(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: गरीबी एवं भूख से संबंधित विषय) |
संदर्भ
7 जून को मनाया जाने वाला विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस इस वर्ष ‘खाद्य सुरक्षा: क्रियाशील विज्ञान’ (Food Safety: Science in Action) थीम पर केंद्रित है। यह भारत में खाद्य सुरक्षा की प्रगति एवं चुनौतियों पर विचार करने का एक उपयुक्त अवसर है।

भारत में खाद्य सुरक्षा के बारे में
- खाद्य सुरक्षा से तात्पर्य है कि भोजन उपभोग के लिए सुरक्षित हो और इसमें हानिकारक दूषित पदार्थ, जैसे- कीटनाशक अवशेष, खाद्य योजक या प्राकृतिक विषाक्त पदार्थ न हों।
- भारत जैसे विविध एवं विशाल देश में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना एक जटिल कार्य है क्योंकि यहाँ खान-पान की आदतें व कृषि प्रथाएँ क्षेत्रीय रूप से भिन्न हैं।
- यह न केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि उपभोक्ताओं का विश्वास बनाए रखने और खाद्य व्यापार को बढ़ावा देने के लिए भी जरूरी है।
खाद्य सुरक्षा का इतिहास
- भारत में खाद्य सुरक्षा की शुरुआत वर्ष 1954 में खाद्य मिलावट निवारण अधिनियम (PFA) से हुई।
- इस कानून का उद्देश्य भोजन में मिलावट को रोकना था और यह भोजन को केवल दो श्रेणियों ‘मिलावटी’ या ‘गैर-मिलावटी’ में बांटता था।
- इसमें कीटनाशक अवशेष, खाद्य योजक या प्राकृतिक विषाक्त पदार्थों जैसे सभी दूषित पदार्थों को एक समान माना जाता था और उपभोग की मात्रा पर ध्यान नहीं दिया जाता था।
- यह दृष्टिकोण सीमित एवं पुराना था, जो आधुनिक खाद्य सुरक्षा की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाता था।
खाद्य सुरक्षा एवं मानकीकरण संबंधी कानून
- वर्ष 2006 में खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम (FSSA) लागू होने के साथ भारत में खाद्य सुरक्षा का परिदृश्य बदल गया।
- इस अधिनियम के तहत खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI) की स्थापना हुई, जो अंतर्राष्ट्रीय मानकों, विशेष रूप से कोडेक्स एलिमेंटेरियस कमीशन, पर आधारित जोखिम-आधारित दृष्टिकोण अपनाता है।
- एफ.एस.एस.ए.आई. ने कीटनाशकों के लिए अधिकतम अवशेष सीमा (MRL), खाद्य योजकों के लिए सुरक्षित स्तर और अन्य दूषित पदार्थों के लिए मानक निर्धारित किए।
- वर्ष 2020 तक भारत के खाद्य सुरक्षा मानक विकसित देशों के लगभग बराबर हो गए।
चुनौतियाँ
- भारत-विशिष्ट शोध की कमी : खाद्य सुरक्षा मानकों के लिए स्थानीय विषविज्ञान अध्ययन (टॉक्सिकोलॉजिकल स्टडीज) का अभाव है।
- कीटनाशकों की एम.आर.एल. एवं खाद्य योजकों की स्वीकार्य दैनिक मात्रा अंतर्राष्ट्रीय डाटा पर आधारित हैं जो भारतीय खान-पान की आदतों व कृषि प्रथाओं को पूरी तरह से प्रतिबिंबित नहीं करते हैं।
- कुल आहार अध्ययन (टोटल डाइट स्टडी) की कमी के कारण उपभोक्ताओं के दूषित पदार्थों के संपर्क का सटीक आकलन करना मुश्किल है।
