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‘नेट ज़ीरो कार्बन लक्ष्य के समक्ष चुनौतियाँ

(प्रारंभिक परीक्षा:  पर्यावरणीय पारिस्थितिकी, जैव-विविधता और जलवायु परिवर्तन संबंधी सामान्य मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, प्रश्नपत्र 3: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)

संदर्भ

स्वतंत्र चैरिटेबल संगठन ऑक्सफैम ने कहा है कि कई देशों द्वारा घोषित ‘नेट ज़ीरो कार्बन’ लक्ष्य का नकरात्मक प्रभाव हो सकते है। भूमि उपभोग आधारित नेट ज़ीरो के कारण वैश्विक खाद्य कीमतों में 80 प्रतिशत की वृद्धि तथा भूख की समस्या बढ़ सकती है।

रिपोर्ट की अन्य बातें

  • रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि परिवर्तन की चुनौती को केवल अधिक वृक्ष लगाकर ही निपटाया जाता है, तो वर्ष 2050 तक अतिरिक्त वैश्विक कार्बन उत्सर्जन के अवशोषण के लिये लगभग 1.6 बिलियन हेक्टेयर नए वनों की आवश्यकता होगी।
  • इसके अतिरिक्त, वैश्विक उष्मन को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे सीमित करने और जलवायु परिवर्तन से अपरिवर्तनीय क्षति को रोकने के लिये विश्व को सामूहिक रूप से एक ट्रैक पर होना चाहिये।
  • वर्ष 2030 तक उत्सर्जन में वर्ष 2010 के स्तर से 45 प्रतिशत की कटौती करने का लक्ष्य रखना चाहिये, जिसमें सबसे बड़े उत्सर्जकों की भूमिका अधिक होनी चाहिये।
  • वर्तमान में, उत्सर्जन में कटौती संबंधी देशों की योजना से वर्ष 2030 तक केवल एक प्रतिशत की कमी आएगी।
  • गौरतलब है कि यदि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये केवल भूमि-आधारित तरीकों का प्रयोग किया जाता है, तो खाद्य वृद्धि और अधिक बढ़ने की उम्मीद है।
  • रिपोर्ट के अनुसार यदि संपूर्ण ऊर्जा क्षेत्र, जिसका उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है, समान नेट ज़ीरो लक्ष्य निर्धारित करता है, तो उसे लगभग अमेज़न वर्षावन के आकार के बराबर की भूमि की आवश्यकता होगी, जो वैश्विक कृषि भूमि के एक तिहाई के बराबर है।
  • रिपोर्ट इस बात पर जोर देती है कि उत्सर्जन में कमी को उत्सर्जन में कटौती का विकल्प नहीं माना जा सकता है, और इनकी पृथक गणना की जानी चाहिये।

नेट ज़ीरो का अभिप्राय

  • नेट ज़ीरो, जिसे ‘कार्बन-तटस्थता’ के रूप में भी जाना जाता है, का अर्थ यह नहीं है कि कोई देश अपने उत्सर्जन को शून्य स्तर पर लाएगा।
  • सलिये नेट-ज़ीरो एक ऐसी अवस्था है, जिसमें किसी देश के उत्सर्जन की भरपाई वातावरण से ग्रीनहाउस गैसों के अवशोषण और उन्हें हटाने से होती है।
  • यह कार्बन सिंक बनाने का एक तरीका है, जिसके द्वारा कार्बन को अवशोषित किया जा सकता है।
  • कुछ समय पूर्व तक, दक्षिण अमेरिका में अमेज़न वर्षावन, जो दुनिया का सबसे बड़े उष्णकटिबंधीय वन है, कार्बन सिंक था।
  • लेकिन इस वनक्षेत्र के पूर्वी हिस्सों की कटाई के परिणामस्वरूप इसने कार्बन उत्सर्जन को अवशोषित करने की बजाय CO2 का उत्सर्जन करना शुरू कर दिया है।
  • इस तरह, किसी देश के लिये नकारात्मक उत्सर्जन होना भी संभव है, अगर अवशोषण और निष्कासन वास्तविक उत्सर्जन से अधिक हो।
  • भूटान का उत्सर्जन नकारात्मक है, क्योंकि वह जितना उत्सर्जन करता है उससे अधिक अवशोषित करता है।

