| (प्रारंभिक परीक्षा: भारतीय संविधान एवं राजव्यवस्था) |
संदर्भ
दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि न्यायालय वास्तविक मालिकों को झूठे मुकदमों से बचाने के लिए ‘लिस पेंडेंस सिद्धांत’ से किसी संपत्ति को छूट (Exemption) दे सकता है।
क्या है डॉक्ट्रिन ऑफ़ लिस पेंडेंस (Doctrine of Lis Pendens)
- ‘Lis Pendens’ लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है ‘Pending Litigation’ यानी लंबित वाद।
- यह सिद्धांत ट्रान्सफर ऑफ़ प्रॉपर्टी एक्ट, 1882 की धारा 52 में वर्णित है।
- इसके अनुसार, यदि किसी अचल संपत्ति से संबंधित वाद न्यायालय में लंबित है तो उस संपत्ति का स्थानांतरण उस वाद में शामिल पक्षों के अधिकारों को प्रभावित नहीं करेगा।
- इस सिद्धांत का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि मुकदमे के दौरान संपत्ति किसी तीसरे पक्ष को हस्तांतरित न हो, जिससे मुकदमे का परिणाम निष्प्रभावी न हो जाए।
मुख्य बिंदु
- यह सिद्धांत संपत्ति के हस्तांतरण को अमान्य नहीं करता है बल्कि उसे वाद के परिणाम के अधीन बना देता है।
- जो व्यक्ति मुकदमे के दौरान संपत्ति खरीदता है वह न्यायालय के अंतिम निर्णय से बाध्य रहेगा।
- इसका मूल उद्देश्य यह है कि न्यायिक प्रक्रिया के दौरान कोई पक्ष दूसरे पक्ष के अधिकारों को प्रभावित न कर सके।
- यह सिद्धांत न्यायालय की निष्पक्षता और वाद विषय की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
लागू होने की शर्तें
- किसी वाद या प्रक्रिया का लंबित होना आवश्यक है।
- वाद अचल संपत्ति के स्वामित्व या अधिकार से संबंधित होना चाहिए।
- वाद सक्षम न्यायालय में दायर किया गया हो।
- वाद के दौरान संपत्ति का हस्तांतरण किसी पक्ष द्वारा किया गया हो।
- वाद मिलीभगत (Collusion) या धोखाधड़ी से प्रेरित न हो।
लागू न होने की स्थितियाँ
- जब बंधककर्ता (Mortgagor) अपने अधिकारों के तहत बिक्री करता है।
- जब केवल विक्रेता ही प्रभावित होता है, अन्य पक्ष नहीं।
- जब वाद मिलीभगत या धोखाधड़ीपूर्ण हो।
- जब संपत्ति का विवरण अस्पष्ट हो और उसकी पहचान न हो सके।
- जब वाद में संपत्ति का स्वामित्व या अधिकार प्रत्यक्ष रूप से प्रश्न में न हो।
निष्कर्ष
लिस पेंडेंस सिद्धांत न्यायिक प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो सुनिश्चित करता है कि मुकदमे की प्रक्रिया के दौरान संपत्ति के हस्तांतरण से न्याय के परिणाम पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।