(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 2: विभिन्न संवैधानिक पदों पर नियुक्ति और विभिन्न संवैधानिक निकायों की शक्तियाँ, कार्य व उत्तरदायित्व) |
संदर्भ
हिरासत में मृत्यु (Custodial Death) की बढ़ती प्रवृत्ति भारत में प्रचलित पुलिस व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाने के साथ ही संवैधानिक मूल्यों पर आधारित पुलिस सुधारों की तत्काल आवश्यकता पर बल देती है।
भारत में पुलिस व्यवस्था से संबंधित मुद्दे
पॉप संस्कृति एवं पुलिस व्यवस्था
- भारतीय पॉप संस्कृति प्राय: फिल्मों एवं मीडिया के माध्यम से सतर्कता न्याय (Vigilante Justice) का महिमामंडन करती है और नियमों को तोड़ने वाले ‘पुलिस अधिकारी’ की छवि को बढ़ावा देती है।
- सतर्कता न्याय से तात्पर्य कानूनी अधिकार के बिना व्यक्तियों या समूहों द्वारा कथित अपराधों की रोकथाम, जांच एवं दंडित करने से है।
- यह जनता की धारणा और आंतरिक पुलिस व्यवहार को प्रभावित करता है जिससे हिरासत में यातना, फर्जी मुठभेड़ आदि जैसे न्यायेतर तरीकों को उचित ठहराया जाता है।
कानूनी एवं संवैधानिक संकट
- सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसलों (जैसे- प्रकाश सिंह मामला, 2006) के बावजूद पुलिस सुधार राज्यों में बड़े पैमाने पर लागू नहीं हुए हैं।
- निरंतर राजनीतिक हस्तक्षेप और जवाबदेही की कमी कानून के शासन को कमजोर करती है।
मानवाधिकार संबंधी चिंताएँ
- हिरासत में मौतें, थर्ड-डिग्री टॉर्चर और गैरकानूनी हिरासत सामान्य घटनाएँ बन गई हैं।
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और अन्य निकायों के बार-बार कानून के उल्लंघनों की सूचना देने के बावजूद भी इनका प्रवर्तन कमज़ोर है।
सुझाव
लोकतांत्रिक पुलिस व्यवस्था की आवश्यकता
- पुलिस व्यवस्था को अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) के अनुरूप होना चाहिए, जिससे गरिमा, निष्पक्षता और उचित प्रक्रिया सुनिश्चित हो।
- सामुदायिक पुलिस व्यवस्था, नैतिक जाँच और पारदर्शिता पर बल दिया जाना चाहिए।
पुलिस प्रशिक्षण और बुनियादी ढाँचा
- मौजूदा प्रशिक्षण मॉड्यूल प्राय: विधिक साक्षरता और मानवाधिकारों की तुलना में शारीरिक अनुशासन पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं।
- फॉरेंसिक उपकरणों, आधुनिक तकनीकों और व्यवहारिक प्रशिक्षण में निवेश की आवश्यकता है।
न्यायपालिका और नागरिक समाज की भूमिका
- न्यायालयों को गैरकानूनी पुलिस व्यवस्था की लगातार निंदा करनी चाहिए।
- नागरिक समाज और मीडिया, सुधार-उन्मुख, नागरिक-हितैषी पुलिस व्यवस्था की माँग को बढ़ावा देने में मदद कर सकते हैं।
पुलिस सुधार से संबंधित प्रमुख समितियाँ
धरमवीर समिति (National Police Commission– 1977-1981)
- प्रमुख सिफारिशें
- पुलिस व्यवस्था को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करना
- पुलिस शिकायत प्राधिकरण (Police Complaints Authority) की स्थापना
- ‘अपराध की जाँच’ और ‘कानून-व्यवस्था’ के कार्यों को अलग करना
- पुलिस की भर्ती और पदोन्नति में पारदर्शिता
- एक स्थायी तंत्र द्वारा पुलिस का मूल्यांकन
जूलियो रिबेरो समिति (1998)
- प्रमुख सिफारिशें
- पुलिस शिकायत प्राधिकरण (Police Complaint Authority) की स्थापना
- वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति में पारदर्शिता
- पुलिस अधिकारियों की जवाबदेही सुनिश्चित करना
पद्मनाभैया समिति (2000)
- प्रमुख सिफारिशें
