| (मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र-4: भावनात्मक समझः अवधारणाएँ तथा प्रशासन और शासन व्यवस्था में उनके उपयोग और प्रयोग।) |
मुंबई के पवई स्थित आर.ए. स्टूडियो में 50 वर्षीय रोहित आर्य ने 17 बच्चों और 2 वयस्कों को बंधक बना लिया। उसने कहा कि वह “नैतिक प्रश्नों” पर बातचीत करना चाहता है और किसी वित्तीय विवाद को लेकर असंतोष में था। पुलिस ने त्वरित कार्रवाई करते हुए सभी बंधकों को सुरक्षित बचा लिया, जबकि आर्य को गोली लगने से मौत हो गई।
यह घटना समाज में बढ़ते मानसिक तनाव, संवाद की कमी और असंतोष के मनोविज्ञान को दर्शाती है। जहाँ व्यक्ति आर्थिक या सामाजिक अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज़ को सुनाने में असमर्थ महसूस करता है, वहाँ वह हिंसा का मार्ग चुन लेता है। यह इस बात का भी द्योतक है कि समाज में मनोवैज्ञानिक परामर्श और भावनात्मक सहायता तंत्र कितने कमजोर हैं।
नैतिक दृष्टि से पुलिस का पहला कर्तव्य बच्चों को सुरक्षित निकालना था। जब बातचीत विफल रही और आरोपी ने नुकसान की धमकी दी, तब आत्मरक्षा और जनहित में गोली चलाना उचित ठहराया जा सकता है। हालाँकि, यह भी ज़रूरी है कि भविष्य में ऐसे संकटों से निपटने के लिए वार्ता दल (Negotiation Teams) और प्रशिक्षित मनोवैज्ञानिक (Trained Psychologists) की भूमिका को मज़बूत किया जाए ताकि हिंसा अंतिम विकल्प न बने।
आर्य का व्यवहार एक मानसिक अस्थिरता की ओर संकेत करता है- अवसाद, हताशा, और नैतिक उलझनों से ग्रस्त व्यक्ति ने ध्यानाकर्षण के लिए गलत तरीका चुना।
यह घटना बताती है कि भारत में अभी भी मानसिक स्वास्थ्य को सामाजिक कलंक के रूप में देखा जाता है, और लोग मदद लेने से झिझकते हैं।
भारत में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति (2014) और मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम (2017) मौजूद हैं, जिनका उद्देश्य मानसिक रोगियों को गरिमापूर्ण उपचार और सहायता देना है। फिर भी, इन नीतियों का प्रभावी कार्यान्वयन कमजोर है; प्रशिक्षित मनोचिकित्सकों की कमी, ग्रामीण क्षेत्रों में सेवाओं का अभाव, और पुलिस बल में मानसिक स्वास्थ्य प्रशिक्षण का न होना एक बड़ी चुनौती है।
नैतिकता के स्तर पर यह घटना जीवन की गरिमा (Sanctity of Life) और राज्य की नैतिक जिम्मेदारी दोनों से जुड़ी है। जहाँ एक ओर पुलिस की कार्रवाई बच्चों की रक्षा के लिए उचित थी (उपयोगितावादी दृष्टिकोण), वहीं दूसरी ओर यह प्रश्न भी उठता है कि यदि हम ऐसे व्यक्ति को पुनर्वास की दिशा में ले जाते, तो क्या वह समाज के लिए खतरा नहीं बनता बल्कि एक चेतावनी उदाहरण बनता?
यह घटना हमें न्याय के साथ करुणा (Justice with Compassion) के सिद्धांत की ओर लौटने की प्रेरणा देती है।
एक सिविल सेवक के रूप में, निम्नलिखित कदम ऐसे नैतिक संकटों से निपटने और समाज को संवेदनशील बनाने के लिए उठाए जा सकते हैं —
यह घटना केवल अपराध या कानून-व्यवस्था का मुद्दा नहीं, बल्कि हमारे समाज की मानसिक संवेदनशीलता की परीक्षा है। एक सिविल सेवक के रूप में हमारा कर्तव्य केवल शांति बहाल करना नहीं, बल्कि उन सामाजिक कारणों को भी दूर करना है जो किसी व्यक्ति को इस चरम तक पहुँचा देते हैं। इस दिशा में संवाद, सहानुभूति और मानसिक स्वास्थ्य सशक्तिकरण ही वास्तविक समाधान हैं, ताकि कोई व्यक्ति अपनी “नैतिक पुकार” के लिए निर्दोषों की जान जोखिम में न डाले।
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