(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 1: भारतीय समाज की मुख्य विशेषताएँ, भारत की विविधता) |
संदर्भ
तमिलनाडु में मंदिरों के धन का उपयोग महाविद्यालयों के निर्माण में करने के संबंध में हाल ही में हुए राजनीतिक विवाद ने धार्मिक दानों के राज्य विनियमन और सामाजिक न्याय से इसके संबंध के एक गहरे ऐतिहासिक एवं संवैधानिक मुद्दे को उजागर किया है।
तमिलनाडु का मुद्दा और वर्तमान स्थिति
- हिंदू धार्मिक एवं धर्मार्थ निधि (Hindu Religious and Charitable Endowments: HR&CE) अधिनियम, 1959 के माध्यम से तमिलनाडु में मंदिरों का संचालन किया जाता है।
- यह एच.आर. एंड सी.ई. विभाग को दान सहित मंदिर के वित्त का प्रबंधन करने के लिए अधिकृत करता है।
- प्रबंधन की प्रमुख विशेषताएँ:
- 36,000 से अधिक मंदिर एच.आर. एंड सी.ई. विभाग के अधीन हैं।
- यह विभाग मंदिर के मामलों के प्रशासन के लिए कार्यकारी अधिकारियों की नियुक्ति भी करता है।
तमिलनाडु के अलावा अन्य प्रमुख राज्यों की स्थिति
आंध्र प्रदेश
- तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम (TTD) भारत के सबसे धनी मंदिर संस्थानों में से एक है। इसकी आय का उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सामाजिक सेवा के लिए किया जाता है।
- TTD द्वारा कॉलेज, धर्मार्थ अस्पताल, नि:शुल्क भोजन योजना, वैदिक स्कूल आदि का संचालन किया जाता है।
- राज्य सरकार भी धर्मार्थ बोर्ड के माध्यम से मंदिर की आय को नियंत्रित करती है।
कर्नाटक
- कर्नाटक सरकार के अंतर्गत ‘हिंदू धार्मिक संस्थान एवं धर्मार्थ बंदोबस्त विभाग’ कार्य करता है।
- मंदिरों की आय से राज्य सरकार धार्मिक कार्यों के साथ-साथ सामाजिक सेवा (जैसे- गरीब छात्रों के लिए छात्रवृत्ति, संस्कृत शिक्षा, अनाथालय) आदि में व्यय करती है।
- पूर्व में विवाद भी हुआ जब मंदिर निधियों से अल्पसंख्यक समुदायों के लिए योजनाएँ चलाने का प्रस्ताव आया।
केरल
- देवस्वम बोर्ड (जैसे- त्रावणकोर, कोच्चि, मलबार देवस्वम) के माध्यम से राज्य द्वारा मंदिरों का प्रबंधन किया जाता है।
- मंदिरों की आय से स्कूल, अस्पताल, संस्कृत कॉलेज, सामाजिक कार्यक्रमों का संचालन किया जाता है।
- उदाहरण: गुरुवायूर देवस्वम बोर्ड द्वारा संचालित स्कूल, पुस्तकालय एवं अस्पताल।
उत्तराखंड
- राज्य ने वर्ष 2019 में चार धाम देवस्थानम बोर्ड अधिनियम पारित किया जिससे बद्रीनाथ, केदारनाथ जैसे प्रसिद्ध मंदिरों का प्रबंधन राज्य के अधीन आ गया।
- हालाँकि, विवाद होने पर वर्ष 2022 में सरकार ने इसे वापस ले लिया किंतु यह इस बात का उदाहरण है कि राज्य द्वारा मंदिर प्रशासन में किस प्रकार हस्तक्षेप किया जाता है।
मंदिरों को दान की परंपरा
- मंदिरों को दान दिए जाने का प्रमाण 970 ईस्वी से ही प्राप्त होने लगता है जब चोल साम्राज्य अपने चरम पर था। इस दौरान संप्रभु शासकों से मंदिरों को प्रचुर दान प्राप्त होता रहा।
