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जल, मिट्टी और चेतना: भारतीय दर्शन में पर्यावरणीय नैतिकता

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र-4: भारत तथा विश्व के नैतिक विचारकों तथा दार्शनिकों के योगदान।)

संदर्भ

हाल ही में एक चर्चा में यह विचार पुनः उभरा कि कैसे आयुर्वेद और भारतीय दर्शन की प्राचीन परंपराएँ पर्यावरणीय नैतिकता को जल, मिट्टी और चेतना की त्रयी में समाहित करती हैं। यह संदेश आज के समय में और भी प्रासंगिक हो गया है, जब भारत जलवायु-संवेदनशील विकास और सतत कृषि के लक्ष्यों की ओर अग्रसर है।

भारतीय दर्शन में पर्यावरणीय नैतिकता

भारतीय दर्शन में प्रकृति को कभी बाहरी संसाधन नहीं माना गया, बल्कि उसे मानव चेतना का विस्तार माना गया है। यह एक ऐसी नैतिक प्रणाली है जिसमें पृथ्वी की रक्षा केवल एक दायित्व नहीं, बल्कि धर्म के रूप में देखा जाता है।

मुख्य विशेषताएँ

  • समग्र दृष्टिकोण : पंचमहाभूत- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश मानव शरीर और पर्यावरण के बीच संतुलन का प्रतीक हैं।
  • नैतिक संरक्षकता : प्रकृति की रक्षा आत्म-संरक्षण का ही रूप है; जल, मिट्टी या वायु को क्षति पहुँचाना अपने ही अस्तित्व को आहत करना है।
  • अहिंसा और परस्पर निर्भरता : प्रत्येक जीव, तत्त्व और सूक्ष्म जीव सम्मान के योग्य हैं, यही अहिंसा का विस्तार है।
  • आध्यात्मिक पारिस्थितिकी : पर्यावरणीय विनाश केवल भौतिक संकट नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक असंतुलन भी है।
  • आध्यात्मिकता के रूप में स्थायित्व : वर्षा जल संचयन, मौसमी खेती, और पवित्र उपवन जैसे प्राचीन अभ्यास इसी नैतिक सोच से उत्पन्न हुए।

भारतीय दर्शन के विविध दृष्टिकोण

वेद और उपनिषद 

वेदों में ब्रह्मांड को एक पवित्र जीवधारी के रूप में देखा गया है जहाँ देवता, मनुष्य और प्रकृति एक नैतिक सूत्र में बंधे हैं। ऋग्वेद का मंत्र “माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः” (पृथ्वी मेरी माता है, मैं उसका पुत्र हूँ) इस संबंध को प्रतिपादित करता है, जो संरक्षण और सम्मान पर आधारित है।

आयुर्वेद

आयुर्वेद में पर्यावरणीय स्वास्थ्य को मानव स्वास्थ्य की जड़ माना गया है।
जब दोष (वात, पित्त, कफ) असंतुलित होते हैं, तो यह प्रदूषित जल, मिट्टी और वायु का प्रतिबिंब होता है। भू-माता, जल, और वायु को सजीव तत्त्वों के रूप में माना गया है, जिनकी शुद्धता जीवन के लिए अनिवार्य है।

जैन दर्शन

जैन दर्शन अहिंसा को सभी जीवों, यहाँ तक कि मिट्टी, जल, वायु तक विस्तारित करता है।
अपरिग्रह या “अधिक संपत्ति का त्याग” पर्यावरणीय संयम और सहअस्तित्व का उदाहरण प्रस्तुत करता है।

बौद्ध दर्शन

बौद्ध विचार प्रतित्यसमुत्पाद के सिद्धांत पर आधारित है, सभी प्राणी परस्पर निर्भर हैं।
करुणा को पर्यावरणीय नैतिकता के रूप में देखा जाता है, जहाँ स्थायित्व सजगता का रूप लेता है।

सिख दर्शन

गुरु नानकदेव जी के शब्द “पवन गुरु, पानी पिता, माता धरत महत” प्रकृति को गुरु, पिता और माता के रूप में पूज्य बताते हैं। यह दृष्टिकोण सेवा के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण को ईश्वर भक्ति से जोड़ता है।

