(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम) (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: विभिन्न संवैधानिक पदों पर नियुक्ति और विभिन्न संवैधानिक निकायों की शक्तियाँ, कार्य व उत्तरदायित्व) |
संदर्भ
भारतीय निर्वाचन आयोग और पश्चिम बंगाल सरकार के बीच हालिया विवाद के कारण एक बार फिर से यह सवाल उठ गया है कि चुनाव अधिकारियों पर नियंत्रण निर्वाचन आयोग का है या संबंधित राज्य सरकार का है।
हालिया विवाद के बारे में
- यह विवाद तब शुरू हुआ जब निर्वाचन आयोग ने पश्चिम बंगाल सरकार को चार चुनाव पंजीकरण अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने का निर्देश दिया, जिन पर दो विधानसभा क्षेत्रों में मतदाता सूची में फर्जी नाम जोड़ने और डाटा सुरक्षा नीति का उल्लंघन करने का आरोप है।
- आयोग ने इन अधिकारियों को निलंबित करने और उनके खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज करने का आदेश दिया। पश्चिम बंगाल सरकार ने इस निर्देश को मानने से इनकार कर दिया।
- राज्य के मुख्य सचिव ने आयोग को पत्र लिखकर कहा कि इन अधिकारियों ने ‘ईमानदारी एवं सक्षमता’ दिखाई है और उनके खिलाफ कार्रवाई ‘अनुपातहीन रूप से कठोर’ होगी।
- राज्य की मुख्यमंत्री ने भी कहा कि जब तक चुनाव घोषित नहीं होता है, आयोग का प्रशासनिक मशीनरी पर नियंत्रण नहीं होता है।
- इस विवाद में 8 अगस्त, 2025 को आयोग ने मुख्य सचिव को दिल्ली तलब किया और 21 अगस्त तक कार्रवाई का अंतिम समय दिया।
चुनाव अधिकारियों पर नियंत्रण: आयोग बनाम राज्य
- यह सवाल कि चुनाव ड्यूटी पर तैनात अधिकारियों पर नियंत्रण किसका है, लंबे समय से विवाद का विषय रहा है।
- निर्वाचन आयोग का दावा है कि संविधान और कानून उसे चुनाव अवधि के दौरान अधिकारियों पर पूर्ण नियंत्रण देते हैं, जबकि राज्य सरकारें, विशेष रूप से पश्चिम बंगाल का कहना है कि सामान्य समय में ये अधिकारी राज्य सरकार के अधीन हैं।
- यह तनाव संवैधानिक प्रावधानों, कानूनी ढांचे एवं ऐतिहासिक प्रथाओं के बीच टकराव को दर्शाता है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- भारत के संविधान निर्माताओं ने निर्वाचन आयोग की भूमिका और शक्तियों पर गहन विचार-विमर्श किया था।
- 15 जून, 1949 को संविधान सभा के मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने कहा कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान संरक्षण मिलना चाहिए, ताकि ‘चुनाव से संबंधित सभी मामले कार्यकारी सरकार के नियंत्रण से बाहर रहें’।
- आंबेडकर ने यह भी तर्क दिया कि आयोग के लिए एक स्वतंत्र नौकरशाही बनाना अनावश्यक व्यय होगा।
- इसके बजाय आयोग को प्रांतीय सरकारों से कर्मचारी लेने चाहिए जो डेप्यूटेशन/प्रतिनियुक्ति (Deputation) पर रहते हुए केवल आयोग के प्रति जवाबदेह हों।
- इस तरह, संविधान निर्माताओं ने एक स्वतंत्र आयोग की कल्पना की, जो बिना स्थायी कर्मचारियों के डेप्यूटेशन पर आए अधिकारियों के माध्यम से काम करे।
संविधान और कानून की स्थिति
- संविधान (अनुच्छेद 324): यह निर्वाचन आयोग को राष्ट्रीय एवं राज्य विधानसभाओं के चुनावों के लिए निरीक्षण, निर्देशन एवं नियंत्रण की शक्ति देता है।
- जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 एवं 1951 : वर्ष 1988 में इन अधिनियमों में संशोधन कर अधिकारियों पर आयोग का नियंत्रण औपचारिक रूप से स्थापित किया गया:
- 1950 अधिनियम (धारा 13सीसी): मुख्य निर्वाचन अधिकारी, जिला निर्वाचन अधिकारी एवं मतदाता सूची से संबंधित कर्मचारी डेप्यूटेशन पर आयोग के अधीन माने जाते हैं और इस दौरान आयोग के ‘नियंत्रण, निरीक्षण व अनुशासन’ के अधीन होते हैं।
