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अनधिकृत अतिक्रमण : राज्य बनाम वैयक्तिक अधिकार

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 2 : शासन व्यवस्था, संविधान, शासन प्रणाली, सामाजिक न्याय)

संदर्भ

जहांगीरपुरी में दिल्ली नगर निगम की कार्रवाई के हालिया मामले में सर्वोच्च न्यायालय की  संवैधानिक पीठ का इससे मिलता-जुलता ‘ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे नगर निगम’ वाद (1985) विशेष महत्त्व रखता है। यह निर्णय व्यक्ति की आजीविका और जीवन के अधिकार को राज्य के अधिकारों से ऊपर रखता है।

ओल्गा टेलिस निर्णय

  • ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे नगर निगम वाद (1985) में सर्वोच्च न्यायालय इस तथ्य से सहमत था कि फुटपाथ पर रहने वाले लोग सार्वजनिक स्थानों पर अनधिकृत रूप से कब्जा करते हैं। हालाँकि, न्यायालय ने कहा था कि उन्हें सुनवाई का मौका दिया जाना चाहिये और उन्हें निष्कासित करने के लिये बल प्रयोग करने से पहले उन्हें जगह छोड़ने का एक उचित अवसर दिया जाना चाहिये।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने तर्क दिया कि फुटपाथ पर रहने वालों को भी गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार है। वे फुटपाथ पर रहकर काम करके अल्प आजीविका प्राप्त करते हैं। जीवन के अधिकार में आजीविका का अधिकार भी शामिल है। अतः उन्हें समझाने का मौका दिये बिना अनुचित बल का उपयोग करके बेदखल करना असंवैधानिक है।
  • एक कल्याणकारी राज्य एवं उसके अधिकारियों को प्राप्त बेदखली की शक्तियों का उपयोग फुटपाथ पर रहने वाले लोगों को उनकी आजीविका से वंचित करने के साधन के रूप में नहीं किया जाना चाहिये।
  • हालाँकि, उक्त मामले में अतिक्रमणकर्ताओं ने स्वीकार किया था कि उनके पास ‘फुटपाथ या सार्वजनिक सड़कों पर झोपड़ियाँ लगाने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है’।

सर्वोच्च न्यायालय के सम्मुख मुख्य प्रश्न

  • अनुच्छेद 21 में वर्णित है कि ‘किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता।’ उक्त प्रकरण से जुड़ा मुख्य प्रश्न भी यही था कि क्या फुटपाथ पर रहने वालों को बेदखल करना उसे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत आजीविका के अधिकार से वंचित करना होगा अथवा नहीं?
  • संवैधानिक पीठ को यह भी सुनिश्चित करना था कि बॉम्बे नगर निगम अधिनियम, 1888 के वे प्रावधान जो बिना किसी पूर्व सूचना के अतिक्रमण हटाने की अनुमति देते हैं, क्या मनमाने और अनुचित हैं?
  • सर्वोच्च न्यायालय को यह भी निर्धारित करना था कि फुटपाथ पर रहने वालों को अतिक्रमणकर्ताओं के रूप में चिह्नित करना क्या संवैधानिक रूप से अनुचित है?

राज्य सरकार की दलील

राज्य सरकार और निगम ने विरोध किया कि फुटपाथ पर रहने वालों को यह तर्क देने से रोका (Estopped) जाना चाहिये कि ‘फुटपाथों पर उनके द्वारा निर्मित झोंपड़ियों को उनके आजीविका के अधिकार के कारण नहीं तोड़ा जा सकता।’ इसलिये उनकी याचिका को एस्टॉपेल  किया जाना चाहिये अर्थात् इस पर रोक लगाई जानी चाहिये। चूँकि फुटपाथ या सार्वजनिक सड़कों जिन पर जनता का ‘पथ का अधिकार’ (Right to Way) है, इसलिये उन पर अतिक्रमण करने और झोपड़ियों को लगाने के किसी भी मौलिक अधिकार का दावा नहीं किया जा सकता है।

एस्टॉपेल/Estoppel  एक न्यायिक उपकरण है, जिसके द्वारा कोई न्यायालय किसी व्यक्ति को दावा करने से प्रतिबंधित कर सकता है या रोक सकता है। एस्टॉपेल किसी विशेष दावे को दायर करने से रोक सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय

  • खंडपीठ ने रोक लगाने के सरकार के तर्क को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि “संविधान के खिलाफ कोई रोक (एस्टॉपेल) नहीं लगाई जा सकती।”
  • न्यायालय ने माना कि फुटपाथ पर रहने वालों के जीवन का अधिकार यहाँ पर खतरे में है। आजीविका का अधिकार जीवन के अधिकार का एक ‘अभिन्न घटक’ है, अतः वे अपने अधिकार का दावा करने के लिये न्यायालय पहुँच सकते हैं।
  • संवैधानिक पीठ के अनुसार, "यदि आजीविका के अधिकार को जीने के संवैधानिक अधिकार के हिस्से के रूप में नहीं माना जाता है, तो किसी व्यक्ति को उसके जीवन के अधिकार से वंचित करने का सबसे आसान तरीका यह होगा कि उसे उसकी आजीविका के साधन से वंचित कर दिया जाए। कोई भी व्यक्ति जो कानून द्वारा स्थापित न्यायसंगत और निष्पक्ष प्रक्रिया से इतर आजीविका के अपने अधिकार से वंचित है तो वह इसे जीवन के अधिकार के उल्लंघन के रूप में चुनौती दे सकता है”।
  • दूसरे सवाल पर कि क्या वैधानिक अधिकारियों को बिना किसी पूर्व सूचना के अतिक्रमण हटाने की अनुमति देने वाले कानून के प्रावधान मनमाने थे, न्यायालय ने माना कि ऐसी शक्तियाँ “अपवाद” के रूप में संचालित करने के लिये डिज़ाइन की गई हैं, न कि “सामान्य नियम” के तौर पर।
  • न्यायालय के अनुसार बेदखली की प्रक्रिया प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों के पक्ष में होनी चाहिये जो न्याय के प्राकृतिक सिद्धांतों का पालन करते हैं, जैसे- दूसरे पक्ष को सुनवाई का अवसर देना।
  • न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि सुनवाई का अधिकार प्रभावित व्यक्तियों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग लेने का अवसर देता है तथा उन्हें स्वयं को को गरिमा के साथ व्यक्त करने का अवसर भी प्रदान करता है।
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