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पिपरहवा बौद्ध रत्न: 127 वर्षों बाद भारत में प्रत्यावर्तन

(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 1: भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से आधुनिक काल तक के कला के रूप, साहित्य और वास्तुकला के मुख्य पहलू)

संदर्भ

बुद्ध के पवित्र पिपरहवा अवशेषों के कुछ आभूषण को 30 जुलाई को भारत को सौंप दिया गया। इन अवशेषों को हाल ही में हांगकांग के सोथबी में नीलामी के लिए रखा गया था। औपनिवेशिक शासन के दौरान इन्हें 127 वर्ष पहले भारत से ले जाया गया था।

पिपरहवा बौद्ध रत्न के बारे में

  • क्या हैं : ये 349 रत्न (जैसे- नीलम, मूंगा, गार्नेट, मोती एवं सोने के आभूषण) हैं, जो तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में उत्तर प्रदेश के पिपरहवा में एक बौद्ध स्तूप में भगवान बुद्ध के अवशेषों (अस्थि अवशेष, राख) के साथ दफनाए गए थे।
  • खोज : वर्ष 1898 में ब्रिटिश सिविल इंजीनियर विलियम क्लैक्सटन पेप्पे ने पिपरहवा (सिद्धार्थनगर जिला, उत्तर प्रदेश) में एक प्राचीन स्तूप के उत्खनन के दौरान इन रत्नों को खोजा था। ये रत्न सोपस्टोन, क्रिस्टल कैन्स और एक बलुआ पत्थर के ताबूत में मिले।
  • मूल्य : इन रत्नों का अनुमानित मूल्य 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक है जो इन्हें पुरातात्विक एवं धार्मिक दृष्टिकोण से अत्यंत मूल्यवान बनाता है।
  • धार्मिक महत्व : बौद्ध मान्यताओं के अनुसार, ये रत्न भगवान बुद्ध की उपस्थिति से युक्त हैं और इन्हें उनके शारीरिक अवशेषों के समान पवित्र माना जाता है।
  • वर्तमान स्थिति : गोदरेज इंडस्ट्रीज ग्रुप के पिरोजशा गोदरेज ने इन रत्नों को खरीदकर भारत को प्रत्यावर्तित किया। ये रत्न पांच वर्षों के लिए राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली में ऋण पर और तीन महीने के लिए सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए रखे जाएंगे।

इतिहास

  • खोज का समय एवं स्थान : 1898 में विलियम क्लैक्सटन पेप्पे ने पिपरहवा में एक प्राचीन बौद्ध स्तूप का उत्खनन किया, जो कपिलवस्तु (शाक्य गणराज्य की राजधानी) के निकट माना जाता है। इस उत्खनन में 1800 से अधिक रत्न, अस्थि अवशेष और पांच रेलिक्वेरी (पवित्र अवशेष डिब्बे) मिले।
  • औपनिवेशिक हस्तक्षेप : ब्रिटिश क्राउन ने वर्ष 1878 के भारतीय खजाना अधिनियम के तहत इन अवशेषों पर दावा किया। अधिकांश रत्न (लगभग 80%) कोलकाता के भारतीय संग्रहालय में भेजे गए, जबकि पेप्पे को ‘डुप्लिकेट’ रत्न (लगभग 20%) रखने की अनुमति दी गई।
  • वितरण : अस्थि अवशेष एवं राख सियाम (वर्तमान थाईलैंड) के बौद्ध राजा चुलालोंगकॉर्न को भेंट किए गए। कुछ रत्न पेप्पे के परिवार के पास रहे, जो उनके वंशज क्रिस पेप्पे और उनके चचेरे भाइयों तक 2013 में पहुंचे।
  • प्रदर्शन : पिछले छह वर्षों में ये रत्न न्यूयॉर्क के मेट्रोपॉलिटन म्यूजियम ऑफ आर्ट, सिंगापुर के एशियन सिविलाइजेशंस म्यूजियम और सियोल के नेशनल म्यूजियम ऑफ कोरिया जैसे स्थानों पर प्रदर्शित किए गए।
  • नीलामी विवाद : वर्ष 2025 में क्रिस पेप्पे ने इन रत्नों को सोथबीज (हांगकांग) में नीलामी के लिए रखा, जिसे भारत सरकार और बौद्ध समुदाय ने अनैतिक एवं औपनिवेशिक शोषण का हिस्सा माना।

बौद्ध धर्म में पिपरहवा का महत्व

  • कपिलवस्तु से संबंध : पिपरहवा को प्राचीन कपिलवस्तु, शाक्य गणराज्य की राजधानी, से जोड़ा जाता है जहाँ सिद्धार्थ गौतम (बुद्ध) ने अपने जीवन के पहले 29 वर्ष व्यतीत किए। एक रेलिक्वेरी पर ब्राह्मी लिपि में लेख इसकी पुष्टि करता है कि ये अवशेष शाक्य कबीले द्वारा बुद्ध के सम्मान में दफनाए गए थे।
  • धार्मिक मूल्य : बौद्ध धर्म में ये रत्न एवं अवशेष भगवान बुद्ध के शारीरिक अवशेषों के समान पवित्र हैं। इन्हें स्तूपों में दफनाया गया था ताकि बौद्ध अनुयायी इनकी पूजा कर सकें।
  • वैश्विक बौद्ध समुदाय : विश्व के 50 करोड़ से अधिक बौद्धों के लिए ये रत्न शांति, करुणा एवं बुद्ध की शिक्षाओं का प्रतीक हैं। इनका प्रत्यावर्तन भारत को बौद्ध धर्म के जन्मस्थान के रूप में पुनः स्थापित करता है।
  • पुरातात्विक महत्व : पिपरहवा की खोज को पुरातत्व की सबसे महत्वपूर्ण खोजों में से एक माना जाता है क्योंकि यह बुद्ध के जीवन और शाक्य कबीले के इतिहास से सीधा संबंध रखता है।
  • सांस्कृतिक कूटनीति : इन रत्नों का प्रत्यावर्तन भारत की बौद्ध विरासत को बढ़ावा देने और चीन जैसे देशों के साथ सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धा में भारत की स्थिति को मज़बूत करने का एक कदम है।
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