(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र-2 : सरकारी नीतियों और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप और उनके अभिकल्पन तथा कार्यान्वयन के कारण उत्पन्न विषय।) |
संदर्भ
प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता वाली राजनीतिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने आगामी जनगणना, 2025 में जातियों की गणना को मंजूरी दे दी है। यह विशेष रूप से सामाजिक न्याय, आरक्षण नीतियों एवं समावेशी विकास से संबंधित है।
जाति जनगणना के बारे में
- जाति जनगणना में राष्ट्रीय जनगणना के दौरान व्यक्तियों की जातिगत पहचान को व्यवस्थित रूप से दर्ज करना शामिल है।
- भारत में जाति सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन को प्रभावित करती है, इसीलिए ऐसा डाटा विभिन्न जाति समूहों के वितरण व सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बारे में मूल्यवान जानकारी प्रदान कर सकता है।
भारत में जाति जनगणना का ऐतिहासिक संदर्भ
- ब्रिटिश भारत (1881-1931) : ब्रिटिश प्रशासन ने जाति, धर्म एवं व्यवसाय के आधार पर जनसंख्या को वर्गीकृत करने के लिए दशकीय जनगणना में जाति को शामिल किया।
- स्वतंत्रता के बाद (1951) : प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में नव स्वतंत्र भारतीय सरकार ने सामाजिक विभाजन को मजबूत होने से बचाने के लिए जाति जनगणना बंद कर दी।
- सरकार ने केवल अनुसूचित जातियों (SC) एवं अनुसूचित जनजातियों (ST) को जनगणना में शामिल करने का फैसला किया।
- 1961 का निर्देश : केंद्र सरकार ने राज्यों को अपने स्वयं के सर्वेक्षणों के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) सूची संकलित करने की अनुमति दी किंतु कोई राष्ट्रीय जाति जनगणना नहीं की गई।
- प्रथम राष्ट्रीय प्रयास : राष्ट्रीय स्तर पर जाति डाटा संग्रह का प्रथम प्रयास वर्ष 2011 में सामाजिक-आर्थिक एवं जाति जनगणना (SECC) के माध्यम से हुआ था।
जाति जनगणना का महत्त्व
- सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान कर सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना
- शिक्षा, रोजगार एवं सामाजिक कल्याण योजनाओं के लिए संसाधन आवंटन में सुधार करना
- जाति-आधारित डाटा से गरीबी, बेरोजगारी एवं शैक्षिक स्तर का विश्लेषण संभव करना
- संविधान के अनुच्छेद 15, 16 एवं 46 सामाजिक व आर्थिक समानता को बढ़ावा देने का निर्देश देते हैं, जाति जनगणना इन प्रावधानों को लागू करने में सहायक है।
- वर्तमान आरक्षण प्रणाली की प्रासंगिकता एवं प्रभावशीलता के आकलन करने में मदद
- सामाजिक परिवर्तनों, जैसे- अंतर-जातीय विवाह एवं शहरीकरण का विश्लेषण करने में सहायक
- जाति-आधारित आरक्षण और लाभों के दावों से संबंधित कानूनी व सामाजिक विवादों को सुलझाने में सहायक
राजनीतिक मुद्दे के रूप में जाति जनगणना
- मंडल आयोग (1980) : 27% ओ.बी.सी. आरक्षण की सिफारिश ने जातिगत आंकड़ों को राजनीति के केंद्र में ला दिया। अद्यतन जातिगत आँकड़ों की अनुपस्थिति ने कार्यान्वयन को कठिन एवं विवादास्पद बना दिया।
- SECC 2011 : यद्यपि वर्ष 2011 के इस प्रयास में जातिगत आँकड़े एकत्र किए गए किंतु इनके निष्कर्षों को कभी भी पूरी तरह से जारी या उपयोग नहीं किया गया।
- राज्य स्तरीय सर्वेक्षण : हाल के वर्षों में बिहार, तेलंगाना एवं कर्नाटक जैसे राज्यों ने कल्याणकारी योजनाओं व आरक्षणों को दिशा देने के लिए अपने स्वयं के जाति सर्वेक्षण किए।
- बिहार के 2023 के सर्वेक्षण में पाया गया कि ओ.बी.सी. एवं अत्यंत पिछड़ा वर्ग यहाँ की आबादी का 63% से अधिक हिस्सा हैं।
इसे भी जानिए!
- अगली जनगणना (2035) में जाति की गणना को सक्षम बनाने के लिए जनगणना अधिनियम, 1948 में संशोधन किया जाएगा।
- 84वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2001 के अनुसार निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं का पुनः निर्धारण 2026 के बाद पहली जनगणना के जनसंख्या आंकड़ों के आधार पर किया जाना है। वर्तमान में सीटों की संख्या का निर्धारण 1971 की जनगणना के आधार पर किया गया है।
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जाति जनगणना के प्रभाव
सकारात्मक
- सामाजिक-आर्थिक नीतियों को डाटा आधारित बनाने में मदद
- OBC, SC एवं ST समुदायों के लिए लक्षित कल्याणकारी योजनाएँ
- सामाजिक असमानता को कम करने में सहायक
नकारात्मक
- जाति आधारित विभाजन और सामाजिक तनाव बढ़ने की आशंका
- डाटा संग्रह और गोपनीयता से संबंधित चुनौतियाँ
- राजनीतिक दुरुपयोग और वोट-बैंक की राजनीति
- डाटा की गुणवत्ता और सटीकता पर सवाल
सुझाव
- पारदर्शी डाटा संग्रह : जाति जनगणना को गोपनीयता एवं सटीकता के साथ लागू करना
- राजनीतिक दुरुपयोग रोकना : डाटा का उपयोग केवल नीति निर्माण के लिए हो, न कि वोट-बैंक की राजनीति के लिए
- जागरूकता एवं शिक्षा : जनता को जातीय जनगणना के लाभों एवं उद्देश्यों के बारे में शिक्षित करना
- तकनीकी उपयोग : डिजिटल तकनीक का उपयोग डाटा संग्रह एवं विश्लेषण में त्रुटियों को कम करने के लिए
निष्कर्ष
जाति जनगणना भारत में सामाजिक न्याय और समावेशी विकास के लिए एक शक्तिशाली उपकरण हो सकती है, बशर्ते इसे पारदर्शिता और जिम्मेदारी के साथ लागू किया जाए। यह सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को दूर करने में मदद कर सकती है, लेकिन इसके साथ सामाजिक तनाव और राजनीतिक दुरुपयोग का जोखिम भी है। इसलिए, एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है, जो डाटा आधारित नीतियों को बढ़ावा दे और सामाजिक एकता को बनाए रखे।