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भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 17A : सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय

(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: शासन व्यवस्था, पारदर्शिता और जवाबदेही के महत्त्वपूर्ण पक्ष; पारदर्शिता एवं जवाबदेही और संस्थागत तथा अन्य उपाय)

संदर्भ

सर्वोच्च न्यायालय ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 17A की संवैधानिकता पर सुनवाई की, जो सरकारी अधिकारियों के खिलाफ जांच से पहले सक्षम प्राधिकारी से पूर्व अनुमति को अनिवार्य करती है। 

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 17A

  • परिचय : यह प्रावधान जुलाई 2018 में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में संशोधन के माध्यम से जोड़ा गया।
  • प्रमुख विशेषता : यह किसी भी सरकारी अधिकारी के खिलाफ उनके आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान की गई सिफारिशों या निर्णयों के लिए बिना पूर्व अनुमति के पूछताछ या जाँच पर रोक लगाता है।
  • सक्षम प्राधिकारी : प्राय: यह सरकार या संबंधित विभाग होता है, जो अनुमति देता है।

अधिकारियों के लिए सहायक 

  • ईमानदार अधिकारियों की सुरक्षा : यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि ईमानदार अधिकारी सरकार बदलने के बाद राजनीतिक प्रतिशोध का शिकार न बनें।
  • नीतिगत निर्णयों में स्वतंत्रता : अधिकारियों को बिना डर के अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने की आजादी देता है, जिससे नीतिगत पक्षाघात (पॉलिसी पैरालिसिस) का जोखिम कम होता है।
  • फालतू मुकदमों से बचाव : यह अधिकारियों को तुच्छ या बदले की भावना से दायर मुकदमों से बचाता है।

हालिया मुद्दा

एक गैर-लाभकारी संगठन ‘सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन’ द्वारा दायर याचिका में तर्क है कि यह प्रावधान भ्रष्टाचार रोधी कानून को कमजोर करता है क्योंकि सरकार स्वयं सक्षम प्राधिकारी होने के कारण निष्पक्ष जांच को बाधित करती है।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय

  • जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने कहा कि ईमानदार अधिकारियों को राजनीतिक प्रतिशोध से बचाने के लिए धारा 17A आवश्यक है।
  • न्यायालय ने इस प्रावधान को पूरी तरह खारिज करने के बजाय इसमें संतुलन की संभावना तलाशने की बात कही।
  • न्यायालय ने कहा कि सभी अधिकारियों को न तो ईमानदार मानकर चला जा सकता है और न ही सभी को बेईमान; इसलिए एक संतुलित दृष्टिकोण जरूरी है।

पक्ष और विपक्ष में तर्क

  • पक्ष में तर्क
    • सुरक्षा कवच : जस्टिस विश्वनाथन ने कहा कि यह प्रावधान उन अधिकारियों को बचाता है जो अपनी ड्यूटी के दौरान सरकार की लाइन का पालन नहीं करते हैं।
    • प्रशासनिक दक्षता : यह सुनिश्चित करता है कि अधिकारी बिना किसी डर के कठिन निर्णय ले सकें।
    • दुरुपयोग पर नियंत्रण : सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि बिना धारा 17A के कोई भी व्यक्ति व्यक्तिगत शिकायत के आधार पर किसी अधिकारी के खिलाफ मुकदमा दायर कर सकता है।
  • विपक्ष में तर्क 
    • जांच में बाधा : तर्क है कि यह प्रावधान भ्रष्टाचार रोधी कानून को कमजोर करता है क्योंकि सरकारें प्राय: अपने पसंदीदा अधिकारियों के खिलाफ जांच की अनुमति नहीं देती हैं।
    • निम्न अनुमति दर : केवल 40% मामलों में केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) को धारा 17A के तहत जांच की अनुमति मिलती है।
    • स्वतंत्रता की कमी : स्वयं सक्षम प्राधिकारी होने के कारण सरकार की निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं। इस संबंध में सुझाव है कि स्वतंत्र निकाय को अनुमति देने का अधिकार दिया जाए।

ईमानदार अधिकारियों के लिए चुनौतियाँ

  • राजनीतिक दबाव : सरकार बदलने पर ईमानदार अधिकारी प्रतिशोध का शिकार हो सकते हैं क्योंकि नए प्रशासन के पास सक्षम प्राधिकारी के रूप में अनुमति देने की शक्ति होती है।
  • अनावश्यक मुकदमे : धारा 17A के बिना कोई भी व्यक्ति गैर-लाभकारी संगठनों के माध्यम से अधिकारियों के खिलाफ तुच्छ मामले दायर कर सकता है।
  • नीतिगत पक्षाघात का खतरा : यदि अधिकारी हर निर्णय के लिए जांच के डर में रहेंगे तो यह प्रशासनिक दक्षता को प्रभावित करेगा।
  • अनुमति में देरी : सरकार द्वारा अनुमति देने में देरी या अस्वीकृति से भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई रुक सकती है।

आगे की राह

  • संतुलन : सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 17A को पूरी तरह खत्म करने के बजाय इसमें संतुलन लाने की जरूरत है, ताकि ईमानदार और बेईमान अधिकारियों के बीच अंतर किया जा सके।
  • स्वतंत्र प्राधिकारी : जांच की अनुमति के लिए एक स्वतंत्र निकाय की स्थापना पर विचार किया जा सकता है, जो सरकार के प्रभाव से मुक्त हो।
  • मामला-दर-मामला जांच : सॉलिसिटर जनरल ने सुझाव दिया कि अनुमति न मिलने के मामलों को अदालत में चुनौती दी जा सकती है।
  • कानून का दुरुपयोग रोकना : यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि धारा 17A का दुरुपयोग न हो और यह भ्रष्ट अधिकारियों को बचाने का साधन न बने।
  • प्रशासनिक सुधार : अधिकारियों के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश और समयबद्ध अनुमति प्रक्रिया लागू की जाए, ताकि जाँच में देरी न हो।
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