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भारत में बाल देखभाल कर्मियों की भूमिका

(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधनों से संबंधित सामाजिक क्षेत्र/सेवाओं के विकास और प्रबंधन से संबंधित विषय)

संदर्भ

संयुक्त राष्ट्र ने 29 अक्तूबर को प्रतिवर्ष ‘अंतर्राष्ट्रीय देखभाल एवं सहायता दिवस’ घोषित किया है। इसका उद्देश्य यह बताना है कि देखभाल का काम (खासकर बच्चों, बुजुर्गों व दिव्यांगों की देखभाल) समाज के लिए कितना जरूरी है। भारत में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और सहायिकाएँ लाखों बच्चों की देखभाल करती हैं, पर उन्हें वेतन, सम्मान व सुविधाएँ कम मिलती हैं।

बाल देखभाल कार्यकर्ता (Childcare Worker) के बारे में

  • ये वे बहनें-आंटियाँ हैं जो आंगनवाड़ी, क्रेच या बालवाड़ी में छोटे बच्चों (0-6 वर्ष) की देखभाल करती हैं। 
  • वे बच्चों को खेल-खेल में सिखाती हैं, पौष्टिक भोजन देती हैं, टीका लगवाती हैं, स्वास्थ्य जांच करती हैं और मां-बाप को पालन-पोषण की सलाह देती हैं। 
  • ये केवल ‘देखभाल करने वाली’ नहीं है बल्कि बच्चे के शुरुआती विकास की वास्तविक शिक्षक हैं। 
  • भारत में करीब 24 लाख आंगनवाड़ी कार्यकर्ता एवं सहायिकाएँ हैं जो 1.4 मिलियन आंगनवाड़ी केंद्रों में कार्यरत हैं।

वेतन की स्थिति

  • अधिकतर राज्यों में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को 8,000 से 15,000 रुपए प्रतिमाह मिलता है जो एक अकुशल मजदूर के न्यूनतम वेतन के बराबर या उससे भी कम है। 
  • सहायिकाओं को इससे भी कम (4,000-8,000 रुपए) मिलता है। 
  • यह वेतन इतना कम है कि वे अपना घर भी मुश्किल से चला पाती हैं। न तो नियमित सरकारी कर्मचारी का दर्जा है, न पेंशन, न पदोन्नति की कोई सीढ़ी।

काम करने की स्थितियाँ

  • कई आंगनवाड़ी केंद्रों में जगह कम है और छत टपकती है तथा शौचालय नहीं है।
  • एक कार्यकर्ता को 100-150 बच्चों की जिम्मेदारी होती है।
  • छुट्टी लेने पर भी वेतन कट जाता है।
  • प्रशिक्षण बहुत कम मिलता है।
  • कोरोना काल में भी ये बहनें घर-घर जाकर काम करती रहीं, पर कोई अतिरिक्त सुविधा नहीं मिली।
  • जलवायु परिवर्तन (बाढ़-सूखा) के कारण गरीब परिवारों के बच्चों को और ज्यादा देखभाल चाहिए, पर सुविधाएँ नहीं बढ़ीं।

वैश्विक पहल

  • संयुक्त राष्ट्र ने 29 अक्तूबर को प्रतिवर्ष ‘अंतर्राष्ट्रीय देखभाल एवं सहायता दिवस’ घोषित करके वैश्विक स्तर पर देखभाल के कार्य को मान्यता दी है।
  • स्कैंडिनेविया देश (स्वीडन, नॉर्वे, डेनमार्क) में देखभाल कार्यकर्ताओं को अच्छा वेतन, प्रशिक्षण व सम्मान मिलता है। वहाँ जी.डी.पी. का 1-1.5% केवल बच्चों की देखभाल पर व्यय होता है।
  • वहाँ हर बच्चे को जन्म से ही अच्छी क्रेच सुविधा मिलती है।
  • मोबाइल क्रेचेस और फोर्सेस जैसे संगठन भारत में भी कार्यकर्ताओं को सम्मानित कर रहे हैं। (2025 में दिल्ली में इंडिया चाइल्डकेयर चैंपियन अवार्ड दिए गए)

भारत सरकार के प्रयास

  • वर्ष 1975 में शुरू हुई एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS) दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम है। पालना योजना के तहत क्रेच खोलने की सुविधा है।
  • पोषण 2.0 में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को स्मार्टफोन और बेहतर ट्रेनिंग।
  • कुछ राज्य (केरल, तमिलनाडु) में वेतन थोड़ा अधिक और नियमित कर्मचारी का दर्जा देने की कोशिश हो रही है।
  • नीति आयोग और महिला-बाल विकास मंत्रालय अब देखभाल अर्थव्यवस्था पर ध्यान दे रहे हैं।

चुनौतियाँ

  • बहुत कम व अनियमित वेतन
  • 0-3 वर्ष के बच्चों के लिए क्रेच की संख्या का बहुत कम (पालना योजना के 10,000 क्रेच में से केवल 2,500 खुले) होना 
  • शहरों में केवल 10% आंगनवाड़ी केंद्र, जबकि प्रवासी मजदूरों के बच्चे सर्वाधिक जरूरतमंद
  • प्रशिक्षण की कमी और कार्यकर्ताओं को शिक्षक नहीं, केवल ‘देखभाल करने वाली’ माना जाना
  • जलवायु परिवर्तन और प्रवास के कारण मां-बाप दोनों का काम पर जाने से बच्चों की देखभाल का प्रश्न
  • देखभाल कार्य को अभी भी जी.डी.पी. न में गिना जाना (अनुमानत: 15-17% जी.डी.पी. के बराबर)

आगे की राह

  • आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को सरकारी कर्मचारी का दर्जा और न्यूनतम 26,000 रुपए वेतन
  • जी.डी.पी. का कम-से-कम 1% बच्चों की देखभाल पर खर्च करना
  • हर मोहल्ले-गांव में अच्छी क्रेच सुविधा, विशेषकर शहरों व निर्माण स्थलों पर मोबाइल क्रेच
  • कर्मियों के लिए नियमित प्रशिक्षण और करियर में तरक्की की व्यवस्था
  • 0-3 वर्ष के बच्चों के लिए अलग से क्रेच योजना को तेजी से लागू करना 
  • देखभाल के काम को जी.डी.पी. में शामिल करना और महिलाओं-पुरुषों में बराबर विभाजन की नीति बनाना 
  • कार्यकर्ताओं की आवाज सुनने के लिए यूनियन एवं संगठन को मजबूत करना
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