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उर्वरक सब्सिडी में सुधार

(प्रारंभिक परीक्षा: लोकनीति, पर्यावरणीय पारिस्थितिकी)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3: कृषि उत्पाद का भंडारण, परिवहन तथा विपणन, संबंधित विषय और बाधाएँ; किसानों की सहायता के लिये ई-प्रौद्योगिकी, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कृषि सहायता; जन वितरण प्रणाली- उद्देश्य, कार्य, सीमाएँ, खाद्य सुरक्षा संबंधी विषय)

संदर्भ

वर्तमान सरकार द्वारा किए जा रहे व्यापक आर्थिक व संरचनात्मक सुधारों के संदर्भ में भारत की उर्वरक सब्सिडी व्यवस्था एक बार फिर नीति विमर्श के केंद्र में आ गई है। अनेक अर्थशास्त्रियों का मानना है कि मौजूदा प्रणाली ने अल्पकालिक खाद्य सुरक्षा तो सुनिश्चित की है किंतु दीर्घकाल में इसने राजकोषीय दबाव, संसाधनों के दुरुपयोग व पर्यावरणीय क्षति को जन्म दिया है। ऐसे में इसके तत्काल एवं विवेकपूर्ण पुनर्गठन की आवश्यकता महसूस की जा रही है। 

उर्वरक सब्सिडी: अवधारणा एवं उद्देश्य

  • उर्वरक सब्सिडी वह सरकारी तंत्र है जिसके माध्यम से उत्पादन अथवा आयात लागत और खुदरा बिक्री मूल्य के बीच के अंतर की भरपाई की जाती है जिससे किसानों को विशेषकर यूरिया जैसे उर्वरक कम कीमत पर उपलब्ध हो सकें। 
  • इसका मूल उद्देश्य कृषि इनपुट को वहनीय बनाना और खाद्य सुरक्षा को बनाए रखना था। समय के साथ यह व्यवस्था भारत की सबसे बड़ी किंतु सर्वाधिक विकृत सब्सिडियों में बदल गई है। 

भारत में उर्वरक सब्सिडी की वर्तमान तस्वीर

  • केंद्रीय बजट में खाद्य सब्सिडी के बाद दूसरा सबसे बड़ा व्यय मद ‘उर्वरक सब्सिडी’ बन चुका है। अनुमान है कि वित्त वर्ष 2026 तक यह राशि लगभग 2 लाख करोड़ रुपए तक पहुँच सकती है जो कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के कुल बजट से भी अधिक है।  
  • इस व्यय में यूरिया का वर्चस्व स्पष्ट है जो कुल सब्सिडी का लगभग दो-तिहाई हिस्सा है। यूरिया को नियंत्रित कीमत पर बेचा जाता है जो इसे विश्व के सबसे सस्ते उर्वरकों में शामिल करता है।  
  • इसके अतिरिक्त भारत उर्वरक उत्पादन के लिए आयात पर अत्यधिक निर्भर है। यूरिया के लिए लगभग 78% प्राकृतिक गैस, फॉस्फेटिक उर्वरकों का 90% और पोटाश का लगभग पूरा आयात किया जाता है।  
  • इसका प्रत्यक्ष परिणाम पोषक तत्वों के असंतुलन के रूप में सामने आया है जहाँ भारत का N:P:K अनुपात 10.9:4.4:1 तक बिगड़ चुका है जो अनुशंसित 4:2:1 से काफी भिन्न है। 

सब्सिडी की आवश्यकता संबंधी तर्क

  • उर्वरक सब्सिडी ने हरित क्रांति के दौरान कृषि में आधुनिक तकनीकों के प्रसार को संभव बनाया है। 1970 के दशक में उर्वरक-अनाज प्रतिक्रिया अनुपात लगभग 1:10 था, जिसने भारत को खाद्य आत्मनिर्भरता की राह पर अग्रसर किया। 
  • आज भी देश के 85% से अधिक किसान छोटे एवं सीमांत हैं और सब्सिडी उन्हें अस्थिर वैश्विक ऊर्जा एवं उर्वरक कीमतों से सुरक्षा प्रदान करती है। इसके बिना इनपुट लागत में अचानक वृद्धि से खेती अलाभकारी हो सकती है, विशेषकर नकदी संकट से जूझ रहे किसानों के लिए। 
  • इसके साथ ही, उर्वरक सब्सिडी खेती की लागत को सीमित रखकर खाद्य कीमतों में अस्थिरता और लागत-जनित मुद्रास्फीति को भी नियंत्रित करती है। 
  • जलवायु परिवर्तन के दौर में कृषि मानसून की अनिश्चितता से प्रभावित है और सब्सिडी आय में होने वाले आघातों के विरुद्ध एक सुरक्षा कवच का कार्य भी करती है।  

