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प्रदूषित भूजल: एक दीर्घकालिक मौन संकट

(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधनों से संबंधित सामाजिक क्षेत्र/सेवाओं के विकास और प्रबंधन से संबंधित विषय)

संदर्भ

भारत में भू-जल न केवल पीने के पानी का सबसे बड़ा स्रोत है बल्कि कृषि सिंचाई की रीढ़ भी है। हालाँकि, भूजल प्रदूषण एक मौन आपदा बनकर उभर रहा है। हालिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि देश के कई जिलों में भूजल में यूरेनियम, फ्लोराइड, नाइट्रेट व आर्सेनिक जैसे विषैले तत्व अनुमेय सीमा से कई गुना अधिक पाए जाते हैं।

हालिया रिपोर्ट के बारे में

  • भूजल गुणवत्ता वार्षिकी रिपोर्ट 2024 के अनुसार, देश के 440 जिलों में से लगभग 20% नमूने सुरक्षित सीमा से अधिक प्रदूषित पाए गए। 
  • पंजाब में तो एक-तिहाई नमूनों में यूरेनियम की मात्रा अत्यधिक पाई गई। भूजल पर निर्भर 60 करोड़ लोगों के लिए यह स्थिति एक राष्ट्रीय संकट का संकेत है।
  • विश्व बैंक के अनुसार, पर्यावरणीय क्षरण विशेषकर प्रदूषित जल एवं मिट्टी भारत को प्रतिवर्ष लगभग 80 अरब डॉलर (GDP का 6%) का नुकसान पहुँचाता है।

समस्या की गंभीरता

  • गुजरात के मेहसाणा में फ्लोरोसिस से मजदूरों की आय क्षमता घट गई है जिससे परिवार लगातार कर्ज एवं उपचार के व्यय में फंसते जा रहे हैं। देश में अभी भी जलजनित रोगों के कारण लाखों बच्चों की मौत होती है।
  • आर्सेनिक एवं फ्लोराइड से प्रभावित बच्चे मानसिक व शारीरिक रूप से पिछड़ जाते हैं जिससे उनकी शिक्षा और रोजगार क्षमता प्रभावित होती है। यह मानव पूंजी पर दीर्घकालिक चोट है।

कृषि पर प्रभाव: खाद्य सुरक्षा पर खतरा

  • प्रदूषित सिंचाई जल से मृदा की उर्वरता घटती है जिससे फसल उत्पादन में कमी आती है। भारी धातुएँ फसलों में जमा होती हैं जो खाद्य गुणवत्ता को प्रभावित करती हैं।
  • अनुसंधान दर्शाते हैं कि प्रदूषित क्षेत्रों के पास स्थित खेतों में किसानों की आय में उल्लेखनीय गिरावट आती है।
  • यदि यह समस्या चावल, सब्जियों एवं फलों जैसी प्रमुख फसलों तक फैल जाती है तो भारत के 50 अरब डॉलर के कृषि निर्यात क्षेत्र को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय खरीदार अब ट्रेसेबिलिटी एवं सुरक्षा मानकों पर कड़ा जोर दे रहे हैं और निर्यात अस्वीकृति की घटनाएँ बढ़ रही हैं।

सामाजिक-आर्थिक असमानता का बढ़ना

  • धनी परिवार RO व बोतलबंद पानी खरीद सकते हैं किंतु गरीब परिवार मजबूरी में प्रदूषित जल पीते हैं।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में प्रदूषित एक्विफ़र समुदायों को बीमारी, कर्ज एवं आय घटने की त्रिस्तरीय समस्या में फंसा देते हैं।
  • बच्चों पर इसका स्थायी प्रभाव अगले कई दशकों तक आर्थिक असमानता को अधिक गहरा कर देगा।

भूजल दोहन एवं प्रदूषण का दुष्चक्र

  • पंजाब जैसे राज्यों में अत्यधिक दोहन (सतत क्षमता से 1.5 गुना अधिक) से किसान गहरे बोरवेल का खनन करने को मजबूर हो रहे हैं जिससे पानी व अधिक प्रदूषित हो रहा है।
  • अधिक गहराई से निकला प्रदूषित पानी किसानों को अधिक उर्वरक उपयोग करने पर मजबूर करता है जिससे मृदा व जल दोनों की गुणवत्ता गिरती है जो एक दुष्चक्र बन जाता है।

आगे की राह

  • राष्ट्रीय स्तर पर रियल-टाइम भूजल निगरानी प्रणाली : देशभर में भूजल की गुणवत्ता को रियल-टाइम मॉनिटरिंग से ट्रैक करना आवश्यक है। डाटा को ओपन एक्सेस बनाया जाए ताकि समुदाय स्वयं जान सकें कि वे कौन-सा पानी पी रहे हैं और किससे सिंचाई कर रहे हैं।
  • औद्योगिक एवं सीवेज प्रदूषण पर कड़ी कार्रवाई : वर्तमान व्यवस्था इतनी कमजोर है कि उद्योग आसानी से प्रदूषण का भार समाज पर डाल देते हैं। सख्त प्रवर्तन और नियमित निरीक्षण अनिवार्य होना चाहिए।
  • कृषि नीतियों में बदलाव : रासायनिक उर्वरकों और पानी के अत्यधिक उपयोग को बढ़ावा देने वाली सब्सिडियों की समीक्षा आवश्यक है। साथ ही, फसल विविधीकरण, जैविक खेती व माइक्रो-इरिगेशन को बढ़ावा देना चाहिए। पंजाब-हरियाणा के पायलट प्रोग्राम जैसे सफल मॉडल से सीखा जा सकता है।
  • विकेंद्रीकृत जल उपचार प्रणाली : प्रभावित गांवों में कम लागत वाले शुद्धिकरण संयंत्र, सामुदायिक फिल्टर और RO ट्रीटमेंट यूनिट्स लगाने चाहिए। नलगोंडा (तेलंगाना) का फ्लोरोसिस-नियंत्रण मॉडल एक उदाहरण है, जहाँ सामुदायिक जल संयंत्रों से बच्चों में नई बीमारी के मामलों में कमी आई।
  • निर्यात गुणवत्ता मानकों को कड़ा करना : किसानों को प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे सुरक्षित उत्पादन और निर्यात मानकों का पालन कर सकें। गुणवत्ता नियंत्रण के कड़े नियम भारत के कृषि-निर्यात को सुरक्षित रखेंगे।

निष्कर्ष

भूजल प्रदूषण कोई सीमित पर्यावरणीय मुद्दा नहीं है। यह एक छिपी आर्थिक एवं मानवीय त्रासदी है। जल दुर्लभता की तरह इसका समाधान सरल नहीं है क्योंकि अधिकांश प्रदूषण स्थायी हो जाता है। यदि भारत ने समय रहते निर्णायक कदम नहीं उठाए तो यह संकट राष्ट्रीय आपदा में बदल सकता है। वर्तमान में साहसिक, समन्वित व वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है ताकि आने वाली पीढ़ियों को सुरक्षित पानी, स्वस्थ जीवन एवं टिकाऊ कृषि मिल सके।

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