थितिकी संतुलन: पर्वतीय वन क्षेत्र मृदा अपरदन (soil erosion) को रोकते हैं।
- कार्बन सिंक (Carbon Sink): घने वन क्षेत्र वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण कर ग्लोबल वॉर्मिंग को घटाने में योगदान करते हैं।