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महाभियोग की प्रक्रिया न्यायाधीशों को पद से हटाने की संवैधानिक प्रक्रिया

  • महाभियोग भारत में उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों को उनके कदाचार (misbehaviour) या कार्य करने में अयोग्यता (incapacity) के आधार पर उनके पद से हटाने के लिए एक संवैधानिक प्रक्रिया है। 
  • यह प्रक्रिया भारतीय संविधान द्वारा निर्धारित नियमों के तहत होती है और इसके तहत संसद के किसी भी सदन में पीठासीन अधिकारी द्वारा अनुमोदित प्रस्ताव के बाद इसकी जांच की जाती है।
  • प्रस्ताव को लागू करने के लिए उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और एक प्रतिष्ठित न्यायविद की तीन सदस्यीय समिति द्वारा जाँच की जाती है।

संवैधानिक और विधिक ढाँचा: अनुच्छेद और न्यायाधीश (जाँच) अधिनियम, 1968

  • महाभियोग की प्रक्रिया भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124(4), (5), 217 और 218 के तहत और न्यायाधीश (जाँच) अधिनियम, 1968 द्वारा शासित होती है। 
  • अनुच्छेद 124(4) के अनुसार, न्यायाधीशों को पद से हटाने के लिए "सिद्ध कदाचार" या "अक्षमता" के आधार पर कार्यवाही की जाती है। 
  • प्रस्ताव को वैध बनाने के लिए संसद के दोनों सदनों में इसे एक ही सत्र में पारित किया जाना जरूरी है। 
  • इसके बाद राष्ट्रपति को न्यायाधीश को पद से हटाने का अधिकार प्राप्त होता है।
  • अनुच्छेद 124(4) – "उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को उनके पद से केवल राष्ट्रपति के आदेश द्वारा ही हटाया जा सकता है, जो संसद के प्रत्येक सदन द्वारा एक अभिभाषण के पश्चात पारित किया जाता है, जिसमें उस सदन की कुल सदस्यता का बहुमत और उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों में से कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा समर्थन प्राप्त हो, और यह केवल सिद्ध कदाचार या अक्षमता के आधार पर किया जाता है।"."
  • अनुच्छेद 217(1)(b) –उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को भी समान आधारों पर इसी प्रक्रिया से हटाया जा सकता है।

महाभियोग की प्रक्रिया: चरणबद्ध विवरण

चरण 1: प्रस्ताव की शुरुआत (Initiation of Motion)

  • महाभियोग की प्रक्रिया संसद के किसी भी सदन में शुरू की जा सकती है।
  • प्रस्ताव के लिए:
    • लोकसभा में कम से कम 100 सांसदों
    • राज्यसभा में कम से कम 50 सांसदों का समर्थन आवश्यक है।

चरण 2: स्पीकर/चेयरमैन की अनुमति

  • संसद के संबंधित सदन के स्पीकर (लोकसभा) या चेयरमैन (राज्यसभा) प्रस्ताव की स्वीकृति पर निर्णय लेते हैं।
  • यदि स्वीकार किया जाता है, तो वह प्रस्ताव जांच के लिए एक तीन सदस्यीय समिति को सौंपते हैं।

चरण 3: जांच समिति का गठन

  • समिति में होते हैं:
    • एक सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश,
    • एक हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश,
    • एक प्रतिष्ठित न्यायविद (distinguished jurist)
  • यह समिति जांच कर यह निर्धारित करती है कि आरोप सिद्ध हुए हैं या नहीं

चरण 4: संसद में मतदान

  • यदि समिति आरोपों को "प्रमाणित" (proved) मानती है, तो संसद के दोनों सदनों में यह प्रस्ताव रखा जाता है।
  • इसे दोनों सदनों में अलग-अलग पारित करना होता है:
  • सदस्य संख्या का बहुमत (majority of total membership)
  • और उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों का 2/3 बहुमत (two-thirds majority)

