आर्थिक नियोजन का परिचय (Introduction to Economic Planning)
आर्थिक नियोजन वह सुव्यवस्थित प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत कोई केंद्रीय प्राधिकरण (Central Authority) देश की आवश्यकताओं, संसाधनों और प्राथमिकताओं का आकलन कर एक निश्चित समयावधि में प्राप्त किए जाने वाले आर्थिक एवं सामाजिक लक्ष्यों का निर्धारण करता है तथा संसाधनों का नियोजित आवंटन करता है। जहाँ बाज़ार तंत्र (Market Mechanism) लाभ-प्रेरित गतिविधियों को प्राथमिकता देता है, वहीं आर्थिक नियोजन का उद्देश्य सीमित संसाधनों का इस प्रकार उपयोग करना होता है कि:
- समग्र विकास सुनिश्चित हो,
- सामाजिक न्याय स्थापित हो,
- तथा दीर्घकालिक राष्ट्रीय हितों की पूर्ति हो।
नव-स्वतंत्र भारत में नियोजन की आवश्यकता (Need for Economic Planning in Newly Independent India)
- 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत एक अत्यंत पिछड़ी, असंतुलित और औपनिवेशिक शोषण से ग्रस्त अर्थव्यवस्था था।
- लगभग दो शताब्दियों के ब्रिटिश शासन ने भारत की उत्पादन संरचना, संसाधन आधार और सामाजिक ताने-बाने को गंभीर रूप से कमजोर कर दिया था।
- ऐसे में केवल मुक्त बाजार तंत्र के भरोसे आर्थिक पुनर्निर्माण संभव नहीं था। इन्हीं परिस्थितियों ने भारत में राज्य-नेतृत्वित आर्थिक नियोजन (Economic Planning) को एक अनिवार्य आवश्यकता बना दिया।
नियोजन की आवश्यकता के प्रमुख कारण
- व्यापक निर्धनता (Widespread Poverty)
- स्वतंत्रता के समय भारत की विशाल जनसंख्या अत्यंत दयनीय जीवन-स्तर में जीवन यापन कर रही थी।
- देश का बड़ा भाग गरीबी रेखा से नीचे था, जिससे न्यूनतम आवश्यकताओं—भोजन, वस्त्र और आवास—की पूर्ति भी कठिन थी।
- गरीबी उन्मूलन के लिए योजनाबद्ध हस्तक्षेप आवश्यक था।
- निरक्षरता और मानव पूंजी की कमी (Illiteracy & Lack of Human Capital)
- स्वतंत्रता के समय भारत की साक्षरता दर अत्यंत निम्न थी।
- शिक्षा, कौशल और तकनीकी दक्षता के अभाव के कारण श्रम शक्ति की उत्पादकता बहुत कम थी।
- मानव पूंजी के निर्माण के लिए दीर्घकालिक नियोजन अपरिहार्य था।
- स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव (Poor Health Infrastructure)
- औसत जीवन प्रत्याशा कम थी तथा शिशु मृत्यु दर अत्यधिक उच्च थी।
- सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं, स्वच्छता और पोषण की स्थिति अत्यंत कमजोर थी, जिसे बिना राज्य-नियोजन के सुधारना संभव नहीं था।
- खाद्यान्न की कमी और खाद्य संकट (Food Shortage & Food Crisis)
- भारत खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं था और आयात पर निर्भर था। अकाल, भुखमरी और खाद्य-मूल्य मुद्रास्फीति की आशंका बनी रहती थी।
- कृषि उत्पादन बढ़ाने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए योजनाबद्ध विकास आवश्यक था।
- निजी क्षेत्र की कमजोरी (Weak Private Sector)
- स्वतंत्रता के समय निजी क्षेत्र के पास पर्याप्त पूंजी, आधुनिक तकनीक और उद्यमशीलता का अभाव था।
- भारी उद्योगों और आधारभूत संरचना में निजी निवेश करने की क्षमता सीमित थी, जिससे राज्य की सक्रिय भूमिका आवश्यक हो गई।
- बैंकिंग, बीमा एवं वित्तीय संस्थानों का अभाव
