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सैटेलाइट इंटरनेट—कैसे काम करता है और क्यों पड़ी इसकी जरूरत?

दुनिया डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर की ओर तेज़ी से बढ़ रही है, लेकिन अब भी ऐसे क्षेत्र मौजूद हैं जहाँ पारंपरिक फाइबर, मोबाइल टावर या केबल आधारित इंटरनेट पहुंच नहीं पाता।  ऐसे में Satellite Internet एक गेम-चेंजर टेक्नोलॉजी के रूप में उभरकर सामने आई है। एलन मस्क की Starlink (SpaceX) जैसी कंपनियाँ लो-अर्थ ऑर्बिट (LEO) में हजारों छोटे सैटेलाइट भेजकर वैश्विक हाई-स्पीड इंटरनेट उपलब्ध कराने की दिशा में काम कर रही हैं।

सैटेलाइट इंटरनेट कैसे काम करता है? (Three-Link Architecture)

सैटेलाइट इंटरनेट का मूल सिस्टम तीन प्रमुख घटकों पर आधारित है:

(A) यूजर सैटेलाइट डिश (User Terminal)

  • घर की छत या किसी खुले क्षेत्र में लगाई जाती है।
  • यह डेटा रिसीव और ट्रांसमिट दोनों करती है।
  • रेडियो तरंगों (Radio Waves) के जरिए सीधे सैटेलाइट से संवाद करती है।

(B) सैटेलाइट (LEO/MEO/GEO)

  • यूजर से डेटा लेकर उसे ग्राउंड स्टेशनों (Data Centers) तक भेजता है।
  • इंटरनेट से जुड़ी जानकारी को वापस डिश तक रिले करता है।

(C) ग्राउंड स्टेशन / डेटा सेंटर

  • ग्लोबल इंटरनेट इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े होते हैं।
  • यूजर की रिक्वेस्ट (जैसे वेबपेज, वीडियो) को प्रोसेस कर सैटेलाइट को भेजते हैं।

 प्रक्रिया 

  1. यूजर डिश → सैटेलाइट → ग्राउंड स्टेशन
  2. ग्राउंड स्टेशन → सैटेलाइट → यूजर डिश

यानी, Space-Based Relay Network के माध्यम से इंटरनेट वितरित किया जाता है।

सैटेलाइट इंटरनेट की आवश्यकता क्यों पड़ी ?

(1) ग्राउंड-बेस्ड नेटवर्क की सीमाएँ

  • रिमोट क्षेत्रों में टावर/फाइबर बिछाना महंगा और कठिन।
  • पहाड़ी क्षेत्रों, जंगलों, द्वीपों में नेटवर्क पहुंचाना लगभग असंभव।
  • प्राकृतिक आपदाओं (बाढ़, भूकंप, चक्रवात) में टावर और फाइबर क्षतिग्रस्त हो जाते हैं।
  • अस्थायी नेटवर्क की जरूरत (माइंस, डिसास्टर जोन, रक्षा) — जिसे परंपरागत नेटवर्क तुरंत सक्षम नहीं कर सकता।

(2) सैटेलाइट इंटरनेट इन चुनौतियों को कैसे हल करता है ?

  • स्पेस से सिग्नल मिलता है, इसलिए कहीं भी कनेक्टिविटी संभव।
  • आपदा के समय भी नेटवर्क रेज़िलिएंस बनी रहती है।
  • घनी आबादी से लेकर अत्यधिक दुर्गम क्षेत्रों तक समान सेवाएँ उपलब्ध।
  • “Digital Divide कम करने में मदद।

किस ऑर्बिट में लगाए जाते हैं सैटेलाइट ? (GEO–MEO–LEO Differences)

(A) GEO — Geostationary Orbit (35,786 km)

  • पृथ्वी के एक बिंदु के ऊपर स्थिर दिखता है।
  • केवल 3 सैटेलाइट से लगभग पूरी पृथ्वी कवर की जा सकती है।
  • लाभ: विशाल कवरेज
  • सीमा: अत्यधिक लेटेंसी (600–900 ms), जिससे वीडियो कॉल/गेमिंग अप्रभावी।

उदाहरण: Viasat, Inmarsat GX

(B) MEO — Medium Earth Orbit (2,000–35,786 km)

  • GEO से लेटेंसी कम (150–300 ms)।
  • अच्छे कवरेज के लिए सैटेलाइटों का समूह (Constellation) आवश्यक।
  • आमतौर पर नेविगेशन और कुछ इंटरनेट सेवाओं में उपयोग।

उदाहरण: O3b MEO

(C) LEO — Low Earth Orbit (2,000 km से नीचे)

  • लेटेंसी बहुत कम (20–40 ms) — फाइबर जैसी।
  • छोटे और हल्के सैटेलाइट → लॉन्च में सस्ते।
  • कम कवरेज → हजारों की संख्या में constellation जरूरी।

Starlink के पास 7,000+ LEO सैटेलाइट हैं, लक्ष्य 42,000।

सैटेलाइट इंटरनेट: फायदे और नुकसान

(A) फायदे

1. रिमोट क्षेत्रों में कनेक्टिविटी

पहाड़ी, रेगिस्तानी, समुद्री, जंगल—जहाँ कोई भी टेलीकॉम इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं।

2. आपदा के दौरान भी कार्यशील

बाढ़, तूफान में टावर गिर सकते हैं; लेकिन सैटेलाइट सिस्टम प्रभावित नहीं होता।

3. ऑन-डिमांड कनेक्टिविटी

रक्षा, आपदा प्रबंधन, वैज्ञानिक अभियानों में उपयोगी।

4. बढ़ती प्रतिस्पर्धा → बेहतर कीमतें

Starlink, OneWeb, Kuiper जैसी कंपनियों से बाजार में विकल्प बढ़ रहे हैं।

(B) नुकसान

1. सेटअप महंगा

यूजर टर्मिनल (डिश + राउटर) की कीमत अधिक।

2. लेटेंसी की समस्या (मुख्यतः GEO/MEO)

रियल-टाइम गेमिंग/ट्रांजेक्शन प्रभावित।

3. स्पेस डेब्रिस का खतरा

हजारों सैटेलाइट टकराव का जोखिम बढ़ाते हैं।

4. लॉन्च कॉस्ट और मेंटेनेंस

सैटेलाइट की संख्या बहुत अधिक होने पर लागत भी बढ़ती है।

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