(प्रारम्भिक परीक्षा: समसामयिकी घटनाक्रम) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन) |
संदर्भ
26 जुलाई को विश्व मैंग्रोव दिवस के रूप में मनाया जाता है जो मैंग्रोव वनों के महत्व को उजागर करता है। कभी दलदली भूमि माने जाने वाले मैंग्रोव अब तटीय पारिस्थितिकी एवं जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में केंद्रीय भूमिका निभाते हैं। भारत में एम.एस. स्वामीनाथन जैसे वैज्ञानिकों ने मैंग्रोव संरक्षण को वैश्विक एवं राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
मैंग्रोव दिवस, 2025 के बारे में
- विश्व मैंग्रोव दिवस प्रतिवर्ष 26 जुलाई को मनाया जाता है। इसे यूनेस्को द्वारा वर्ष 2015 में मान्यता दी गई।
- यह दिन मैंग्रोव वनों के संरक्षण, उनके पारिस्थितिक महत्व और जलवायु परिवर्तन में उनकी भूमिका के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए समर्पित है।
- वर्ष 2025 में यह दिन भारत में मैंग्रोव कवर में वृद्धि और वैश्विक संरक्षण प्रयासों पर ध्यान केंद्रित करता है।
क्या हैं मैंग्रोव वन
- परिभाषा : मैंग्रोव खारे पानी में पनपने वाले विशेष वृक्ष एवं झाड़ियाँ हैं जो तटीय क्षेत्रों में नदियों और समुद्र के मिलन स्थल पर पाए जाते हैं।
- विशेषताएँ : इनकी जड़ें मृदा को स्थिर करती हैं और ये खारे पानी तथा ज्वार-भाटा में जीवित रहने के लिए अनुकूलित हैं।
- स्थान : भारत में सुंदरबन (पश्चिम बंगाल), भितरकनिका (ओडिशा) और पिचावरम (तमिलनाडु) जैसे क्षेत्रों में मैंग्रोव प्रमुख हैं।
भारत में स्थिति
- कवरेज : भारत राज्य वन रिपोर्ट (ISFR), 2023 के अनुसार भारत में मैंग्रोव कवर 4,991.68 वर्ग किमी. है जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 0.15% है।
- वृद्धि : वर्ष 2019 से 2023 तक मैंग्रोव कवर में 16.68 वर्ग किमी. की वृद्धि हुई है।
- प्रमुख क्षेत्र : सुंदरबन, अंडमान एवं निकोबार, गुजरात, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में मैंग्रोव सघन हैं।
तटीय पारिस्थितिकी और जलवायु शमन में महत्व
- तटीय संरक्षण : मैंग्रोव तूफान, सुनामी एवं कटाव से तटों की रक्षा करते हैं, जैसा कि वर्ष 1999 के ओडिशा सुपर साइक्लोन और वर्ष 2004 के हिंद महासागर सुनामी में देखा गया।
- कार्बन अवशोषण : मैंग्रोव कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर जलवायु परिवर्तन को कम करते हैं।
- जैव विविधता : ये पक्षी अभयारण्यों, मछलियों एवं अन्य समुद्री जीवों के लिए आवास प्रदान करते हैं।
- आजीविका : स्थानीय समुदायों को मछली पालन और अन्य संसाधनों से आजीविका प्राप्त होती है।
- खाद्य सुरक्षा : मैंग्रोव के जीन से लवण-सहिष्णु फसलों का विकास संभव है जो खाद्य उत्पादन को बढ़ाता है।
मैंग्रोव संवर्धन में एम.एस. स्वामीनाथन की भूमिका
- प्रस्ताव (1989) : टोक्यो में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में स्वामीनाथन ने मैंग्रोव के माध्यम से तटीय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को प्रबंधित करने का सुझाव दिया।
- संस्थान की स्थापना : वर्ष 1990 में इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर मैंग्रोव इकोसिस्टम्स (ISME) की स्थापना, जिसमें वे वर्ष 1993 तक संस्थापक अध्यक्ष रहे।
- चार्टर : वर्ष 1992 में विश्व प्रकृति चार्टर में मैंग्रोव चार्टर को शामिल किया, जो वैश्विक संरक्षण का आधार बना।
- संशोधन कार्य : एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन ने तमिलनाडु, ओडिशा, और अन्य राज्यों में "फिशबोन कैनाल" पद्धति विकसित की, जिसने मैंग्रोव पुनर्स्थापन को बढ़ावा दिया।
- जैविक अनुसंधान : मैंग्रोव जीन से नमक-सहिष्णु फसलों का विकास, जो खाद्य सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।
वैश्विक पहल
- ISME : मैंग्रोव संरक्षण पर कार्यशालाएँ, विश्व मैंग्रोव एटलस और प्रशिक्षण कार्यक्रम।
- GLOMIS : ग्लोबल मैंग्रोव डेटाबेस और सूचना प्रणाली, जो विशेषज्ञों व प्रजातियों पर डाटा संग्रह करती है।
- मैंग्रोव जेनेटिक रिसोर्स सेंटर्स : वर्ष 1992 में दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्व एशिया में 23 मैंग्रोव साइटों का सर्वेक्षण, जो अब संरक्षित क्षेत्र हैं।
- यूनेस्को और UNDP : वर्ष 1988 में मैंग्रोव अनुसंधान पर क्षेत्रीय परियोजना शुरू
चुनौतियाँ
- ऐतिहासिक क्षति : वर्ष 1783 से ब्रिटिश काल में सुंदरबन में मैंग्रोव की कटाई एवं कृषि के लिए भूमि परिवर्तन
- खराब प्रबंधन : वर्ष 1980 तक ‘क्लीयर-फेलिंग’ पद्धति ने मैंग्रोव को नुकसान पहुँचाया।
- जलवायु परिवर्तन : समुद्र स्तर में वृद्धि एवं चक्रवातों की तीव्रता से मैंग्रोव के लिए खतरा
- मानवीय दबाव : स्थानीय समुदायों द्वारा संसाधन उपयोग और शहरीकरण से मैंग्रोव क्षेत्रों पर दबाव
- जागरूकता की कमी : मैंग्रोव के पारिस्थितिक महत्व के बारे में सामान्य जागरूकता का अभाव
आगे की राह
- संरक्षण को बढ़ावा : संयुक्त मैंग्रोव प्रबंधन कार्यक्रम को सभी तटीय राज्यों में लागू करना
- जागरूकता अभियान : स्थानीय समुदायों एवं नीति-निर्माताओं के बीच मैंग्रोव के महत्व पर जागरूकता
- वैज्ञानिक अनुसंधान : लवण-सहिष्णु फसलों और मैंग्रोव पुनर्स्थापन के लिए अधिक अनुसंधान
- वैश्विक सहयोग : ISME एवं यूनेस्को जैसे संगठनों के साथ सहयोग बढ़ाकर वैश्विक संरक्षण को मजबूत करना
- नीतिगत सुधार : मैंग्रोव संरक्षण के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा अधिक निवेश व नीति-निर्माण