New
GS Foundation (P+M) - Delhi : 05th Jan., 2026 Winter Sale offer UPTO 75% + 10% Off, Valid Till : 5th Dec., 2025 GS Foundation (P+M) - Prayagraj : 15th Dec., 11:00 AM Winter Sale offer UPTO 75% + 10% Off, Valid Till : 5th Dec., 2025 GS Foundation (P+M) - Delhi : 05th Jan., 2026 GS Foundation (P+M) - Prayagraj : 15th Dec., 11:00 AM

कानूनी उन्मत्तता एवं संबंधित मुद्दे

(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: न्यायिक प्रक्रिया एवं कार्य; स्वास्थ्य से संबंधित मुद्दे; मूल अधिकार)

संदर्भ

हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालय ने हत्या के एक मामले में आरोपी की आजीवन कारावास की सज़ा को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि आरोपी ने उक्त अपराध उन्मत्तता (Insanity) की अवस्था में किया था। न्यायालय ने यह निर्णय ‘उचित संदेह’ (Reasonable Doubt) के आधार पर लिया कि आरोपी अपराध के समय मानसिक रूप से अस्वस्थ था।

उन्मत्तता (Insanity) से तात्पर्य

  • यह एक मानसिक अवस्था है जिसमें व्यक्ति वास्तविकता की समझ खो बैठता है और अपने कार्यों के परिणामों को नहीं समझ पाता है।
  • इसमें व्यक्ति में निर्णय क्षमता, विवेक एवं आत्मनियंत्रण की कमी हो जाती है।

कानूनी एवं चिकित्सकीय उन्मत्तता

  • चिकित्सकीय उन्मत्तता : मेडिकल रिपोर्ट्स और मानसिक रोग विशेषज्ञों द्वारा की गई जांच पर आधारित होती है।
  • कानूनी उन्मत्तता : व्यक्ति अपराध करते समय अपने कार्य की प्रकृति या उसके परिणाम को समझने में असमर्थ था, इसका निर्धारण न्यायालय करता है।

कानूनी प्रावधान

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) में धारा 22 (IPC की धारा 84) के अंतर्गत केवल कानूनी उन्मत्तता को मान्यता प्राप्त है, न कि हर प्रकार की मानसिक बीमारी को।
  • धारा 22 में ‘पागलपन’ (Insanity) शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है बल्कि ‘चित्त-विकृति’ (Unsoundness of Mind) शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसे संहिता में परिभाषित नहीं किया गया है। यह कानूनी उन्मत्तता (Legal Insanity) है, न कि चिकित्सीय उन्मत्तता (Medical Insanity) है।

कानूनी उन्मत्त व्यक्तियों का संरक्षण

  • BNSS की धारा 22 : यदि कोई व्यक्ति मानसिक अस्वस्थता के कारण अपराध करते समय कार्य की प्रकृति या विधिक परिणाम को नहीं समझ पाता है तो वह अपराधी नहीं माना जाएगा।
  • अनुच्छेद 21 : आत्मरक्षा का अधिकार प्रदान करता है और मानसिक रोगी को उचित कानूनी प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए।
  • मानवाधिकार संरक्षण : मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्तियों के प्रति संवेदनशीलता एवं विशेष प्रक्रिया सुनिश्चित की जानी चाहिए।
  • पुनर्वास एवं मनोचिकित्सा उपचार : इसकी व्यवस्था राज्य सरकारों की जिम्मेदारी होती है।

क्या है हालिया मामला

  • आरोपी दशरथ पात्रा पर वर्ष 2018 में एक व्यक्ति की हत्या का आरोप था।
  • ट्रायल कोर्ट ने उसे मानसिक अस्वस्थता के आधार पर दोषमुक्त किया था।
  • उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को पलटते हुए आरोपी को आजीवन कारावास की सजा दी थी।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के फैसले को खारिज कर ट्रायल कोर्ट के निर्णय को बहाल किया।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय

  • न्यायालय ने कहा कि आरोपी की मानसिक जांच घटना के 5 वर्ष बाद हुई, इसलिए उसकी वैधता संदिग्ध है।
  • ‘कानूनी उन्मत्तता’ साबित करने का बोझ आरोपी पर होता है। हालाँकि, मानसिक स्थिति के बारे में ‘उचित संदेह’ पैदा करना ही पर्याप्त होता है।
  • यदि आरोपी के मानसिक हालात पर संदेह हो, तो वह बी.एन.एस.एस. की धारा 22 (आईपीसी की धारा 84) के अंतर्गत दोषमुक्त हो सकता है।
  • न्यायालय ने गवाहों एवं मेडिकल रिपोर्ट्स के आधार पर यह माना कि आरोपी अपराध के समय मानसिक असंतुलन की स्थिति में था।

इस निर्णय का प्रभाव

  • मानसिक रोग से पीड़ित आरोपियों को उचित कानूनी संरक्षण मिलेगा।
  • उच्च न्यायालयों को ट्रायल कोर्ट के निर्णयों को पलटने में अधिक विवेक बरतना होगा।
  • न्यायपालिका में उन्मत्तता प्रतिवाद (Insanity Defence) को लेकर स्पष्टता एवं मानक स्थापित होंगे।
  • ट्रायल कोर्ट के अधिकार एवं निष्कर्षों को अधिक महत्व मिलेगा जब वे उचित साक्ष्यों पर आधारित हों।

चुनौतियाँ

  • मानसिक बीमारी और कानूनी उन्मत्तता के बीच की पहचान कठिन
  • सबूतों की अनुपलब्धता या देरी से न्याय का प्रभावित होना 
  • मेडिकल प्रमाण की वैधता पर प्रश्नचिन्ह
  • पुलिस एवं अभियोजन पक्ष द्वारा प्राय: मानसिक बीमारी को नजरअंदाज करना
  • समाज में मानसिक रोगियों के प्रति कलंक एवं असंवेदनशीलता

आगे की राह

  • न्यायिक अधिकारियों और पुलिस को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मामलों में विशेष प्रशिक्षण
  • कानूनी एवं चिकित्सकीय समन्वय के लिए विशेषज्ञ समितियों की स्थापना
  • अदालतों में मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की सलाह को महत्व देना
  • मानसिक रोगियों के लिए विशेष पुनर्वास और चिकित्सा सुविधाएँ सुनिश्चित करना
  • धारा 84 के दायरे और प्रक्रियाओं को स्पष्ट करने के लिए विधायी सुधार

निष्कर्ष

सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला न केवल न्यायिक विवेक का उदाहरण है बल्कि यह मानसिक रूप से अस्वस्थ आरोपियों के अधिकारों की रक्षा की दिशा में एक संवेदनशील कदम भी है। यह फैसला दिखाता है कि भारतीय न्याय प्रणाली मानसिक स्वास्थ्य को गंभीरता से लेने लगी है और भविष्य में ऐसे मामलों में न्याय का संतुलन बना रह सके, इसके लिए कानूनी ढांचे में सुधार और संवेदनशीलता दोनों आवश्यक हैं।

« »
  • SUN
  • MON
  • TUE
  • WED
  • THU
  • FRI
  • SAT
Have any Query?

Our support team will be happy to assist you!

OR