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भारत में भाषाई धर्मनिरपेक्षता

(प्रारंभिक परीक्षा: भारतीय राजनीतिक व्यवस्था)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र 2; भारतीय संविधान- ऐतिहासिक आधार, विकास, विशेषताएँ, संशोधन, महत्त्वपूर्ण प्रावधान और बुनियादी संरचना।)

संदर्भ

वर्तमान में राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर भाषा संबंधी बहस जारी है, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने केंद्र सरकार पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से हिंदी थोपने का आरोप लगाया है। सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2014 के एक फैसले में ‘भाषाई धर्मनिरपेक्षता’ या भारत में विभिन्न भाषा बोलने वालों की वैध आकांक्षाओं को स्वीकार करने का समर्थन किया था।

भाषाई धर्मनिरपेक्षता (Linguistic Secularism) के बारे में

  • परिचय : ‘भाषाई धर्मनिरपेक्षता’ से तात्पर्य है कि राज्य किसी भी एक भाषा को दूसरी से श्रेष्ठ नहीं मानता और सभी भाषा बोलने वालों को समान अधिकार प्राप्त हैं।
    • यह धर्मनिरपेक्षता का ही एक रूप है, जो भाषाओं के मामले में भी समान अधिकार प्रदान करता है।
      • धर्मनिरपेक्षता (Secularism) का अर्थ है कि राज्य का कोई आधिकारिक धर्म नहीं है और सभी धर्मों को समान रूप से सम्मान दिया जाता है।
  • भाषाई विविधता : भारत एक भाषाई रूप से विविध देश है, और भाषाई धर्मनिरपेक्षता इस विविधता को बनाए रखने में मदद करती है। 
  • भाषाई आधार पर राज्यों का गठन : भारत में भाषाई आधार पर राज्यों का गठन भी भाषाई धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करता है। 

संविधान में उल्लेख

  • भारतीय संविधान सभी भाषाओं और भाषा बोलने वालों के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करता है।
  • प्रस्तावना : भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द शामिल है, जो भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में स्थापित करता है।
  • भाषा संबंधी प्रावधान : संविधान की 8वीं अनुसूची में 22 भाषाओं को मान्यता प्राप्त है और सभी नागरिकों को अपनी मातृभाषा में शिक्षा और अभिव्यक्ति का अधिकार है।
  • अनुच्छेद 29(1) : इसमें उल्लेख है कि “समाज के हर वर्ग को, जिसकी अपनी अलग भाषा, लिपि या संस्कृति है” उसे संरक्षित करने का मौलिक अधिकार है। 
    • सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, यह एक ऐसा अधिकार है जो बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों को प्रदान किया जाता है।
  • अनुच्छेद 343 : संविधान निर्माण के दौरान मुंशी-अयंगर फार्मूले में प्रस्तावित समझौते के परिणामस्वरूप संविधान में अनुच्छेद 343 को शामिल किया गया, जिसके तहत हिंदी को देवनागरी लिपि में संघ की आधिकारिक भाषा घोषित किया गया।
  • अनुच्छेद 351 : यह अनुच्छेद हिंदी भाषा के प्रसार को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार पर एक कर्तव्य आरोपित करता है।
    • हालाँकि, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अनुसार किसी भी नागरिक को किसी संस्थान द्वारा किसी विशेष भाषा में शिक्षा प्रदान करने के लिए मजबूर करने का कोई अधिकार नहीं दिया गया है।

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय

  • संबंधित वाद : यू.पी. हिंदी साहित्य सम्मेलन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2014)
    • निर्णय : देश में कानून और भाषा दोनों के विकास या विकास का तरीका नैसर्गिक है। भारतीय भाषा कानून कठोर नहीं बल्कि समायोजनकारी हैं, जिसका उद्देश्य भाषाई धर्मनिरपेक्षता को सुरक्षित रखना है।
  • संबंधित वाद : कर्नाटक राज्य बनाम एसोसिएटेड मैनेजमेंट ऑफ प्राइमरी एंड सेकेंडरी स्कूल्स (1996)
    • निर्णय : अनुच्छेद 19 के तहत भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वंतंत्रता के मौलिक अधिकार में प्राथमिक कक्षा के छात्र को शिक्षा की भाषा चुनने की स्वतंत्रता शामिल है। राज्य ऐसे विकल्प पर नियंत्रण नहीं लगा सकता।
      • इस मामले में न्यायालय ने वर्ष 1924 में पियर्स बनाम सोसाइटी ऑफ सिस्टर्स ऑफ होली नेम्स में अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के इस निष्कर्ष से प्रेरणा ली थी कि ‘बच्चा राज्य का मात्र प्राणी नहीं है। जो लोग उसका पालन-पोषण करते हैं और उसके भाग्य का निर्देशन करते हैं, उन्हें उसे पहचानने और अतिरिक्त दायित्वों के लिए तैयार करने का अधिकार और प्राथमिक कर्तव्य है।‘
  • विधि आयोग की रिपोर्ट : 'भारत के सर्वोच्च न्यायालय में हिंदी को अनिवार्य भाषा के रूप में पेश करने की अव्यवहार्यता' पर भारतीय विधि आयोग की 216वीं रिपोर्ट पर विधि मंत्री को लिखे एक पत्र में तत्कालीन अध्यक्ष और सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए.आर. लक्ष्मणन ने आगाह किया था कि :
    • भाषा किसी भी राष्ट्र के नागरिकों के लिए एक अत्यधिक भावनात्मक मुद्दा है।
    • इसमें एक महान एकीकृत शक्ति है और यह राष्ट्रीय एकीकरण के लिए एक शक्तिशाली साधन है।
    • किसी भी वर्ग के लोगों पर उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई भी भाषा नहीं थोपी जानी चाहिए क्योंकि इसके प्रतिकूल परिणाम होने की संभावना है।
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