पश्चिमी पर्यावरण दर्शन

  1. डीप इकोलॉजी (अर्ने नेस) : हर जीव का अपना अंतर्निहित मूल्य होता है, जो मानव उपयोग से परे है। नॉर्वे की वाइल्डरनेस नीति और रिवाइल्डिंग मूवमेंट इसी विचार से प्रेरित हैं।
  2. उपयोगितावादी पर्यावरणवाद (जॉन स्टुअर्ट मिल) : “सबसे अधिक लोगों के अधिकतम हित” के सिद्धांत पर आधारित यह दृष्टिकोण पर्यावरणीय नीतियों का मूल्यांकन उनके मानव-कल्याण प्रभाव से करता है।
  3. ईकोफेमिनिज़्म (वंदना शिवा) : यह सिद्धांत प्रकृति के शोषण और महिलाओं के उत्पीड़न के बीच समानता स्थापित करता है, और देखभाल आधारित नैतिकता (care-based ethics) को अपनाने की बात करता है।

समस्याएँ

  • आध्यात्मिकता का बाजारीकरण : धर्म और अहिंसा जैसे पवित्र सिद्धांत अब “इको-लेबल” में परिवर्तित हो रहे हैं, जिससे मूल नैतिकता का ह्रास हो रहा है।
  • शहरी अलगाव : आधुनिक जीवनशैली मनुष्य को प्रकृति की लय ऋतु, मिट्टी, आकाश से काट देती है, जिससे पर्यावरणीय चेतना कमजोर होती है।
  • नीति–व्यवहार अंतराल : पर्यावरणीय कानून आँकड़ों तक सीमित हैं; जब तक नैतिक शिक्षा नहीं होगी, तब तक कर्तव्य की भावना नहीं जागेगी।
  • सांस्कृतिक पतन : प्लास्टिक, रासायनिक अपशिष्ट और उपभोगवाद से पवित्र नदियाँ और परंपराएँ प्रदूषित हो रही हैं, जिससे वेदों की शुद्धता का सार खो रहा है।
  • आधुनिकता बनाम प्रकृति का द्वंद्व : भारत के सामने यह चुनौती है कि वह विकास और संयम के बीच संतुलन कैसे बनाए। सच्ची आधुनिकता वही है जो प्रकृति के साथ सामंजस्य रखे, न कि उस पर प्रभुत्व करे।

आगे की राह 

  • शिक्षा में नैतिकता का समावेश : नई शिक्षा नीति (NEP 2020) में वैदिक पारिस्थितिकी, पंचमहाभूत संतुलन, और अहिंसा की शिक्षा देकर बच्चों में पर्यावरणीय चेतना विकसित की जाए।
  • नीति और अध्यात्म का समन्वय : जल जीवन मिशन, नमामि गंगे, और पीएम-प्रणाम जैसी योजनाओं को आयुर्वेदिक संतुलन सिद्धांतों से जोड़ा जाए।
  • सामुदायिक भागीदारी : मंदिरों, पंचायतों और धर्म-आधारित संस्थाओं को नदियों, वनों और पवित्र स्थलों की देखरेख में शामिल किया जाए।
  • प्रौद्योगिकी का सदुपयोग : AI, GIS और सैटेलाइट तकनीक से औषधीय पौधों, पवित्र स्थलों और पारंपरिक जल स्रोतों की रक्षा की जाए।
  • वैश्विक नेतृत्व : भारत को COP-30 और UNESCO जैसे मंचों पर अपने इकोलॉजिकल धर्मा (Ecological Dharma) को एक वैश्विक नैतिक दर्शन के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।

निष्कर्ष

भारतीय दर्शन सिखाता है कि प्रकृति और आत्मा एक ही चेतना के दो रूप हैं। जब यह एकता पुनः स्थापित होती है, तो पर्यावरण संरक्षण आध्यात्मिक उत्कर्ष का माध्यम बन जाता है।
जल, मिट्टी और चेतना के संतुलन के माध्यम से भारत न केवल अपनी सभ्यता की प्राचीन बुद्धि का सम्मान कर सकता है, बल्कि दुनिया के सामने करुणामय स्थायित्व का एक नया आदर्श भी प्रस्तुत कर सकता है।

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