आर्द्रभूमियाँ ऐसे भू-भाग हैं जो मौसमी या स्थायी रूप से जल से संतृप्त रहती हैं। इनमें कच्छ,पंकभूमि, पीटभूमि, दलदल, झीलें, नदी तटीय क्षेत्र, खारे/मीठे जल क्षेत्र तथा 6 मीटर से कम गहराई वाले तटीय समुद्री क्षेत्र शामिल होते हैं। हालाँकि ये पृथ्वी के केवल 6% क्षेत्र को कवर करती हैं, लेकिन वैश्विक 40% जैव विविधता को आश्रय प्रदान करती हैं। इन्हें प्राकृतिक "इकोलॉजिकल किडनी" कहा जाता है।

भारत में वर्तमान स्थिति
- भारत में 7 लाख से अधिक आर्द्रभूमियाँ पाई जाती हैं।
- कुल क्षेत्रफल लगभग 16 मिलियन हेक्टेयर, यानी 4.86% भौगोलिक क्षेत्र।
- Wetlands International South Asia के अनुसार, पिछले तीन दशकों में 5 में से 2 आर्द्रभूमियाँ नष्ट हुई हैं।
- तमिलनाडु में सर्वाधिक रामसर स्थल, इसके बाद उत्तर प्रदेश।
आर्द्रभूमियों का महत्त्व
(क) पारिस्थितिकी एवं पर्यावरणीय महत्त्व
- कार्बन सिंक—कार्बन अवशोषण, जलवायु परिवर्तन शमन में सहायक।
- प्राकृतिक आपदारोधी क्षमता—बाढ़, तटीय अपरदन तथा तूफानी लहरों से सुरक्षा।
- जल शुद्धिकरण—तलछट व पौधों में प्रदूषक कैप्चर कर स्वाभाविक फिल्टर की तरह काम करती हैं।
- जैव विविधता का हॉटस्पॉट—पक्षी, मछली, उभयचर, वनस्पतियों की विस्तृत श्रृंखला का निवास।
(ख) सामाजिक-आर्थिक महत्त्व
- मत्स्यन, कृषि, हस्तशिल्प व पर्यटन के माध्यम से आजीविका का स्रोत।
- कई क्षेत्रों की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं मनोरंजक गतिविधियों का केंद्र।
आर्द्रभूमियों के क्षरण के प्रमुख कारण
- अतिक्रमण एवं भू-परिवर्तन
- शहरी विस्तार, अवैध निर्माण, अवसंरचना परियोजनाएँ।
- जल का अत्यधिक दोहन एवं लवणीकरण
- भूजल निष्कर्षण, खारा पानी भूमि में घुसना।
- प्रदूषण
- शहरी/औद्योगिक अपशिष्ट, कृषि रसायनों का बहाव, सीवेज लोड।
- आक्रामक प्रजातियाँ
- जैसे—जलकुंभी, साल्विनिया, जो जल गुणवत्ता व जैव विविधता को नुकसान पहुँचाती हैं।
- असंवहनीय दोहन
- मछली, लकड़ी, रेत, जल संसाधनों पर अत्यधिक निर्भरता।
- अनियंत्रित पर्यटन
- बिना उपयुक्त प्रबंधन के पर्यटन अवसंरचना का विस्तार।
- जलवायु परिवर्तन
- समुद्र स्तर वृद्धि, सूखा, हानिकारक शैवाल प्रस्फुटन (HABs)।
भारतीय सरकार की पहलें
(1) नीतियाँ व नियम
- आर्द्रभूमि (संरक्षण और प्रबंधन) नियम, 2017
- अधिसूचना, प्रबंधन योजनाएँ, राज्य/केंद्र स्तर पर निगरानी समितियाँ।
- राष्ट्रीय जलीय पारितंत्र संरक्षण योजना (NPCA)
- झीलों व आर्द्रभूमियों के संरक्षण हेतु केंद्र-प्रायोजित योजना।
- केंद्रिय आर्द्रभूमि संरक्षण व प्रबंधन केंद्र (cWCM)
- वैज्ञानिक मार्गदर्शन, क्षमता निर्माण, नीति समर्थन।
(2) जल संरक्षण मिशन
- राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (NMCG)
- गंगा के तटीय व संबंधित आर्द्रभूमियों का पुनर्जीवन।
(3) अंतरराष्ट्रीय सहयोग
- रामसर कन्वेंशन (1982 से भारत पक्षकार)
- वर्तमान में भारत में 94(वर्ष-2025) से अधिक रामसर स्थल।
(4) अन्य पहलें
- ब्लू फ्लैग बीच प्रमाणन—भारत के 12 समुद्री तट।
- अमृत धरोहर पहल—स्थानीय समुदाय-आधारित संरक्षण मॉडल।
चुनौतियाँ (बाधाएँ)
- वैज्ञानिक डेटा व मानक निगरानी की कमी।
- विभिन्न विभागों के बीच समन्वय का अभाव।
- स्थानीय समुदायों की सीमित भागीदारी।
- भूमि उपयोग परिवर्तन पर कमजोर नियमन।
- राजनीतिक/आर्थिक प्राथमिकताओं पर पर्यावरण संरक्षण का हाशियाकरण।
आगे की राह (Way Forward)
(1) एकीकृत व विज्ञान-आधारित प्रबंधन
- Integrated Wetland Management Plans (IWMPs)— जल विज्ञान, जैव विविधता, भूमि उपयोग और आजीविका को समन्वित रूप से संबोधित करें।
(2) इकोसिस्टम-आधारित प्रबंधन
- बफर ज़ोन, प्राकृतिक वनस्पति पुनर्स्थापन, तटीय रक्षात्मक ढाँचे।
(3) सामुदायिक भागीदारी
- स्वयं सहायता समूह, स्थानीय वन समितियाँ, इको-टूरिज़्म समितियाँ।
- अमृत धरोहर जैसे मॉडल का विस्तार।
(4) प्रदूषण नियंत्रण
- शहरी सीवेज का शोधन,
- कड़े मानक और उल्लंघन पर दंड।
(5) निगरानी व डेटा सिस्टम
- GIS-आधारित वेटलैंड इन्वेंटरी
- स्वास्थ्य कार्ड
- पारिस्थितिकी तंत्र स्वास्थ्य आकलन प्रोटोकॉल
(6) जलवायु अनुकूलन रणनीतियाँ
- प्रवाल क्षेत्रों, तटीय आर्द्रभूमियों, मैंग्रोव्स का पुनर्जीवन।
निष्कर्ष
आर्द्रभूमियाँ भारत की पारिस्थितिक और आर्थिक सुरक्षा का आधार हैं। इनका क्षरण न केवल जैव विविधता, बल्कि आजीविका, जल सुरक्षा और जलवायु स्थिरता के लिए भी गंभीर खतरा है। सफल संरक्षण के लिए कानूनी ढाँचे को मजबूत, समुदाय-आधारित मॉडल को प्रोत्साहित, और वैज्ञानिक निगरानी के माध्यम से आर्द्रभूमियों को एक मूल्यवान प्राकृतिक पूंजी के रूप में संरक्षित करना अनिवार्य है।