विभिन्न देशों द्वारा घोषित नेट ज़ीरो कार्बन लक्ष्य

  • वर्ष 2019 में न्यूज़ीलैंड सरकार ने ‘ज़ीरो कार्बन अधिनियम’ पारित किया था, जो उसके पेरिस जलवायु समझौते की प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के प्रयासों अर्थात् वर्ष 2050 या उससे पहले ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन के लिये था।
  • उसी वर्ष, यूनाइटेड किंगडम की संसद ने कानून पारित किया, जिसमें सरकार द्वारा वर्ष 2050 तक 1990 के स्तर के सापेक्ष ग्रीनहाउस गैसों के शुद्ध उत्सर्जन को 100 प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य रखा गया।
  • हाल में, अमेरिकी राष्ट्रपति ने घोषणा की है कि देश वर्ष 2030 तक अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वर्ष  2005 के स्तर से कम से कम 50 प्रतिशत की कटौती करेगा। 
  • इसके अतिरिक्त, जॉन केरी, जो अमेरिका के जलवायु दूत और पेरिस जलवायु समझौते के मुख्य वास्तुकारों में से एक माने जाते हैं, ने वर्ष 2019 में ‘वर्ल्ड वार ज़ीरो’ नामक एक गैर-पक्षपाती संगठन (Bipartisan Organisation) का शुभारंभ किया, जो जलवायु परिवर्तन पर संभावित सहयोगियों को एक साथ लाने और नेट ज़ीरो तक पहुँचने के लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद करेगा।
  • यूरोपीय संघ की भी इसी तरह की योजना है, जिसे ‘फिट फॉर 55’ कहा जाता है। यूरोपीय आयोग ने अपने सभी 27 सदस्य देशों को वर्ष 2030 तक 1990 के स्तर से 55 प्रतिशत उत्सर्जन में कटौती करने के लिये कहा है।
  • विगत वर्ष, चीन ने यह भी घोषणा की कि वह वर्ष 2060 तक नेट ज़ीरो के लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा तथा वह अपने उत्सर्जन को वर्ष 2030 में अपने स्तर से अधिक नहीं होने देगा।

भारत की स्थिति

  • इस लक्ष्य का विरोध करने वालों में भारत अकेला है, क्योंकि इसके सबसे अधिक प्रभावित होने की आशंका है।
  • अगले दो से तीन दशकों में भारत का उत्सर्जन दुनिया में सबसे तेज़ गति से बढ़ने की संभावना है।
  • वनीकरण या पुनर्वनीकरण की कोई भी मात्रा बढ़े हुए उत्सर्जन की भरपाई करने में सक्षम नहीं होगी। साथ ही, कार्बन अवशोषण की अधिकांश प्रौद्योगिकियाँ अभी या तो अविश्वसनीय हैं या बहुत महँगी हैं।

भारत की आपत्ति

  • पेरिस समझौता, 2015 में नेट ज़ीरो लक्ष्य का कोई उल्लेख नहीं है।
  • पेरिस समझौते के लिये प्रत्येक हस्ताक्षरकर्ता को केवल सर्वोत्तम जलवायु कार्रवाई करने की आवश्यकता है।
  • देशों को अपने लिये पाँच या दस वर्ष के जलवायु लक्ष्य निर्धारित करने की ज़रूरत है तथा उन्हें यह प्रदर्शित करना होगा कि उन्होंने उस लक्ष्य को हासिल कर लिया है।
  • भारत बार-बार इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि विकसित देशों ने अपने पिछले वादों और प्रतिबद्धताओं को  पूरा नहीं किया है।
  • किसी भी बड़े देश ने क्योटो प्रोटोकॉल, पेरिस समझौते से पहले की जलवायु व्यवस्था के तहत उन्हें सौंपे गए उत्सर्जन-कटौती लक्ष्यों को हासिल नहीं किया है।
  • किसी भी देश ने वर्ष 2020 के किये गए वादों को पूरा नहीं किया है। साथ ही, विकासशील और गरीब देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने में मदद करने के लिये धन और प्रौद्योगिकी प्रदान करने की उनकी प्रतिबद्धता पर उनका ट्रैक रिकॉर्ड और भी बुरा है।
  • भारत तर्क दे रहा है कि वर्ष 2050 कार्बन-तटस्थता का हाल पुरानी प्रतिबद्धताओं के समान हो सकता है, भले ही कुछ देश अब खुद कानूनीं रूप से बाध्य कर रहे हैं।
  • भारत का कहना है कि विकसित देशों को इसकी बजाय, पहले के अधूरे वादों की भरपाई के लिये अब और अधिक महत्त्वाकांक्षी जलवायु कार्रवाई करनी चाहिये।
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