- चोल रानी सेम्बियन महादेवी ने मंदिरों को भूमि और अन्य वस्तुओं का रणनीतिक दान दिया था।
- यह प्रथा विजयनगर साम्राज्य के दौरान भी जारी रही। मंदिर केवल पूजा स्थल ही नहीं थे बल्कि वे सामाजिक-सांस्कृतिक केंद्र भी थे जहाँ उनका उपयोग शैक्षिक उद्देश्यों के लिए भी किया जाता था।
- इसकी पुष्टि मंदिर की दीवारों पर अंकित शिलालेखों एवं विशाल मंडपों (स्तंभों वाले हॉल) से होती है।
- अतः प्राचीन साक्ष्य भी मंदिर के संसाधनों का शैक्षिक उद्देश्यों के लिए उपयोग करने के सिद्धांत का समर्थन करता है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- 1817 ई. : धार्मिक दान एवं एस्कीट्स विनियमन ने ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा धार्मिक दानों के राज्य विनियमन की शुरुआत की।
- 1858 ई. : महारानी विक्टोरिया की घोषणा ने धार्मिक प्रथाओं में हस्तक्षेप न करने का आश्वासन दिया। हालाँकि, धर्मनिरपेक्ष पहलू (जैसे- भूमि एवं धन) विनियमन के अधीन रहे।
- मद्रास प्रेसीडेंसी में ब्रिटिश अधिकारियों ने धार्मिक अनुष्ठानों से बचते हुए मंदिरों के धर्मनिरपेक्ष पहलुओं पर निगरानी बनाए रखी।
प्रमुख विधायी प्रावधान
- वर्ष 1922 : जस्टिस पार्टी ने हिंदू धार्मिक दान विधेयक प्रस्तुत किया, जिससे मंदिर के अधिशेष धन के उपयोग की अनुमति मिली।
- वर्ष 1959 : तमिलनाडु हिंदू धार्मिक एवं धर्मार्थ दान (HR&CE) अधिनियम ने शिक्षा सहित धर्मनिरपेक्ष कल्याण के लिए मंदिर के अधिशेष धन का उपयोग (धारा 36 व 66) करने की कानूनी रूप से अनुमति दी।
- धर्मनिरपेक्ष कल्याण में हिंदू धार्मिक अध्ययन कराने वाले महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों का निर्माण भी शामिल है।
- ‘अधिशेष’ का अर्थ है मंदिर के रखरखाव और उसके पदाधिकारियों के प्रशिक्षण के लिए पर्याप्त प्रावधान किए जाने के बाद बची हुई कोई भी राशि।
न्यायिक निर्णय
- मद्रास उच्च न्यायालय ने शैक्षणिक संस्थानों के निर्माण के लिए मंदिर की भूमि/निधि के उपयोग की वैधता को बरकरार रखा और इसे एक परोपकारी सार्वजनिक उद्देश्य बताया।
- वर्ष 1959 के अधिनियम को संवैधानिक रूप से बरकरार रखा गया जिसमें मंदिर के रखरखाव को सुनिश्चित करने के लिए सुरक्षा उपाय भी शामिल थे।
सांस्कृतिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण
- ऐतिहासिक रूप से मंदिर सामाजिक-सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में कार्य करते थे, जिनका उपयोग प्राय: शैक्षिक उद्देश्यों के लिए किया जाता था (चोल व विजयनगर काल में इसका प्रमाण मिलता है)।
- तमिलनाडु में आत्म-सम्मान आंदोलन ने मंदिर विनियमन को जाति-विरोधी सुधारों (जैसे- 1936 और 1947 के मंदिर प्रवेश कानून) के लिए आवश्यक माना।
- सरकारी नियंत्रण ने पिछड़े वर्गों से पुजारियों की नियुक्ति और समावेशी सुधारों को संभव बनाया है।
महत्त्व
- यह मुद्दा धार्मिक संसाधनों के राज्य-विनियमित धर्मनिरपेक्ष उपयोग के एक विशिष्ट दक्षिण भारतीय मॉडल को दर्शाता है।
