(प्रारंभिक परीक्षा: समसामयिक घटनाक्रम) (मुख्य परीक्षा, समान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 1: विश्व के भौतिक भूगोल की मुख्य विशेषताएँ, भूकंप, सुनामी, ज्वालामुखीय हलचल, चक्रवात आदि जैसी महत्त्वपूर्ण भू-भौतिकीय घटनाएँ, भौगोलिक विशेषताएँ) |
संदर्भ
प्राग में आयोजित 2025 गोल्डश्मिट सम्मेलन में प्रस्तुत एक नए अध्ययन ने पिघलते ग्लेशियर्स एवं ज्वालामुखी विस्फोटों (उद्गार) के बीच संबंध को प्रदर्शित किया है।
ज्वालामुखी विस्फोट और ग्लेशियर्स पर अध्ययन
- स्रोत : जियोकेमिकल सोसाइटी और यूरोपियन एसोसिएशन ऑफ जियोकेमिस्ट्री द्वारा प्राग में आयोजित गोल्डश्मिट सम्मेलन, 2025
- प्रमुख निष्कर्ष
- पिघलते ग्लेशियर्स के कारण दबाव कम होने से ज्वालामुखी मैग्मा चैंबर्स में गैसों एवं मैग्मा का विस्तार होता है जिससे विस्फोटक उद्गार हो सकते हैं।
- पश्चिमी अंटार्कटिका में 100 से अधिक ज्वालामुखी बर्फ के नीचे दबे हैं जो अगले कुछ दशकों में पिघलने वाली बर्फ के कारण सक्रिय हो सकते हैं।
- उत्तरी अमेरिका, न्यूजीलैंड एवं रूस जैसे क्षेत्रों में भी ज्वालामुखी गतिविधियों में वृद्धि की संभावना है।
- ऐतिहासिक उदाहरण:
- आइसलैंड में 15,000-10,000 वर्ष पहले डीग्लेशिएशन (ग्लेशियर्स पिघलना) के दौरान ज्वालामुखी विस्फोट की दर वर्तमान से 30-50 गुना अधिक थी।
- चिली के मोचो चोशुएन्को ज्वालामुखी पर अध्ययन से पता चला है कि 26,000-18,000 वर्ष पहले बर्फ की मोटी परत से उद्गार नहीं हो पाया किंतु 13,000 वर्ष पहले बर्फ पिघलने पर विस्फस्क विस्फोट हुए।
- शोधकर्ता : पाब्लो मोरेनो-येगर (विस्कॉन्सिन-मैडिसन विश्वविद्यालय, अमेरिका) और थॉमस औब्री (एक्सेटर विश्वविद्यालय, इंग्लैंड)
ज्वालामुखी विस्फोट के कारक
- बर्फ का पिघलना ; ग्लेशियर्स एवं बर्फ की चट्टानें ज्वालामुखी मैग्मा चैंबर्स पर दबाव डालती हैं, जिससे विस्फोट सीमित रहते हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ते वैश्विक तापमान से बर्फ पिघल रही है जिससे दबाव कम होता है और मैग्मा का प्रसार होता है।
- निम्न दबाव एवं मैग्मा उत्पादन : निम्न दबाव में चट्टानें कम तापमान पर पिघलती हैं जिससे अधिक मैग्मा बनता है। यह प्रक्रिया विस्फोटक ज्वालामुखी गतिविधियों को बढ़ावा देती है।
- वर्षा का प्रभाव : जलवायु परिवर्तन से वर्षा पैटर्न में बदलाव से गहरे भूमिगत जल मैग्मा प्रणाली के साथ प्रतिक्रिया कर विस्फोट को उत्प्रेरित (ट्रिगर) कर सकता है।
- ऐतिहासिक प्रमाण : अंतिम हिमयुग के बाद बर्फ पिघलने पर ज्वालामुखी गतिविधियों में वृद्धि देखी गई, जैसे- आइसलैंड एवं चिली में।
प्रभाव
- अल्पकालिक शीतलन : ज्वालामुखी विस्फोट राख एवं सल्फर डाइऑक्साइड छोड़ते हैं जो सूर्य के प्रकाश को अवरुद्ध कर वैश्विक शीतलन का कारण बनते हैं। सल्फर डाइऑक्साइड स्ट्रैटोस्फीयर में सल्फ्यूरिक एसिड एरोसोल बनाता है जो 3 वर्ष तक सूर्य की किरणों को परावर्तित कर पृथ्वी को ठंडा करता है।