- वित्तीय ढाँचा अविकसित था। ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग और बीमा सुविधाएँ नगण्य थीं।
- पूंजी निर्माण और संसाधनों की समुचित दिशा के लिए राज्य-नियंत्रित वित्तीय नियोजन जरूरी था।
- रूसी (सोवियत) नियोजन अनुभव से प्रेरणा
- सोवियत संघ ने केंद्रीय नियोजन के माध्यम से तीव्र औद्योगीकरण और आर्थिक परिवर्तन हासिल किया था।
- इससे प्रेरित होकर भारत ने भी आर्थिक विकास के लिए नियोजन को एक प्रभावी साधन माना।
इन सभी कारकों के सम्मिलित प्रभाव ने भारत को नियोजित विकास (Planned Development) के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित किया।
नियोजन के प्रकार (Types of Planning)
राज्य द्वारा अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप और नियंत्रण की मात्रा के आधार पर आर्थिक नियोजन को निम्नलिखित प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है:
(i) आदेशात्मक / अनिवार्य नियोजन (Imperative Planning)
आदेशात्मक नियोजन एक पूर्णतः केंद्रीकृत और ऊपर से नीचे (Top-Down) दृष्टिकोण पर आधारित होता है। इसमें राज्य सभी आर्थिक क्षेत्रों—कृषि, उद्योग, सेवाएँ—के लिए कठोर और बाध्यकारी लक्ष्य निर्धारित करता है। संसाधनों का आवंटन, उत्पादन का स्तर और वितरण प्रणाली सीधे राज्य द्वारा नियंत्रित की जाती है। निजी क्षेत्र की भूमिका अत्यंत सीमित होती है।
उदाहरण: समाजवादी अर्थव्यवस्थाएँ जैसे—पूर्व सोवियत संघ (USSR)।
(ii) निर्देशात्मक / सांकेतिक नियोजन (Indicative Planning)
निर्देशात्मक नियोजन में राज्य अर्थव्यवस्था को प्रत्यक्ष आदेशों के बजाय संकेतों और प्रोत्साहनों के माध्यम से दिशा देता है। इसमें सरकार व्यापक आर्थिक उद्देश्य और प्राथमिकताएँ तय करती है, जबकि निजी क्षेत्र को कर-प्रोत्साहन, सब्सिडी, ऋण सुविधा और सार्वजनिक निवेश के माध्यम से वांछित क्षेत्रों की ओर प्रेरित किया जाता है।
उदाहरण: मिश्रित अर्थव्यवस्थाएँ जैसे—भारत और फ्रांस।
(iii) संरचनात्मक नियोजन (Structural Planning)
संरचनात्मक नियोजन दीर्घकालिक हस्तक्षेप पर आधारित होता है, जिसका उद्देश्य अर्थव्यवस्था की मूल संरचना में परिवर्तन लाना होता है। इसके अंतर्गत कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था को औद्योगिक अर्थव्यवस्था में रूपांतरित करना, भूमि सुधार जैसे संस्थागत परिवर्तन लागू करना तथा शिक्षा, स्वास्थ्य और कौशल विकास के माध्यम से मानव पूंजी का निर्माण करना शामिल है। यह प्रकार प्रायः विकासशील और संक्रमणशील अर्थव्यवस्थाओं में अपनाया जाता है।
- भारत की पंचवर्षीय योजनाओं में निर्देशात्मक (Indicative) तथा संरचनात्मक (Structural) दोनों प्रकार के नियोजन के तत्व स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।
पंचवर्षीय योजना (Five Year Plan – FYP) युग (1951–2015)
1951 से 2015 तक भारत का आर्थिक विकास पथ मुख्यतः योजना आयोग (Planning Commission) द्वारा तैयार की गई पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से निर्देशित रहा। इस कालखंड में भारत ने एक नियोजित अर्थव्यवस्था के रूप में विकास का मार्ग अपनाया।
वैचारिक आधार (Ideological Foundation)
- पंचवर्षीय योजनाओं का वैचारिक आधार मुख्यतः नेहरू–महालनबीस रणनीति पर आधारित था, जिसमें भारी उद्योगों के विकास को दीर्घकालिक आर्थिक वृद्धि की कुंजी माना गया।