वर्तमान व्यवस्था से संबंधित चुनौतियाँ 

हालाँकि, इसके कार्यान्वयन ने कई विकृतियों को भी जन्म दिया है-

  • पोषक तत्वों का असंतुलन: वैज्ञानिक रूप से आदर्श N:P:K अनुपात 4:2:1 होना चाहिए किंतु यूरिया के अत्यधिक उपयोग के कारण भारत में यह बिगड़कर 10.9:4.4:1 हो गया है।
  • घटती उत्पादकता: पोषक तत्व उपयोग दक्षता’ (NUE) केवल 35-40% रह गई है। इसका अर्थ है कि 60% से अधिक उर्वरक या तो हवा में वाष्पित हो जाता है या भूजल को प्रदूषित करता है जिससे पैदावार में आनुपातिक वृद्धि नहीं हो रही है।
  • आयात निर्भरता: भारत अपनी जरूरत का 78% प्राकृतिक गैस (यूरिया निर्माण हेतु), 90% फॉस्फेटिक व 100% पोटाश आयात करता है जिससे राजकोषीय स्थिति वैश्विक आघातों के प्रति संवेदनशील बनी रहती है।
  • लीकेज एवं कालाबाजारी: अत्यधिक सब्सिडी वाले यूरिया का लगभग 20-25% हिस्सा गैर-कृषि उद्योगों (जैसे- प्लाईवुड, कांच) या सीमा पार तस्करी में डाइवर्ट हो जाता है। 

सुधार की राह: एक भविष्योन्मुखी दृष्टिकोण

विशेषज्ञों के अनुसार, सुधार का अर्थ सब्सिडी समाप्त करना नहीं है बल्कि इसे ‘स्मार्ट एवं लक्षित’ बनाना है:

  • यूरिया को NBS के दायरे में लाना: वर्तमान में केवल गैर-यूरिया उर्वरक ‘पोषक तत्व आधारित सब्सिडी’ (NBS) के तहत हैं। यूरिया को भी इसमें शामिल करने से असंतुलित उपयोग कम होगा।
  • प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (DBT) और ई-रुपी: मूल्य नियंत्रण को धीरे-धीरे हटाकर बचत की राशि सीधे किसानों के खातों में भेजी जानी चाहिए। ई-वाउचर जैसी प्रणालियों से यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि सहायता केवल कृषि कार्य के लिए ही उपयोग हो।
  • सटीक खेती और डिजिटल कृषि: ‘एग्री-स्टैक’ (Agri Stack) के माध्यम से भूमि रिकॉर्ड और मृदा स्वास्थ्य कार्ड को जोड़कर उर्वरक की मात्रा निर्धारित की जानी चाहिए।
  • जटिल उर्वरकों को प्रोत्साहन: चीन की तरह भारत को भी मिश्रित और जटिल उर्वरकों के उपयोग को बढ़ावा देना चाहिए ताकि मृदा को सभी आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्व मिल सकें। 

निष्कर्ष

उर्वरक सब्सिडी सुधार भारत की कृषि नीति के लिए एक निर्णायक मोड़ हो सकता है। सही मूल्य संकेतों की बहाली से न केवल लगभग 40,000 करोड़ की वार्षिक बचत संभव है बल्कि मृदा की सेहत में सुधार व कृषि उत्पादकता में वृद्धि भी सुनिश्चित की जा सकती है। यद्यपि उच्च आर्थिक विकास और नियंत्रित मुद्रास्फीति के इस दौर में कृषि सब्सिडियों को स्थिरता, दक्षता और आय सुरक्षा के अनुरूप ढालना समय की माँग है। 

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