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मुंबई ट्रेन विस्फोट केस 2006: कानूनी पहलू एवं न्यायिक प्रक्रिया का विश्लेषण

(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र -2 व 3: न्यायपालिका, शासन व्यवस्था, पारदर्शिता और जवाबदेही के महत्त्वपूर्ण पक्ष; आंतरिक सुरक्षा के लिये चुनौती उत्पन्न करने वाले शासन विरोधी तत्त्व)

संदर्भ

21 जुलाई, 2025 को बॉम्बे उच्च न्यायालय ने वर्ष 2015 में मुंबई ट्रेन विस्फोट (2006) मामले में विशेष अदालत द्वारा दोषी ठहराए गए सभी 12 आरोपियों को बरी कर दिया है। महाराष्ट्र सरकार ने इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने का फैसला किया है।

क्या है मुंबई ट्रेन विस्फोट मामला

  • घटना : 11 जुलाई, 2006 को मुंबई की वेस्टर्न रेलवे की सात लोकल ट्रेनों में शाम में 11 मिनट के भीतर सात बम विस्फोट हुए।
  • स्थान : माटुंगा रोड, माहिम जंक्शन, बांद्रा, खार, जोगेश्वरी, भायंदर एवं बोरीवली स्टेशनों के पास
  • विवरण :
    • बम प्रेशर कुकर में रखे गए थे और बैग में पैक किए गए थे, जो ज्यादातर प्रथम श्रेणी (फर्स्ट क्लास) डिब्बों में रखे गए थे।
    • यह हमला मुंबई के वित्तीय जिले (बांद्रा कुर्ला कॉम्प्लेक्स) से घर लौट रहे यात्रियों को निशाना बनाकर किया गया था।
  • प्रभाव : 187 लोगों की मृत्यु और 800 से अधिक घायल
  • आरोप : भारतीय सुरक्षा एजेंसियों ने इस हमले के लिए पाकिस्तान समर्थित इस्लामी आतंकवादियों को जिम्मेदार ठहराया।

मामले की पृष्ठभूमि

  • जाँच : महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधी दस्ते (ATS) द्वारा
  • विशेष अदालत का फैसला (2015)
    • सितंबर 2015 में विशेष MCOCA (महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम) अदालत ने 12 आरोपियों को दोषी ठहराया।
    • इनमें पांच को मृत्युदंड और सात को आजीवन कारावास की सजा दी गई। 
    • एक आरोपी को नौ साल जेल में रहने के बाद बरी कर दिया गया।
  • अपील : वर्ष 2015 में महाराष्ट्र सरकार ने पांच दोषियों के मृत्युदंड की पुष्टि के लिए और दोषियों ने अपनी सजा को चुनौती देने के लिए बॉम्बे उच्च न्यायालय में अपील दायर की।

हालिया बॉम्बे उच्च न्यायालय का फैसला 

  • निर्णय: (21जुलाई 2025)
    • बॉम्बे उच्च न्यायालय की विशेष पीठ ने वर्ष 2015 के विशेष MCOCA अदालत के फैसले को रद्द कर दिया सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया।
  • निर्णय के मुख्य आधार:
    • अभियोजन पक्ष ‘पूरी तरह विफल’ रहा और यह ‘विश्वास करना कठिन’ था कि आरोपियों ने अपराध किया।
    • साक्ष्य अपर्याप्त थे, गवाहों की विश्वसनीयता संदिग्ध थी और बम के प्रकार को भी स्थापित नहीं किया गया।
    • कथित बयानों को यातना के माध्यम से दर्ज़ किया गया था।
    • बरामद साक्ष्य (विस्फोटक एवं सर्किट बॉक्स) को ठीक से सील नहीं किया गया था, जिससे उनकी प्रामाणिकता पर सवाल उठे।
  • आदेश : सभी आरोपियों की तत्काल रिहाई का निर्देश, यदि वे किसी अन्य मामले में वांछित न हो।

इस निर्णय के प्रभाव

  • सामाजिक प्रभाव
    • पीड़ितों के परिवारों में निराशा और आक्रोश
    • असली अपराधी के पहचान की समस्या 
    • जनता में जांच एजेंसियों और न्यायिक प्रक्रिया पर विश्वास में कमी 
  • कानूनी प्रभाव
    • यह फैसला आतंकवाद से संबंधित मामलों में साक्ष्य की गुणवत्ता और जांच की विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है।
    • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा कि ‘केस सुलझाने का झूठा दिखावा’ समाज को गलत आश्वासन देता है जबकि असली खतरा बरकरार रहता है।
    • यह फैसला उन लोगों के लिए ‘आशा की किरण’ है जो गलत तरीके से जेल में बंद हैं।

