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विश्व धरोहर स्थलों का संरक्षण और आदिवासी एवं देशज लोगों के अधिकार

(प्रारंभिक परीक्षा : राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की सामयिक घटनाएँ; मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र : 2 - अति संवेदनशील वर्गों की रक्षा एवं बेहतरी के लिये गठित तंत्र, विधि, संस्थान एवं निकाय) 

संदर्भ

यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व धरोहर स्थलों (प्राकृतिक) तथा जैव विविधता के संरक्षण के लिये किये जा रहे उपायों से पश्चिमी घाट में निवास करने वाले आदिवासियों तथा वहाँ के देशज लोगों के अधिकार प्रभावित हो रहे हैं। साथ ही, उन्हें उनके प्राकृतिक आवासों से भी दूर किया जा रहा है, जो कि वन अधिकार अधिनियम, 2006 के अंतर्गत उनको प्राप्त वन अधिकारों का उल्लंघन है।

पृष्ठभूमि

  • वर्ष 2012 में पश्चिमी घाट के 39 ऐसे क्षेत्र जिनमें राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव अभयारण्य तथा आरक्षित वन शामिल हैं, यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत स्थल घोषित किये गए थे।
  • ये सभी प्राकृतिक स्थल जैव विविधता की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इन घोषित विश्व विरासत स्थलों में से 10 स्थल कर्नाटक में हैं।

आदिवासियों तथा देशज लोगों की चिंताएँ

  • पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा इन विरासत स्थलों को पहचानने की प्रक्रिया शुरू होने से पश्चिमी घाट के आदिवासी तथा देशज लोग चिंतित हैं।
  • दशकों से इस क्षेत्र में बसे हुये इन देशज लोग को अपने भूमि संबंधी अधिकारों के समाप्त होने की आशंका है।
  • इन क्षेत्रों को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील घोषित किया गया है, जिससे इनमें चयनित गतिविधियाँ प्रतिबंधित होती हैं, जिस कारण ये आदिवासी तथा देशज लोग और भी असंतुष्ट हैं।
  • वन अधिकार अधिनियम, 2006 के लागू होने तथा वर्ष 2007 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्थानीय निवासियों के अधिकारों की घोषणा के पश्चात पश्चिमी घाट में रहने वाले इन आदिवासी तथा देशज लोगों का विश्व धरोहर स्थलों की घोषणा के उपरांत अपने भविष्य के प्रति अनिश्चितता का सामना करना अवश्य ही चिंताजनक है।

पश्चिमी घाट में निवास करने वाली जनसंख्या की संरचना

  • कर्नाटक की कुल जनसंख्या का 6.95% भाग आदिवासी जनसंख्या का है। इस जनसंख्या में विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों (PVTGs) सहित पश्चिमी घाट के देशज लोगों का हिस्सा 44.2% है।
  • पश्चिमी घाट में गुवालिस, कुनबीस, हलाक्की वक्कला, कारे वक्कला, कुंबी और कुलवाड़ी मराठी जैसे समुदायों बड़ी संख्या में निवास करते हैं।
  • वन अधिकार अधिनियम, 2006 के अंतर्गत वे ‘अन्य परंपरागत वन निवासी’ के रूप में रह रहे हैं। इस अधिनियम के अनुसार उन लोगों को ‘अन्य परंपरागत वन निवासी’ माना गया था जो पिछली तीन पीढ़ियों अर्थात् पिछले 75 वर्षों से इन वनों में रह रहे हैं और जीविकापार्जन के लिये वन भूमि का उपयोग करते हों।
  • ये लघु वनोत्पाद, जैसे- दालचीनी, कोकम आदि को एकत्रित करके अपनी जीविका का निर्वाह करते हैं।

कर्नाटक में वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन की स्थिति

  • कर्नाटक ‘वन अधिकार अधिनियम’ को लागू करने में अन्य राज्यों की तुलना में असफल रहा है।
  • जनजातीय मामलों के मंत्रालय के अनुसार, 30 अप्रैल 2018 तक राज्य ने वन अधिकार हेतु प्रस्तुत किये गए कुल दावों में से केवल 7% को ही मान्यता दी थी और राज्य का दावा था कि उसने 70% मामलों का निपटान कर दिया है।
  • साथ ही, आदिवासियों द्वारा किये गए दावों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों द्वारा किए गए दावों को निपटाने में सरकार के दृष्टिकोण में स्पष्ट असंगति दृष्टिगोचर होती है।
  • आँकड़ों के अनुसार, कुल प्रस्तुत दावों में 5% दावे आदिवासियों द्वारा किये गए थे जिनमे से लगभग सभी का निपटान कर दिया गया, जबकि अन्य दावों को वैध साक्ष्य के अभाव में खारिज कर दिया गया। इसका आशय यह है कि अन्य पारंपरिक वन निवासियों द्वारा प्रस्तुत दावों को असंगत माना गया।

