(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: संघ एवं राज्यों के कार्य तथा उत्तरदायित्व, संघीय ढाँचे से संबंधित विषय व चुनौतियाँ) |
संदर्भ
सर्वोच्च न्यायालय की पाँच-न्यायाधीशों की पीठ एक राष्ट्रपति संदर्भ (Presidential Reference) पर सुनवाई कर रही है जिसमें यह सवाल उठाया गया है कि राज्यपाल एवं राष्ट्रपति को राज्य विधायिका द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समय सीमा होनी चाहिए या नहीं। इस मुद्दे ने केंद्र-राज्य संबंधों, संघवाद एवं संवैधानिक व्यवस्था की कार्यप्रणाली पर गंभीर बहस को जन्म दिया है।
क्या है राष्ट्रपति संदर्भ (Presidential Reference)
- संवैधानिक प्रावधान: अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति भारत के सर्वोच्च न्यायालय से किसी भी प्रश्न पर राय माँग सकते हैं।
- प्रकृति: यह राय सलाहकारी (Advisory) होती है किंतु इसका महत्व अत्यधिक है क्योंकि यह संवैधानिक विवादों पर स्पष्टता प्रदान करती है।
- वर्तमान मामला इस बात से जुड़ा है कि क्या राष्ट्रपति एवं राज्यपाल को विधेयकों पर निर्णय देने के लिए निश्चित समयसीमा निर्धारित की जा सकती है।
हालिया मुद्दा और पृष्ठभूमि
- अप्रैल 2025 में सर्वोच्च न्यायालय की दो-न्यायाधीशों की पीठ ने तमिलनाडु राज्यपाल द्वारा वर्षों तक विधेयक लंबित रखने पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि तीन माह से अधिक लंबित रहने पर विधेयक को ‘Deemed Assent’ (स्वतः स्वीकृत) माना जाएगा।
- इसके बाद राष्ट्रपति ने इस पर सर्वोच्च न्यायालय से राय माँगी।
- मुख्य प्रश्न : क्या राज्यपालों को अनिश्चितकाल तक विधेयकों को रोक कर रखने का अधिकार है या उन्हें तत्काल निर्णय लेना चाहिए?
राज्यों का पक्ष
- तमिलनाडु : राज्यपाल ‘गणराज्य में राजा’ नहीं हो सकते हैं। विधेयक जनता की आकांक्षाओं का प्रतीक है, जिसे रोका नहीं जा सकता है।
- पश्चिम बंगाल : संवैधानिक संस्थाओं के बीच सहयोग (Collaboration) होना चाहिए, न कि टकराव। राज्यपाल को विधायिका की संप्रभुता का सम्मान करना होगा।
- वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि विधेयक संप्रभु कृत्य (Sovereign Act) है और इसे रोका नहीं जा सकता है।
केंद्र सरकार का पक्ष
- केंद्र का तर्क है कि अनुच्छेद 200 राज्यपाल को विधेयकों पर असीमित विवेकाधिकार देता है।
- इसलिए समयसीमा बाँधना या ‘Deemed Assent’ जैसी स्थिति बनाना न्यायपालिका द्वारा संविधान में संशोधन के समान होगा, जो उसकी सीमा से बाहर है।
सर्वोच्च न्यायालय का हालिया दृष्टिकोण
- मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई: राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चितकाल तक नहीं रोक सकते हैं।
- न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा: कोई भी अंग संविधान के कार्य को बाधित नहीं कर सकता है।
- न्यायमूर्ति विक्रम नाथ: समय सीमा में बाँधने के सामान्य नियम पर संदेह जताते हुए कहा कि अलग-अलग विधेयकों की परिस्थितियाँ भिन्न होती हैं।
- न्यायालय ने यह भी माना कि यदि समयसीमा निर्धारित करनी हो तो यह संसद या संविधान संशोधन के ज़रिये होना चाहिए, न कि न्यायिक आदेश से।
राज्यपाल की शक्तियाँ
अनुच्छेद 200 के अनुसार राज्यपाल के पास निम्न विकल्प हैं–
- विधेयक पर स्वीकृति देना
- विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजना
- विधेयक को विधानसभा को पुनर्विचार के लिए लौटाना
- स्वीकृति रोकना (Withhold Assent)
हालाँकि, संविधान में यह स्पष्ट नहीं है कि राज्यपाल कितने समय तक विधेयक रोक सकते हैं। इसी अस्पष्टता ने मौजूदा विवाद को जन्म दिया है।
संघवाद पर प्रभाव
- राज्यपाल की देरी से राज्य विधायिकाओं की स्वायत्तता प्रभावित होती है।
- यह स्थिति राज्यों एवं केंद्र के बीच टकराव को बढ़ाती है।
- संवैधानिक रूप से राज्यपाल को ‘केंद्र के एजेंट’ नहीं बल्कि ‘राज्य की कार्यपालिका का हिस्सा’ होना चाहिए।
- यदि राज्यपाल राजनीतिक कारणों से विधेयक लंबित रखते हैं तो यह संघीय ढाँचे की आत्मा के विरुद्ध है।
चुनौतियाँ
- संवैधानिक अस्पष्टता : अनुच्छेद 200 में समयसीमा का प्रावधान नहीं है।
- राजनीतिक हस्तक्षेप : कई बार राज्यपाल राजनीतिक दबाव में निर्णय टालते हैं।
- न्यायपालिका की सीमा : न्यायालय सामान्य समयसीमा नहीं तय कर सकता है क्योंकि यह विधायी अधिकार है।
- संघीय असंतुलन : राज्यपालों की भूमिका को लेकर राज्यों एवं केंद्र में लगातार टकराव होता रहता है।
आगे की राह
- संविधान संशोधन : अनुच्छेद 200 में समयसीमा जोड़कर स्पष्टता लाना
- सहयोगात्मक संघवाद : राज्यपालों को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखते हुए सहयोगात्मक भूमिका निभाना
- संवैधानिक मर्यादा : राज्यपाल को ‘लोकतंत्र के वाहन’ के रूप में कार्य करना, न कि अड़चन पैदा करने वाले के रूप में
- न्यायिक मार्गदर्शन : सर्वोच्च न्यायालय को मामले-दर-मामले स्पष्ट दिशानिर्देश देना चाहिए ताकि राज्यों को न्याय मिले।
- राजनीतिक परिपक्वता : केंद्र एवं राज्यों दोनों को इस पद की गरिमा को राजनीतिक विवादों से ऊपर रखना
निष्कर्ष
यह विवाद केवल राज्यपाल की शक्तियों का नहीं, बल्कि भारतीय संघवाद की कार्यप्रणाली का परीक्षण है। विधायिका द्वारा पारित विधेयक जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है और उसे अनिश्चितकाल तक रोकना लोकतंत्र की आत्मा के विपरीत है। आवश्यकता है कि सभी संवैधानिक पदाधिकारी सहयोग एवं त्वरित निर्णय की भावना से कार्य करें ताकि संविधान की मूल भावना अक्षुण्ण रह सके।