न्याय में देरी या न्याय की हत्या

  • न्याय में देरी
    • इस मामले में 19 वर्ष तक सुनवाई चली, जिसमें दोषियों ने 18-19 साल जेल में बिताए।
    • अपीलों की सुनवाई में कई बार देरी हुई क्योंकि न्यायाधीश सेवानिवृत्ति हो गए या पीठ बदल गईं।
    • जुलाई 2024 में विशेष पीठ का गठन हुआ, जिसने 6 माह में 75 से अधिक सुनवाई पूरी की।
  • न्याय की हत्या
    • पीड़ितों के परिवारों का मानना है कि इतने साल बाद बरी होने से असली अपराधी बच गए और उन्हें न्याय नहीं मिला।
    • बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले ने जांच एजेंसियों की नाकामी को उजागर किया, जिससे सवाल उठता है कि क्या असली अपराधियों को पकड़ा गया था।
    • यह फैसला उन लोगों के लिए न्याय हो सकता है जो गलत तरीके से जेल में थे किंतु पीड़ितों के लिए यह ‘न्याय की हत्या’ जैसा लगता है।

इस मामले में चुनौतियाँ

  • जांच स्तर पर
    • साक्ष्य की कमी : ATS यह साबित नहीं कर पाई कि विस्फोट में किस प्रकार के बम का उपयोग हुआ।
    • यातना के आरोप : आरोपियों ने दावा किया कि उनके बयान यातना के जरिए लिए गए, जिसे उच्च न्यायालय ने स्वीकार किया।
    • गवाहों की विश्वसनीयता : कई गवाहों ने चार साल बाद आरोपियों की पहचान की, जो ‘असामान्य’ था।
    • साक्ष्य प्रबंधन : बरामद विस्फोटक और सर्किट बॉक्स को ठीक से सील नहीं किया गया, जिससे उनकी प्रामाणिकता पर सवाल उठे।
  • अदालती कार्यवाही में
    • अत्यधिक देरी : न्यायाधीशों के सेवानिवृत्ति होने और केस की जटिलता (169 खंडों में साक्ष्य) से वर्ष 2015 से 2025 तक अपीलों की सुनवाई में देरी 
    • कई पीठों का बदलना : जस्टिस नरेश पाटिल, बी.पी. धर्माधिकारी और अन्य की पीठें बदलीं।
  • फैसले के स्तर पर
    • अभियोजन पक्ष की विफलता : साक्ष्य एवं गवाहों की कमी ने विशेष अदालत के फैसले को कमजोर कर दिया।
    • जटिल कानूनी प्रक्रिया : MCOCA, UAPA एवं IPC के तहत सजा को साबित करने के लिए मजबूत साक्ष्य की जरूरत थी, जिसका अभाव था।

आगे की राह

  • सर्वोच्च न्यायालय की सुनवाई : उच्च न्यायालय के फैसले की गहन समीक्षा कर यह सुनिश्चित करना होगा कि पीड़ितों को न्याय मिले और गलत लोगों को सजा न हो।
  • जांच में सुधार : आतंकवाद से संबंधित मामलों में वैज्ञानिक और पारदर्शी जांच के लिए ATS एवं अन्य एजेंसियों को प्रशिक्षण व संसाधन प्रदान किए जाएँ।
  • न्यायिक प्रक्रिया में तेजी : आतंकवाद जैसे गंभीर मामलों में सुनवाई को तेज करने के लिए विशेष पीठों का गठन और समयबद्ध सुनवाई।
  • जांच अधिकारियों की जवाबदेही : गलत जांच या यातना के आरोपों की स्वतंत्र जांच हो और दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई हो।
  • जनता में विश्वास बहाली : सरकार एवं न्यायपालिका को पारदर्शी और निष्पक्ष प्रक्रिया के जरिए जनता का भरोसा जीतना होगा।

निष्कर्ष

मुंबई ट्रेन विस्फोट 2006 का मामला भारत की आतंकवाद विरोधी जांच और न्यायिक प्रक्रिया की कमियों को उजागर करता है। बॉम्बे उच्च न्यायालय का सभी 12 आरोपियों को बरी करने का फैसला एक ओर गलत सजा से बचाव का प्रतीक है किंतु दूसरी ओर पीड़ितों के लिए न्याय की कमी को दर्शाता है। सर्वोच्च न्यायालय में अपील इस मामले को नया मोड़ दे सकती है। भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने और सटीक न्याय सुनिश्चित करने के लिए जांच और न्यायिक प्रक्रियाओं में सुधार जरूरी है।

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