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यातना-विरोधी कानून की आवश्यकता का परीक्षण

(प्रारम्भिक परीक्षा: राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ, भारतीय राज्यतंत्र और शासन- संविधान, अधिकारसम्बंधी मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: भारतीय संविधान: महत्त्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी संरचना,  पारदर्शिता और जवाबदेही के महत्त्वपूर्ण पक्ष)

पृष्ठभूमि

विगत दिनों तमिलनाडु में पुलिस हिरासत में पूछ-ताछ के दौरान पिता और पुत्र की मौत हो गई थी। तमिलनाडु के सत्तनकुलम शहर (Sattankulam) में पिता व पुत्र की कथित यातना ने एक बार फिर से प्रताड़ना के खिलाफ एक अलग कानून की माँग को जन्म दे दिया है। ऐसी स्थिति में इस बात की जाँच करना आवश्यक है कि क्या हिरासत में यातना की घटनाओं को रोकने के लियेवर्तमान कानून अपर्याप्त है।

यातना-विरोधी कानून की आवश्यकता का परीक्षण

  • भारतीय दंड संहिता में ‘यातना’(Torture)को परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन ‘प्रताड़ना’(Hurt) व‘गम्भीर प्रताड़ना’ (Grievous Hurt) की परिभाषाएँ स्पष्ट की गईं हैं।
  • हालाँकि, ‘प्रताड़ना’ की परिभाषा में मानसिक यातना को शामिल नहीं किया गया है, लेकिन भारतीय अदालतों द्वारा यातना के दायरे में मानसिक यातना, स्वाभाविक रूप से बल प्रयोग या ज़बरदस्ती करना, थका देने वाली लम्बी पूछताछ के साथ-साथ लोगों में घबराहट पैदा करने व भयभीत करने वाले तरीकों को शामिल किया गया है।

गिरफ़्तारी बनाम हिरासत (Arrest Vs Custody)

A. गिरफ़्तारी और हिरासत पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। किसी व्यक्ति को पुलिस द्वारा बलपूर्वक कैद में रखना गिरफ़्तारी कहलाता है। हिरासत का सामान्य अर्थ किसी व्यक्ति पर नियंत्रण या नज़र रखना है। इसका आशय यह है कि किसी व्यक्ति को उसकी इच्छानुसार कहीं आने-जाने पर प्रतिबंध होता है।

B. गिरफ़्तारी के बाद हिरासत होती है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि हिरासत के प्रत्येक मामले में पहले गिरफ़्तारी हो। उदाहरण स्वरुप, जब कोई व्यक्ति न्यायालय के समक्ष आत्मसमर्पण करता है तो वह हिरासत में होता है।

उच्चतम न्यायालय तथा अभिरक्षा (हिरासत) में मौतें

  • ‘डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य’, 1997 के मामलेमें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय हिरासत में यातना पर न्यायिक दृष्टिकोण के विकास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था।
  • ‘नीलाबती बेहरा बनाम उड़ीसा राज्य’ के मामले में अदालत के फैसले ने सुनिश्चित किया कि राज्य अब सार्वजनिक कानून के मामलों में देयताओं से बच नहीं सकते है और ऐसे मामलों में राज्यों को मुआवज़ा देने के लिये मजबूर होना पड़ा।
  • इसी प्रकार, कई मामलों में न्यायालय ने कहा है कि हिरासत में मौत के दोषी पाए गए पुलिस कर्मियों को भी मृत्युदंड दिया जाना चाहिये।
  • अतः ऐसे मामलों से निपटने के लिये न तो उदाहरणों की कोई कमी है और न ही मौजूदा कानून में कोई कमी है। वास्तविक कमी कानूनों के अनुपालन की है।

पुलिस हिरासत बनाम न्यायिक हिरासत

a) किसी पुलिस अधिकारी द्वारा जब एक व्यक्ति को संज्ञेय अपराध करने के संदेह में गिरफ्तार किया जाता है, तो उस व्यक्ति को हिरासत में लिया गया बताया जाता है। पुलिस हिरासत का उद्देश्य अपराध के बारे में अधिक जानकारी इकट्ठा करने के लिये संदिग्ध से पूछताछ करने के साथ-साथ सबूतों को नष्ट करने व गवाहों को प्रभावित करने से बचाना है। यह हिरासत मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना 24 घंटे से अधिक समय तक नहीं हो सकती।

b) पुलिस हिरासत में आरोपी की शारीरिक हिरासत होती है। इसलिये पुलिस हिरासत में भेजे गए आरोपी को पुलिस स्टेशन में रखा जाता है, जिससे पूछताछ के लिये पुलिस की पहुँच आरोपी तक हर समय होगी।

c) पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये गए अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किये जाने की स्थिति में आरोपी को पुलिस हिरासत में या न्यायिक हिरासत में भेजने के रूप में दो विकल्प होते हैं।

d) न्यायिक हिरासत में, आरोपी मजिस्ट्रेट की हिरासत में होता है और उसको ज़ेल भेजा जाता है। न्यायिक हिरासत में रखे गये अभियुक्त से पूछताछ हेतु पुलिस को सम्बंधित मजिस्ट्रेट की अनुमति लेनी होगी।

