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सोशल मीडिया मंच पर सामग्री नियमन से जुड़ी प्रक्रियाएँ और चिंताएँ

(प्रारम्भिक परीक्षा :  राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ, लोकनीति)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2 व 3 : प्रभावक समूह तथा शासन प्रणाली में उनकी भूमिका, पारदर्शिता एवं जवाबदेही और संस्थागत तथा अन्य उपाय, सूचना प्रौद्योगिकी, कम्प्यूटर, आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों में मीडिया और सामाजिक नेटवर्किंग साइटों की भूमिका)

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ‘द वॉल स्ट्रीट जर्नल’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार सोशल मीडिया मंच फेसबुक ने भारत में कुछ सत्ताधारी दल से जुड़े ‘हेटस्पीच’ से सम्बंधित नियमों को लागू नहीं किया। इससे पूर्व भी कहा गया था कि सोशल मीडिया पर घृणास्पद भाषणों को हतोत्साहित करने के लिये उठाए गए कदम अपर्याप्त हैं और सरकारें इन मंचों पर सामग्री के नियमन और निर्णयन में दखल दे रही हैं।

मुद्दे की शुरुआत

  • सोशल मीडिया मंचों, विशेषकर फेसबुक पर सामग्री नियमन के मुद्दे को उठाने वाला सर्वप्रथम देश जर्मनी था। वर्ष 2015 में जर्मनी ने सोशल मीडिया पर शरणार्थियों व प्रवासियों पर बढ़ते ज़ीनोफ़ोबिक हमलों पर चर्चा की थी। दूसरे देशों के लोगों के प्रति बुरे व्यवहार या पूर्वाग्रह की स्थिति को ज़ीनोफ़ोबिक (Xenophobic) कहा जाता है।
  • वर्ष 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में फेसबुक ने कम्पनी के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करने के बावजूद कुछ वीडियो को पोस्ट करने की अनुमति दी। साथ ही तर्क दिया कि यह सामग्री चुनावी वार्तालाप का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।
  • मई 2020 में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ विरोध प्रदर्शन के सम्बंध में ट्रम्प द्वारा किये गए एक पोस्ट को हटाने से इनकार के बाद वर्तमान अमेरिकी चुनाव में यह मुद्दा पुनः फलक पर आ गया।
  • फेसबुक ने माना है कि वर्ष 2018 में म्यांमार में उसके मंच पर मानवाधिकारों के हनन को रोकने में वह विफल रहा था।

कुछ कानूनी प्रावधान

  • वर्ष 2015 में ही जर्मनी में पहली बार किसी सोशल मीडिया के मुख्य कार्यकारी के खिलाफ जाँच शुरू की गई। जर्मनी ने वर्ष 2017 में हेट-स्पीच के खिलाफ एक कानून भी पारित किया।
  • ऑस्ट्रेलिया में अब तकनीकी अधिकारियों को जेल हो सकती है, यदि वे अपने प्लेटफॉर्म से हिंसक वीडियो सामग्री को तुरंत नहीं हटाते हैं।
  • फ्रांस ने भी सोशल मीडिया के माध्यम से किये जाने वाले प्रचार की सामग्री के लेखक और प्रचार के लिये दी गई धनराशि के प्रकाशन को आवश्यक कर दिया है।
  • अधिकांश देशों में हेट-स्पीच या सोशल मीडिया पर सामग्री नियमन के लिये कोई विशेष कानून नहीं है। इसका नियमन और सम्बंधित आपराधिक कार्यवाहियाँ वर्तमान आई.टी. एक्ट और अपराध व दंड प्रक्रिया सहिंता के अनुसार की जाती है।

सोशल मीडिया पर सामग्री नियमन की कार्यप्रणाली

  • फेसबुक सहित अन्य सोशल मीडिया मंचों पर कम्पनी के नियमों का उल्लंघन करने वाली अधिकांश सामग्री को एक एल्गोरिद्म द्वारा चिह्नित और फ़िल्टर किया जाता है। उपयोगकर्त्ता व्यक्तिगत रूप से भी आपतिजनक सामग्री के बारे में सूचित कर सकते हैं।
  • फेसबुक की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2019 में कम्पनी ने हेट-स्पीच के लगभग 20 मिलियन पोस्ट को हटाया है। इनमें से लगभग तीन-चौथाई (16 मिलियन) सामग्री को उपयोगकर्त्ताओं द्वारा रिपोर्ट किये जाने से पूर्व एल्गोरिद्म के द्वारा ही चिह्नित कर लिया गया था। शेष 4 मिलियन आपत्तिजनक सामग्री को सामग्री नियामकों या फेसबुक के सामग्री संचालन टीमों के पास भेज दिया गया था। हालाँकि, यह संख्या फेसबुक पर पोस्ट होने वाली और आपत्तिजनक मानी जाने वाली सामग्रियों की तुलना में काफी कम है।
  • यदि यह सामग्री फेसबुक की एक ‘रणनीतिक प्रतिक्रिया’ टीम के कर्मचारियों पास आती है तो वे अपनी विधिक टीमों जैसी अन्य स्थानीय टीमों से सम्पर्क करते हैं। अगर इन सामग्रियों को लेकर कुछ ऐसे विचारणीय और संवेदनशील जोखिम कारक (जैसे कि राजनीतिक जोखिम) हैं, तो प्रायः लोकनीति इन मुद्दों में शामिल होती है। यदि सामग्री को लेकर आंतरिक टीम में कुछ असहमति है तो इसको आगे भेज दिया जाता है।
  • वैश्विक टीम द्वारा किसी मुद्दे पर अंतिम निर्णय लेने के बाद यदि कोई सामग्री एक बार आपत्तिजनक के रूप में अंकित हो जाती है तो वह सामग्री विश्व स्तर पर अवरुद्ध कर दी जाती है। दूसरी सोशल मीडिया कम्पनियाँ भी इसी तरह कार्य करती हैं।
  • गूगल के अनुसार सामग्री नियमन और लोकनीति अलग रहती है परंतु लोकनीति इकाइयों को इनपुट और निर्णय लेने में मदद करने की अनुमति होती है। विशेषकर यदि ऐसे निर्णय महत्त्वपूर्ण राजनीतिक या सरकारी प्रतिक्रिया से सम्बंधित हों।