- जोखिम संचार में कमियाँ : एम.आर.एल. एवं ए.डी.आई. जैसे तकनीकी शब्द पी.पी.एम. (पार्ट्स पर मिलियन) या पी.पी.बी. (पार्ट्स पर बिलियन) में व्यक्त किए जाते हैं, जिसे आम लोगों के लिए समझना कठिन है।
- उदाहरण के लिए, कीटनाशकों की एम.आर.एल. को 0.01 मिलीग्राम/किग्रा. से बढ़ाकर 0.1 मिलीग्राम/किग्रा. करने के निर्णय को कई लोगों ने सुरक्षा में कमी के रूप में देखा है, जिससे भ्रम पैदा हुआ।
- पुरानी नीतियाँ : मोनोसोडियम ग्लूटामेट (MSG) जैसे खाद्य योजकों का उदाहरण ले सकते हैं।
- वैश्विक वैज्ञानिक सहमति के अनुसार, एम.एस.जी. सुरक्षित है किंतु भारत में इसके लिए चेतावनी लेबल अनिवार्य है कि यह शिशुओं के लिए असुरक्षित है।
- यह लेबल उपभोक्ताओं में अनावश्यक डर पैदा करता है जबकि ग्लूटामेट टमाटर, मशरूम एवं मां के दूध में भी प्राकृतिक रूप से पाया जाता है।
- डाटा की कमी : भारत में खाद्य सुरक्षा के लिए व्यापक एवं एकीकृत डाटा का अभाव है जिसके कारण जोखिम मूल्यांकन कमजोर होता है।
सरकारी प्रयास
- एफ.एस.एस.ए.आई. की स्थापना : यह भारत में खाद्य सुरक्षा के लिए एक केंद्रीकृत एवं विज्ञान-आधारित प्रणाली लाने का महत्वपूर्ण कदम था।
- मानकों का संरेखण : एफ.एस.एस.ए.आई. ने कीटनाशकों, खाद्य योजकों एवं अन्य दूषित पदार्थों के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मानक अपनाए।
- जागरूकता अभियान : खाद्य सुरक्षा के बारे में उपभोक्ताओं को जागरूक करने के लिए विभिन्न अभियान चलाए गए, जैसे- ‘सुरक्षित भोजन, बेहतर स्वास्थ्य’।
- प्रशिक्षण एवं क्षमता निर्माण : खाद्य सुरक्षा अधिकारियों एवं जोखिम मूल्यांकनकर्ताओं के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किए गए।
- खाद्य परीक्षण प्रयोगशालाएँ : देश भर में खाद्य परीक्षण प्रयोगशालाओं का नेटवर्क स्थापित किया गया, ताकि भोजन की गुणवत्ता व सुरक्षा की जांच हो सके।
- फूड फोर्टिफिकेशन : कुपोषण से निपटने के लिए चावल, दूध एवं तेल जैसे खाद्य पदार्थों में पोषक तत्वों को जोड़ा जा रहा है।
- स्वच्छ भारत मिशन के तहत स्वच्छता : खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए स्वच्छता एवं साफ-सफाई पर जोर दिया जा रहा है।
- लेबलिंग व पैकेजिंग नियम : उपभोक्ताओं को सूचित करने के लिए खाद्य उत्पादों पर स्पष्ट व सटीक लेबलिंग अनिवार्य की गई है।
आगे की राह
- स्थानीय शोध : भारत-विशिष्ट विषविज्ञान अध्ययन और कुल आहार अध्ययन शुरू किए जाएं ताकि दूषित पदार्थों के प्रभाव को सटीक रूप से समझा जा सके।
- बेहतर जोखिम संचार : जटिल वैज्ञानिक जानकारी को सरल भाषा में उपभोक्ताओं तक पहुंचाया जाए।
- उदाहरण के लिए, एम.एस.जी. जैसे योजकों के लिए भ्रामक लेबल हटाए जाएं।
- नियमों का अद्यतन : पुराने नियमों को वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर नियमित रूप से अपडेट किया जाए।
- क्षमता निर्माण : जोखिम मूल्यांकनकर्ताओं को नवीनतम वैज्ञानिक जानकारी के साथ प्रशिक्षित किया जाए।
- सार्वजनिक विश्वास : उद्योग, उपभोक्ताओं एवं जनता के साथ पारदर्शी संवाद के माध्यम से विश्वास बनाया जाए।