- इन योजनाओं में आत्मनिर्भरता (Self-Reliance) पर विशेष बल दिया गया, ताकि विदेशी निर्भरता को कम किया जा सके।
- इसके अतिरिक्त, सशक्त सार्वजनिक क्षेत्र (Public Sector Undertakings – PSUs) को आर्थिक विकास का प्रमुख साधन माना गया।
पंचवर्षीय योजनाओं की प्रमुख उपलब्धियाँ
(i) औद्योगिक विविधीकरण
- पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत भारत में इस्पात, ऊर्जा, सीमेंट, भारी मशीनरी तथा रसायन उद्योगों जैसे क्षेत्रों में मजबूत औद्योगिक आधार का निर्माण किया गया।
- सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के माध्यम से रणनीतिक एवं पूंजी-प्रधान उद्योगों का विकास सुनिश्चित किया गया, जो निजी क्षेत्र के लिए उस समय संभव नहीं था।
(ii) बचत एवं निवेश में वृद्धि
- नियोजन के परिणामस्वरूप भारत में सकल घरेलू बचत दर तथा निवेश दर में औपनिवेशिक काल की तुलना में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।
- इससे देश की उत्पादन क्षमता बढ़ी और दीर्घकालिक आर्थिक विकास को गति मिली।
(iii) मानव पूंजी निर्माण
- पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान IITs, IIMs, AIIMS, CSIR जैसे उच्च शिक्षण एवं अनुसंधान संस्थानों की स्थापना की गई।
- इन संस्थानों ने भारत की वैज्ञानिक, तकनीकी तथा प्रबंधकीय क्षमता को सुदृढ़ किया और कुशल मानव संसाधन तैयार किए।
(iv) खाद्य सुरक्षा की प्राप्ति
- हरित क्रांति तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) प्रणाली के माध्यम से कृषि उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।
- इसके परिणामस्वरूप भारत खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बना और अकाल जैसी स्थितियों पर प्रभावी नियंत्रण संभव हुआ।
पंचवर्षीय योजनाओं की प्रमुख कमियाँ
(i) संघवाद संबंधी समस्याएँ
- योजना आयोग द्वारा संसाधनों के आवंटन में अत्यधिक केंद्रीकरण किया गया, जिससे राज्यों की स्वायत्तता सीमित हुई।
- संकेतात्मक नियोजन व्यवहार में निर्देशात्मक रूप ले बैठा, जिसके कारण राज्यों में असंतोष की भावना उत्पन्न हुई।
(ii) अक्षमता और लाइसेंस-राज
- औद्योगिक विकास एवं विनियमन अधिनियम, 1951 (IDRA) के तहत अत्यधिक नियंत्रण लागू किया गया।
- इससे लाइसेंस-राज की व्यवस्था विकसित हुई, जिसने भ्रष्टाचार, लालफीताशाही तथा निजी उद्यमिता को बढ़ने से रोका।
(iii) कृषि और निर्यात की उपेक्षा
- भारी उद्योगों पर अत्यधिक ध्यान दिए जाने के कारण कृषि एवं निर्यात क्षेत्रों की उपेक्षा हुई।
- आयात-प्रतिस्थापन नीति के कारण निर्यात निराशावाद (Export Pessimism) बढ़ा और भारत को व्यापार घाटे का सामना करना पड़ा।
(iv) अप्रभावी भूमि सुधार
- हालाँकि जमींदारी उन्मूलन कानून अपेक्षाकृत सफल रहे, लेकिन भूमि सीलिंग और भूमि पुनर्वितरण कानूनों का कमजोर क्रियान्वयन होने के कारण अपेक्षित सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन नहीं हो सका।
(v) राजकोषीय असंतुलन
- 1980 के दशक में सार्वजनिक व्यय में तीव्र वृद्धि हुई और कई सार्वजनिक उपक्रम लगातार घाटे में चले गए।
- इस राजकोषीय असंतुलन का परिणाम अंततः 1991 के भुगतान संतुलन संकट (Balance of Payments Crisis) के रूप में सामने आया।