भारत की स्थिति

  • द वॉल स्ट्रीट जर्नल के अनुसार भारत में फेसबुक की लोकनीति के शीर्ष कार्यकारी ने आंतरिक रूप से चिह्नित किये गए एक दल विशेष से जुड़े व्यक्तियों और समूहों के हिंसक भाषण पर हेट-स्पीच नियमों को लागू नहीं किया और इसके लिये सरकार व व्यावसायिक सम्बंधों का हवाला दिया।
  • कुछ प्रौद्योगिकी नीति विशेषज्ञों ने लोकनीति और सामग्री नियमन के बीच एक मोटी रेखा का आह्वान किया है, जबकि कुछ अन्य ने ‘अनौपचारिक और अपारदर्शी’ कहते हुए इन प्रक्रियाओं की आलोचना की है।

चिंता की बात

  • परम्परागत रूप से लोकनीति की भूमिकाओं ने सरकारी सम्बंधों को उलझा दिया है। जब सामग्री नियमन की बात आती है तो वास्तविक चिंता सार्वजनिक पारदर्शिता की कमी और निर्णय-प्रक्रिया में अपर्याप्त आंतरिक जवाबदेही की है।
  • फेसबुक इंडिया के बारे में हाल के खुलासे में समस्या लोकनीति टीमों की है, जो इन फैसलों को, विशेष रूप से व्यावसायिक विचारों के आधार पर, वीटो या ब्लॉक करने की स्पष्ट क्षमता रखती हैं।
  • यह भी माना जाता है कि वैश्विक सोशल मीडिया प्लेटफार्मों से सामग्री को हटाने से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्षय होता है, जिसको सोशल मीडिया एक व्यवसायिक खतरे के रूप में देखते हैं। सम्भावित डेटा स्थानीयकरण कानून और अन्य माध्यमों से भी इन व्यवसायों के लिये खतरा पैदा किया जाता है।

आगे की राह

  • भारत में ऐसे वैश्विक प्लेटफार्मों को विनियमित करने वाले स्पष्ट कानूनों की कमी एक समस्या है, अत: सामग्री नियमन हेतु एक विशिष्ट कानून की आवश्यकता है।
  • पूर्व न्यायाधीशों की अध्यक्षता में एक स्वतंत्र निकाय की स्थापना की जानी चाहिये, जो आपत्तिजनक सामग्री के उल्लंघन के मामलों की जाँच करे।
  • सभी सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर ऐसी सामग्री के नियमन के लिये सरकार द्वारा एक लोकनीति अधिकारी और विधिक अधिकारी की नियुक्ति की जानी चाहिये।
  • जर्मनी में नेटवर्क प्रवर्तन अधिनियम, नफ़रत फैलाने वाले भाषण के खिलाफ सख्त निषेध सुनिश्चित करता है। यह तय करने का आधार कि क्या कोई सामग्री कानून का उल्लंघन करती है, उनके आपराधिक कोड पर आधारित है। भारत में भी ऐसा किया जाना चाहिये।
  • सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर किसी प्रकार की प्रायोजित प्रचार सामग्री के लेखक और प्रचार के लिये दी गई राशि को प्रकाशित किया जाना चाहिये।
  • इसके अलावा, ऐसे मुद्दों से निपटने के लिये वर्तमान कानून अपर्याप्त और अस्पष्ट हैं और भारतीय दंड संहिता, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम और आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत कई अधिनियमों और नियमों में बिखरे हुए हैं। ज़रूरत मौजूदा कानूनों के सामंजस्य और एकीकरण की है।
  • इंटरनेट पर प्रसारित होने वाली घृणा सामग्री के आधुनिक रूपों से निपटने के लिये प्रारूप मध्यस्थ दिशानिर्देश नियमों (Draft Intermediary Guidelines Rules) में संशोधन करने की आवश्यकता है।
  • ऐसी सामग्रियों को परिभाषित करने, पहचान करने और रोकने आदि के लिये अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांतों के अनुसार एक अंतर्राष्ट्रीय फ्रेमवर्क की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

जबकि सोशल मीडिया के अधिकारियों द्वारा किया गया राजनीतिक पक्षपात जाँच के दायरे में है, विडंबना यह है कि सार्वजनिक अधिकारियों का राजनीतिक पक्षपात युक्त व्यवहार जारी है। स्वतंत्रता, शिष्टाचार और सेंसरशिप के मध्य अंतर की समस्या गहराती जा रही है। सुरक्षा मानव-मूल्य में है और निजता संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार है, अत: सरकार को गोपनीयता, सुरक्षा और वाक्-स्वतंत्रता के मध्य सामंजस्य के साथ आगे बढ़ने की आवश्यकता है।

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