- पुलिस में नागरिकों के अधिकारों की रक्षा पर जोर
- राज्यों में राज्य सुरक्षा आयोग (State Security Commission) की स्थापना
- पुलिस में कार्यक्षमता और मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता
- कानून व्यवस्था संभालने और अपराध की जाँच के लिए अलग इकाइयाँ
सोली सोराबजी समिति (2005)
- प्रमुख सिफारिशें
- मॉडल पुलिस अधिनियम का मसौदा तैयार करना
- राज्य व ज़िला पुलिस बोर्ड की स्थापना
- पुलिस प्रमुख का न्यूनतम 2 वर्ष का कार्यकाल
- मानवाधिकारों की रक्षा के लिए प्रशिक्षण
पुलिस सुधार से संबंधित प्रमुख निर्णय
नीलाबती बेहरा बनाम राज्य (1993)
- सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि पुलिस की बर्बरता के कारण हिरासत में हुई मृत्यु अनुच्छेद 21 के तहत उसके जीवन के अधिकार का उल्लंघन है।
- हिरासत में मृत्यु पर मुआवजा देने की अवधारणा को स्वीकार किया गया।
- सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन होने पर पीड़ित को क्षतिपूर्ति (Compensation) मिलना चाहिए।
डी.के. बसु बनाम राज्य (पश्चिम बंगाल) 1997
यह कस्टोडियल टॉर्चर और हिरासत में मृत्यु पर ऐतिहासिक फैसला था। इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने 11 दिशानिर्देश जारी किए जिनमें शामिल हैं:
- गिरफ्तारी के समय पुलिस की पहचान और नेमप्लेट की अनिवार्यता
- गिरफ्तारी मेमो में समय व कारण दर्ज करना
- गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के परिवार या मित्र को सूचना देने की अनिवार्यता
- प्रत्येक 48 घंटे में चिकित्सकीय परीक्षण अनिवार्य करना
- गिरफ्तारी की जानकारी रजिस्टर में दर्ज करना
ओम प्रकाश बनाम राज्य (2001)
- इस वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने फर्जी मुठभेड़ों (Fake Encounters) पर सख्त रुख अपनाया।
- न्यायालय ने स्पष्ट निर्देश दिया कि ऐसे मामलों की स्वतंत्र जाँच अनिवार्य है और दोषियों को दंडित किया जाए।
फूलन देवी बनाम भारत संघ (2001)
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि पुलिस कार्रवाई कानून के दायरे में होनी चाहिए, भले ही आरोपी कितना भी संगीन अपराधी क्यों न हो।
प्रकाश सिंह बनाम भारत सरकार (2006)
- यह निर्णय भारत में पुलिस सुधारों की आधारशिला माना जाता है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने 7 प्रमुख निर्देश दिए :
- राज्य सुरक्षा आयोग की स्थापना
- संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) की अनुशंसा पर पुलिस महानिदेशक (DGP) की नियुक्ति और न्यूनतम 2 वर्ष का कार्यकाल
- पुलिस अधीक्षक/ इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस (IGP) जैसे पदों का स्थायित्व
- पुलिस अवस्थापना बोर्ड (Police Establishment Board) की स्थापना
- पुलिस शिकायत प्राधिकरण (Police Complaints Authority) का गठन
- जाँच और कानून-व्यवस्था के कार्यों का विभाजन
- मॉडल पुलिस अधिनियम को लागू करना
अरविंद यादव बनाम राज्य (2020)
- पटना उच्च न्यायालय ने कहा कि पुलिस को केवल विधि प्रवर्तक की भूमिका निभानी है, दंडात्मक बल की नहीं।
- पुलिस को न्यायाधीश बनने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
निष्कर्ष
भारत को सतर्कता-शैली की पुलिसिंग की छाया से मुक्त होकर अधिकार-आधारित, जवाबदेह पुलिस बल को अपनाना होगा। वास्तविक सुधार भय-आधारित से विश्वास-आधारित कानून प्रवर्तन में बदलाव लाने में निहित है जो किसी भी संवैधानिक लोकतंत्र की आधारशिला है।