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विरोध प्रदर्शन और लोकव्यवस्था : संतुलन की आवश्यकता

(प्रारंभिक परीक्षा : भारतीय राज्यतंत्र और शासन – संविधान, अधिकार सम्बंधी मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2 : भारतीय संविधान, विभिन्न घटकों के बीच शक्तियों का प्रथक्करण, विवाद निवारण तंत्र तथा संस्थान)

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों द्वारा सार्वजनिक मार्ग के अनिश्चितकाल कब्जे को अस्वीकार कर दिया है। हालाँकि यह विरोध प्रदर्शन 24 मार्च, 2020 को ही समाप्त हो चुका है।

पृष्ठभूमि

नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 को लागू किये जाने से दिल्ली तथा देश के अन्य हिस्सों में इस कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए तथा समाज के इस असंतुष्ट वर्ग द्वारा संविधान के अनुच्छेद - 32 के तहत याचिकाएँ दायर की गईं थीं।

संवैधानिक प्रावधान

  • विरोध प्रदर्शित करने का अधिकार अस्त्र-शस्त्र रहित और शांतिपूर्ण सम्मलेन की स्वतंत्रता के अधिकार [अनुच्छेद-19(1)(b)] में निहित है तथा विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता [अनुच्छेद-19(1)(a)] एवं समुदाय और संघ निर्माण की स्वतंत्रता भी इससे सम्बंधित हैं।
  • राज्य द्वारा सार्वजनिक सुरक्षा के हित में इन स्वतंत्रताओं को सीमित किया जा सकता है। [(अनुच्छेद 19(2)]

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय

  • न्यायालय द्वारा यह माना गया कि नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरुद्ध शाहीन बाग में महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों द्वारा शुरू की गई मुहिम या धरना प्रदर्शन ने सार्वजनिक मार्ग को अवरुद्ध किया, जिससे यात्रियों को असुविधा का सामना करना पड़ा।
  • निर्णय में कानून के विरूद्ध शांतिपूर्ण विरोध के अधिकार को कायम रखा है तथा साथ ही, यह भी स्पष्ट कर दिया है कि सार्वजनिक रास्ते और स्थानों पर अनिश्चितकाल के लिये कब्जा नहीं किया जा सकता है।
  • लोकतंत्र और विरोध साथ-साथ चलते हैं। लेकिन असंतोष व्यक्त करने वाले प्रदर्शन निर्दिष्ट स्थानों (Designated Places) पर किये जाने चाहिए, जिससे आम जनता को असुविधाओं का सामना ना करना पड़े।
  • मौलिक अधिकार अपने आप में पूर्ण रूप से स्वतंत्र और असीमित नहीं हैं। इनपर औचित्यपूर्ण निर्बंधन लगाए जा सकते हैं। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सार्वजनिक स्थानों पर अतिक्रमण को रोकना प्रशासन की ज़िम्मेदारी है और इससे उन्हें स्वयं ही निपटना चाहिए तथा भविष्य में इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न नहीं होनी चाहिए ।
  • विरोध के अधिकार को आवागमन के अधिकार के साथ संतुलित किया जाना चाहिए ।

निर्णय से उत्पन्न चुनौतियाँ

  • सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय मामला समाप्त होने के पश्चात् आया है जो न्यायपालिका की कार्य प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।
  • न्यायपालिका को कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए क्योंकि यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 50 में वर्णित शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत के विपरीत है तथा इससे न्यायिक अतिसक्रियता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
  • न्यायालय ने विरोध प्रदर्शनों और आंदोलनों को निर्दिष्ट स्थानों पर आयोजित करने का आदेश दिया है। हालाँकि निर्दिष्ट स्थान के बारे में कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया अर्थात् यह नहीं बताया है कि निर्दिष्ट स्थान कौन से होंगें।
  • न्यायालय ने कहा है कि इस प्रकार के मुद्दों से प्रशासन स्वयं ही निपटे, जोकि पुलिस प्रशासन की शक्तियों में वृद्धि करता है तथा प्रदर्शनकारियों और आंदोलनकारियों के अधिकारों को सीमित करता है।

सुझाव

  • विरोध प्रदर्शनों का मूल उद्देश्य शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात सरकार तक पहुँचाना तथा वार्ताओं के माध्यम से मुद्दे को हल करना होना चाहिए ना कि हिंसा, आगजनी, आम जनता को असुविधा पहुँचाना तथा सरकारी कार्यों में बाधा उत्पन्न करना।
  • प्रशासन को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विरोध प्रदर्शन और आंदोलनों के कार्यान्वित होने से आम जनता को असुविधा ना हो तथा देश की अखंडता और सम्प्रभुता को किसी प्रकार का खतरा उत्पन्न ना हो।

निष्कर्ष

विरोध प्रदर्शन लोकतंत्र की खूबसूरती को इंगित करते हैं अतः इनका सम्मान किया जाना चाहिए, किंतु इसके लिये यह आवश्यक है कि विरोध प्रदर्शन और आंदोलन का तरीका शांतिपूर्ण हो जिससे आम नागरिकों को असुविधा का सामना ना करना पड़े। साथ ही, इन प्रदर्शन सम्बंधी गतिविधियों से प्रभावित होने वाले लोगों के अधिकारों की रक्षा भी अनिवार्य रूप से की जानी चाहिए।

प्री फैक्ट्स :

  • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह निर्णय पुलिस आयुक्त और अन्य बनाम अमित साहनी मामले में दिया गया है।
  • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्दिष्ट स्थानों (Designated Places) को स्पष्ट नहीं किया गया है।

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