- यह सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप है जो मंदिर की संपत्ति के माध्यम से समावेशी कल्याण को सक्षम बनाता है।
- इस मॉडल को उलटने से दशकों के प्रगतिशील धार्मिक एवं सामाजिक सुधार कमजोर हो सकते हैं।
अन्य धर्मों में स्थिति
इस्लाम धर्म (वक्फ संपत्ति)
- राज्य द्वारा स्वतंत्र बोर्ड के माध्यम से विनियमन होता है।
- वक्फ़ अधिनियम, 1995 के अंतर्गत प्रत्येक राज्य में वक्फ बोर्ड का गठन किया गया है।
- वक्फ़ संपत्तियों (कब्रिस्तान, मदरसे, व्यावसायिक संपत्ति और मस्जिद व दरगाह आदि) का प्रशासन वक्फ बोर्ड करता है। वक्फ़ बोर्ड सरकार के अधीन पंजीकृत एक स्वायत्त निकाय होता है।
- केंद्रीय वक्फ़ परिषद (Central Waqf Council) इसका निरीक्षण करती है और अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के अंतर्गत आती है।
- वक्फ़ संपत्तियों से होने वाली आय का उपयोग बोर्ड द्वारा मदरसे, स्कूल आदि की स्थापना, गरीबों की सहायता जैसे धर्मार्थ कार्यों में किया जा सकता है। इसमें सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होता है।
- मस्जिद व दरगाह,मस्जिद में मिलने वाले दान
- इस संदर्भ में सरकार की भूमिका निगरानी एवं प्रशासनिक नियंत्रण तक ही सीमित है, प्रत्यक्ष हस्तक्षेप नहीं होता है।
ईसाई धर्म (चर्च)
- राज्य द्वारा प्रत्यक्ष विनियमन नहीं होता है।
- चर्च निजी ट्रस्ट या सोसायटी के रूप में पंजीकृत होती हैं और भारतीय ट्रस्ट अधिनियम, सोसाइटी पंजीकरण अधिनियम तथा कंपनी अधिनियम (Section 8) के तहत कार्य करती हैं।
- उनके दान एवं आय का उपयोग मिशनरी स्कूलों, अस्पतालों, अनाथालयों, वृद्धाश्रमों की स्थापना आदि में किया जाता है।
- राज्य केवल यह देखता है कि ये संगठन कानूनी रूप से पंजीकृत हों और नियमों का पालन करें किंतु उनकी आंतरिक निधि व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करता है।
सिख धर्म (गुरुद्वारे)
- कुछ गुरुद्वारे (विशेषकर पंजाब, दिल्ली) राज्य अधिनियमों के तहत आते हैं। जैसे:
- पंजाब गुरुद्वारा अधिनियम, 1925 के तहत गठित शिरोमणि गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी।
- दिल्ली अधिनियम के तहत दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी।
- ये दोनों स्वशासी निकाय हैं किंतु इनके चुनाव आदि राज्य कानूनों के अधीन होते हैं।
- इन संस्थाओं की आय से लंगर, स्कूल, अस्पताल, अनाथालय, कौशल विकास केंद्र चलाए जाते हैं।
- सरकार यहाँ भी सीमित नियामक भूमिका निभाती है और प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं होता है।
निष्कर्ष
भारत में धर्मनिरपेक्ष संविधान होने के बावजूद राज्य का हस्तक्षेप धार्मिक संस्थाओं के मामलों में समान रूप से नहीं होता है। विशेष रूप से हिंदू धार्मिक संस्थाओं के मामले में राज्य अधिक प्रत्यक्ष नियंत्रण करता है, जबकि अन्य धर्मों के मामलों में हस्तक्षेप अपेक्षाकृत सीमित है।