- दीर्घकालिक तापन : निरंतर ज्वालामुखी विस्फोट कार्बन डाइऑक्साइड एवं मीथेन जैसी ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित करते हैं जो वैश्विक तापमान को बढ़ाते हैं। यह एक दुष्चक्र बनाता है: गर्मी से बर्फ पिघलती है, ज्वालामुखी विस्फोट बढ़ते हैं तथा अधिक ग्रीनहाउस गैसें तापमान को और बढ़ाती हैं।
- पारिस्थितिकीय प्रभाव : पश्चिमी अंटार्कटिका जैसे क्षेत्रों में बर्फ पिघलने से समुद्र का स्तर बढ़ेगा, जिससे तटीय क्षेत्रों में बाढ़ एवं विस्थापन का खतरा होगा। ज्वालामुखी राख से मृदा उर्वरता प्रभावित हो सकती है, जिससे कृषि प्रभावित होगी।
- मानवीय प्रभाव : ज्वालामुखी उद्गार से सड़क, हवाई अड्डा एवं बिजली संयंत्र जैसे बुनियादी ढांचे को नुकसान और राख व जहरीली गैसों से श्वसन संबंधी स्वास्थ्य जोखिम का खतरा रहता है।
चुनौतियाँ
- जलवायु परिवर्तन का त्वरण : ग्लेशियर्स के तेजी से पिघलने से ज्वालामुखी गतिविधियों में अप्रत्याशित वृद्धि जलवायु मॉडल को जटिल बनाती है।
- सीमित निगरानी : पश्चिमी अंटार्कटिका जैसे दूरस्थ क्षेत्रों में ज्वालामुखी निगरानी प्रणालियों की कमी और भारत में हिमालयी क्षेत्रों में ज्वालामुखी जोखिमों पर अपर्याप्त शोध
- आर्थिक बोझ : ज्वालामुखी विस्फोटों से होने वाले नुकसान की मरम्मत एवं आपदा प्रबंधन की उच्च लागत भारत जैसे विकासशील देशों में संसाधनों का अभाव इस चुनौती को बढ़ाता है।
- सामाजिक प्रभाव : तटीय एवं पहाड़ी क्षेत्रों, विशेष रूप से हिमालयी राज्यों (जैसे- उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश) में विस्थापन और राख के कारण कृषि प्रभावित होने से खाद्य सुरक्षा पर खतरा
- वैश्विक असमानता:
- विकासशील देश (जैसे- भारत) ज्वालामुखी एवं जलवायु परिवर्तन के दोहरे प्रभावों से अधिक प्रभावित होंगे, जबकि उनके पास अनुकूलन के लिए कम संसाधन हैं।
आगे की राह
- ज्वालामुखी निगरानी
- पश्चिमी अंटार्कटिका, हिमालय व अन्य संवेदनशील क्षेत्रों में सैटेलाइट एवं स्थलीय निगरानी प्रणालियों का विस्तार
- भारत में जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (GSI) को ज्वालामुखी जोखिम आकलन में निवेश करने की आवश्यकता
- जलवायु शमन
- ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए नवीकरणीय ऊर्जा एवं ऊर्जा दक्षता को बढ़ावा देना
- पेरिस समझौते के तहत 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वैश्विक सहयोग
- आपदा प्रबंधन
- राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) द्वारा ज्वालामुखी विस्फोटों के लिए विशिष्ट दिशानिर्देश एवं प्रशिक्षण
- तटीय एवं पहाड़ी क्षेत्रों में आपदा प्रतिक्रिया टीमें स्थापित करना
- शोध और सहयोग
- गोल्डश्मिट सम्मेलन जैसे मंचों पर भारत की भागीदारी बढ़ाना
- ग्लेशियर पिघलने व ज्वालामुखी गतिविधियों के बीच संबंध पर दीर्घकालिक अध्ययन
- सामुदायिक जागरूकता
- हिमालयी व तटीय समुदायों को जलवायु एवं ज्वालामुखी जोखिमों के बारे में शिक्षित करना
- स्थानीय स्तर पर आपदा तैयारियों को बढ़ावा देना
- वैश्विक फंडिंग
- ग्रीन क्लाइमेट फंड और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संसाधनों का उपयोग ग्लेशियर संरक्षण एवं आपदा प्रबंधन के लिए