वास्तविक परिदृश्य

  • इस पूरे मुद्दे के संदर्भ में यह विचार सही नहीं है कि आदिवासियों या अन्य पारंपरिक वन निवासियों को वन अधिकारों से वंचित करना संरक्षण का उद्देश्य है।
  • कानून के अनुसार, संरक्षण के लिये केवल उन भूमियों को मान्यता दी जाती है जहाँ लोग 13 दिसंबर 2005 की तुलना में, बाद के समय में अपना दावा सिद्ध नहीं करते हैं।
  • इसके अतिरिक्त, पारंपरिक वन निवासियों द्वारा दावा की गई भूमि का संयुक्त विस्तार तुलनात्मक रूप से उस भूमि से कम है जो बाँध-निर्माण, खनन, विद्युत संयंत्रों और रेलवे लाइनों एवं सड़कों के निर्माण हेतु प्रयुक्त हुई है।
  • सरकार के आँकड़ो के अनुसार वन संरक्षण अधिनियम लागू होने से पूर्व ही वर्ष 1980 तक 43 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र पर कानूनी एवं अवैध रूप से अतिक्रमण कर लिया गया था।
  • हालाँकि वन संरक्षण अधिनियम लागू होने के बाद भी वन संरक्षण की दिशा में विशेष परिवर्तन नहीं आया है।
  • जैव विविधता के संरक्षण के लिये देशज लोगों को अपने प्राकृतिक आवास से अलग करने संबंधी अपनाया गया दृष्टिकोण उनके और संरक्षणवादियों के मध्य संघर्ष का मूल कारण है।
  • इस दृष्टिकोण से संसाधनों के संरक्षण और प्रबंधन का विचार पूरी तरह से विफल सिद्ध हो चुका है।
  • ग्लोबल एन्वायरनमेंट आउटलुक रिपोर्ट में भी यह उल्लेख किया गया है कि विश्वभर में संरक्षित क्षेत्र का तो विस्तार हो रहा है परंतु जैव विविधता का ह्रास हुआ है।
  • इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि अन्य उपायों की तुलना में आदिवासी समूह या अन्य पारंपरिक वन निवासी प्रकृति के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

आगे की राह

  • पश्चिमी घाट को विश्व धरोहर स्थल के रूप में घोषित करना इस क्षेत्र की समृद्ध जैव विविधता को संरक्षित करने के लिये उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि वनों पर निर्भर लोगों के अधिकारों को मान्यता देना।
  • इसके लिये यह आवश्यक है कि जैव विविधता के संरक्षण के लिये इस प्रकार के उपाय किये जाएँ जो वन निवासियों के अधिकारों का भी हनन न करें।
  • अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इस बात की पुष्टि की गई है कि जैव विविधता को संरक्षित करने के लिये उन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को कानूनी रूप से सशक्त होना चाहिये।
  • वन अधिकार अधिनियम इस उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिये एक आदर्श साधन है। इसे धरातल पर साकार रूप देने के लिये सरकार को चाहिये कि वह क्षेत्र में अपनी एजेंसियों और वनों पर निर्भर लोगों के बीच विश्वास कायम करने के प्रयास करे।
  • यह विश्वास कायम करने के लिये आवश्यक है कि उन्हें भी देश के बाकी सभी नागरिकों के समान समझा जाए। 

प्रिलिम फैक्ट्स 

अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता)  अधिनियम, 2006

  • आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत वन निवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय से  मुक्ति दिलाने और वनों पर उनके अधिकारों को मान्यता देने के लिये संसद ने दिसंबर, 2006 में ‘अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून’ पास किया था। इसे 1 जनवरी 2008 को लागू कर दिया गया।
  • इस कानून के अनुसार 13 दिसंबर, 2005 से पूर्व वन भूमि पर रहने वाले अनुसूचित जनजाति के सभी समुदायों को वनों में रहने और आजीविका का अधिकार प्रदान किया गया है।
  • वहीं कानून की धारा 2 के अनुसार अन्य परंपरागत वन निवासियों  को अधिकार प्राप्त करने के लिये (जो उक्त अवधि से पहले वन क्षेत्र में रह रहे हों) तीन पीढ़ियों (एक पीढ़ी के लिए 25 साल) से वहाँ रहने के साक्ष्य प्रस्तुत करने के होंगे।
  • वन अधिकारों की मान्यता प्रदान करने की प्रक्रिया के अंतर्गत शुरू में ग्राम सभा द्वारा इस संदर्भ में एक प्रस्ताव पारित किया जाता है कि किसके अधिकारों की और किन संसाधनों पर मान्यता प्रदान करनी है।
  • यह प्रस्ताव बाद में तालुका स्तर पर और तत्पश्चात ज़िला स्तर पर जाँचा और अनुमोदित किया जाता है।
  • जाँच समितियों में तीन सरकारी अधिकारी (वन, राजस्व तथा जनजाति कल्याण विभाग का अधिकारी) और उस स्तर पर जनजातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले स्थानीय निकाय के तीन निर्वाचित सदस्य शामिल होते हैं। यह समितियाँ अपील की सुनवाई भी करती हैं।

 

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