- 1951 अधिनियम (धारा 28ए): रिटर्निंग ऑफिसर, पोलिंग ऑफिसर एवं चुनाव ड्यूटी पर तैनात पुलिस कर्मचारी भी अधिसूचना जारी होने से लेकर परिणाम घोषित होने तक आयोग के नियंत्रण में रहते हैं।
- 2000 समझौता : सर्वोच्च न्यायालय की मध्यस्थता में हुए इस समझौते में आयोग की अनुशासनात्मक शक्तियों को स्पष्ट किया गया। आयोग अधिकारियों को निलंबित कर सकता है, उनकी जगह अन्य को नियुक्त कर सकता है और उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश कर सकता है, जिसे सक्षम प्राधिकारी को छह महीने में लागू करना होगा। केंद्र ने राज्यों को इस ढांचे का पालन करने की सलाह दी।
पूर्व की घटनाएँ
- टी. एन. शेषन का कार्यकाल (1990-96): मुख्य निर्वाचन आयुक्त टी. एन. शेषन के समय आयोग और सरकारों के बीच तनाव चरम पर था। वर्ष 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में शेषन ने 35 लाख कर्मचारियों को आयोग के अधीन लाया। उन्होंने दावा किया कि कानून उन्हें अधिकारियों को निलंबित करने, स्थानांतरित करने और अनुशासित करने की शक्ति देता है।
- 1993 रानीपेट उपचुनाव: तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जे. जयललिता पर विपक्षी कार्यकर्ताओं को रोकने का आरोप लगा। शेषन ने केंद्र से केंद्रीय बलों की मांग की किंतु केंद्र ने इसे अस्वीकार कर दिया। इसके जवाब में शेषन ने 31 चुनाव स्थगित कर दिए और सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया। न्यायालय ने अंतरिम राहत देते हुए आयोग की शक्तियों की पुष्टि की। यह मामला 2000 में समझौते के साथ समाप्त हुआ।
- अन्य उदाहरण: कई बार राज्य सरकारों ने आयोग के निर्देशों का पालन करने में देरी की या अधिकारियों के स्पष्टीकरण को स्वीकार कर लिया, जिससे तनाव बढ़ा।
लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियां
- संघीय ढांचे में तनाव: आयोग और राज्य सरकारों के बीच टकराव भारत के संघीय ढांचे में तनाव पैदा करता है, जो केंद्र व राज्यों के बीच शक्ति संतुलन पर आधारित है।
- आयोग की स्वतंत्रता: यदि राज्य सरकारें आयोग के निर्देशों का पालन नहीं करतीं हैं, तो यह उसकी स्वायत्तता और विश्वसनीयता को कमजोर करता है।
- चुनावी निष्पक्षता: मतदाता सूची में हेरफेर जैसे मुद्दे निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनावों पर सवाल उठाते हैं, जिससे लोकतंत्र में जनता का भरोसा कम हो सकता है।
- प्रशासनिक जवाबदेही: अधिकारियों के दोहरे नियंत्रण (राज्य एवं आयोग) के कारण जवाबदेही में अस्पष्टता रहती है, जिससे अनुशासनात्मक कार्रवाई में देरी होती है।
आगे की राह
- 2000 समझौते का पालन: केंद्र और राज्यों को 2000 के समझौते का कड़ाई से पालन करना चाहिए, ताकि आयोग की अनुशासनात्मक शक्तियों पर कोई सवाल न उठे।
- कानूनी स्पष्टता: जनप्रतिनिधित्व अधिनियमों में अधिक स्पष्टता लाकर गैर-चुनावी अवधि में अधिकारियों के नियंत्रण को परिभाषित किया जा सकता है।
- संस्थागत सुधार: आयोग की स्वतंत्रता को मजबूत करने के लिए नियुक्ति प्रक्रिया और संसाधनों को अधिक पारदर्शी बनाया जाए।
- जागरूकता और प्रशिक्षण: अधिकारियों व राज्यों को आयोग की शक्तियों एवं कर्तव्यों के बारे में जागरूक करने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएं।
- न्यायिक हस्तक्षेप: यदि पश्चिम बंगाल सरकार अनुपालन नहीं करती है, तो आयोग को सर्वोच्च न्यायालय में अपील करनी चाहिए, जैसा कि उसने वर्ष 1993 में किया था।