विधि आयोग का दृष्टिकोण

  • विधि आयोग की 262वीं रिपोर्ट की अनुशंसा के अनुसार, 'आतंकवादी गतिविधियों से सम्बंधित अपराधों को छोड़कर मृत्युदंड को समाप्त कर दिया जाना चाहिये।
  • विधि आयोग की 273वीं रिपोर्ट में ‘यातना और अन्य क्रूर, अमानवीय व अपमान जनक व्यवहार तथा दण्ड (UNCAT- यू.एन.सी.ए.टी.)’ के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र के अभिसमय के अनुमोदन की सिफारिश की गई।
  • यद्यपि, भारत द्वारा सी.ए.टी. (CAT) पर हस्ताक्षर कर दिया गया है परंतु अभी तक इसका अनुमोदन किया जाना लम्बित है।
  • हालाँकि, मामुली विसंगतियों को छोड़कर, यातना से सम्बंधित भारत में प्रचलित कानून कैट के प्रावधानों के अनुरूप पर्याप्त और सही हैं।

संयुक्त राष्ट्र का ‘यातना और अन्य क्रूर, अमानवीय व अपमानजनक व्यवहार तथा दण्ड रोधी अभिसमय’

1. ‘The Convention against Torture and Other Cruel, Inhuman or Degrading Treatment or Punishment’ को सामान्य तौर पर यातना-रोधी संयुक्त राष्ट्र सम्मलेन (United Nations Convention against Torture- UNCAT) कहा जाता है।

2. यह संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत एक अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संधि है जिसका उद्देश्य विश्व भर में क्रूर, अमानवीय, अपमानजनक दंड और अत्याचार को रोकना है।

3. इस अभिसमय का मसौदा 10 दिसम्बर, 1984 को तैयार किया गया और 26 जून, 1987 से यह अभिसमय प्रभावी हुआ।

4. इसी अभिसमय के उपलक्ष्य में 26 जून ‘यातना पीड़ितों के समर्थन में अंतर्राष्ट्रीय दिवस’ के रूप में मान्यता प्राप्त है।

अन्य सुरक्षात्मक उपाय

  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा हिरासत में होने वाली मौतों के लिये कैमरे की नज़र में शव परीक्षण करने हेतु विशिष्ट दिशा-निर्देश जारी किये गए हैं।
  • दंड प्रक्रिया संहिता के तहत,हिरासत में होने वाली प्रत्येक मौत की जाँच एक न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा की जाती है।

अभी तक के प्रयास

  • विभिन्न हितधारकों से सुझाव माँगने के लिये वर्ष 2017 में ‘अत्याचार निवारण विधेयक’ का एक नया मसौदा जारी किया गया था।
  • यह विधेयक न केवल अस्पष्ट था बल्कि कानून के मौजूदा प्रावधानों के साथ यह असंगत भी था। इसमें यातना के रूप में 'गम्भीर या लम्बे समय तक पीड़ा या कष्ट' को शामिल तो किया गया था परंतु इसे अपरिभाषित छोड़ दिया गया था।
  • इसके अतिरिक्त, हिरासत में मौत के मामलें में प्रस्तावित सज़ाबहुत कठोर थी। विधि आयोग की 262 वी रिपोर्ट में आतंकी गतिविधियों को छोड़कर अन्य मामलों में मृत्यु दंड को खत्म करने की सिफारिश के बावजूद भी मृत्यु दंड की सज़ा का प्रावधान किया गया था।
  • इस विधेयक में यातना की प्रत्येक शिकायत की एफ़.आई.आर. के रूप में पंजीकरण का प्रस्तावभी अनुचित था। साथ ही, यातना के आरोपी लोक सेवकों को अग्रिम ज़मानत से इनकार करना भी अतार्किक था।
  • कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि प्रस्तावित विधेयक बहुत नया और सुधारवादी नहीं था।

समस्या व समाधान

  • पूर्व न्यायाधीश दीपक गुप्ता के अनुसार, हमें पहले से उपलब्ध कानून को लागू करने की आवश्यकता है, क्योंकी इससे निपटने के लिये वे पर्याप्त हैं।
  • जाँचकर्ता और अभियोजक निष्पक्ष नहीं हैं, पहले इन्हें सुधारा जाना चाहिये। इसके लिये पुलिस को बेहतर प्रशिक्षण देने की ज़रूरत है।
  • पुलिस द्वारा पूछ-ताछ करने के लिये थर्ड-डिग्री टॉर्चर विधियों के उपयोग की जगह वैज्ञानिक कौशलका प्रयोग किया जाना चाहिये।
  • इस प्रकार, समस्या के मूल को पहचान कर उस पर प्रहार करने के साथ-साथ आवश्यक सुधार लाने के लिये विभिन्न आयोगों द्वारा की गई सिफारिशों को लागू करना समय की माँग है।
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