चरण 5: राष्ट्रपति की स्वीकृति

  • दोनों सदनों द्वारा प्रस्ताव पारित होने के बाद इसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है।
  • राष्ट्रपति आदेश द्वारा उस न्यायाधीश को पद से हटा सकते हैं

अब तक के प्रमुख उदाहरण

न्यायाधीश

वर्ष

परिणाम

जस्टिस वी. रामास्वामी

1993

आरोप साबित हुए, लेकिन लोकसभा में 2/3 बहुमत नहीं मिल पाया – हटाए नहीं जा सके

जस्टिस सौमित्र सेन (कलकत्ता हाईकोर्ट)

2011

राज्यसभा में प्रस्ताव पारित हुआ, लेकिन जज ने इस्तीफा दे दिया – महाभियोग अधूरा रहा

जस्टिस पी. डी. दिनाकरण

2011

आरोप लगने के बाद इस्तीफा दे दिया।

जस्टिस के. सी. सोमैया और अन्य

कई मामलों में जांच शुरू हुई लेकिन अधिकांश में जजों ने पूर्व में ही इस्तीफा दे दिया।

 

मामला

विवरण

निष्कर्ष

न्यायमूर्ति एस. के. गंगेले मामला (2015)

यौन उत्पीड़न के आरोपों का सामना। जाँच समिति ने उन्हें दोषमुक्त कर दिया।

यह मामला उन दुर्लभ उदाहरणों में से था, जहाँ यौन उत्पीड़न के आरोपों के कारण महाभियोग की कार्यवाही हुई।

न्यायमूर्ति सी.वी. नागार्जुन मामला (2017)

दलित न्यायाधीश को प्रताड़ित करना और वित्तीय कदाचार के आरोप। महाभियोग प्रस्ताव संसद में लाया गया, लेकिन सांसदों ने हस्ताक्षर वापस ले लिए।

महाभियोग कार्यवाही में समर्थन बनाए रखने में चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा मामला (2018)

भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश पर महाभियोग प्रस्ताव लाया गया। राजनीतिक आरोप। राज्य सभा के सभापति ने प्रस्ताव खारिज कर दिया।

इस मामले ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता और महाभियोग प्रक्रिया पर महत्वपूर्ण बहस छेड़ी।

न्यायमूर्ति पी.डी. दिनाकरन मामला

सिक्किम उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पर किसानों की 300 एकड़ से अधिक भूमि हड़पने के आरोप। त्यागपत्र देने के बाद जाँच नहीं हो सकी।

इस मामले ने न्यायाधीशों को त्यागपत्र के माध्यम से जवाबदेही से बचने की कमियों को उजागर किया।

न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव की घटना (2024)

मुस्लिम समुदाय के खिलाफ पूर्वाग्रहपूर्ण भाषण, न्यायालय परिसर में विश्व हिंदू परिषद के कार्यक्रम में भाषण दिया।

इस घटना ने उच्च न्यायपालिका के लिए जवाबदेही तंत्र पर नई बहस छेड़ी।

महाभियोग प्रक्रिया की विशेषताएँ और आलोचनाएँ

विशेषताएँ:

  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बचाए रखते हुए न्यायिक नैतिकता की रक्षा करती है।
  • यह एक कठिन और उच्च स्तरीय प्रक्रिया है जिससे अनावश्यक राजनैतिक हस्तक्षेप रोका जा सके।

आलोचनाएँ:

  • अत्यधिक राजनीतिक बहुमत की आवश्यकता के कारण प्रक्रिया लगभग निष्क्रिय हो जाती है।
  • कई बार जज जांच शुरू होते ही इस्तीफा दे देते हैं, जिससे प्रक्रिया अधूरी रह जाती है
  • संसद में राजनैतिक इच्छा के अभाव के चलते यह सिर्फ प्रतीकात्मक बन गई है
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