उत्तर भारत के मैदानी इलाकों की जलवायु, वायु और जल के लिए अरावली पर्वतमाला क्यों महत्वपूर्ण है?
चर्चा में क्यों ?
हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा अरावली पर्वतमाला की एक नई ऊँचाई-आधारित परिभाषा प्रस्तावित की गई, जिसे 20 नवंबर को सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार किया।
इस परिभाषा के अनुसार, स्थानीय भू-भाग से 100 मीटर या उससे अधिक ऊँचाई वाली भू-आकृतियों को ही अरावली माना जाएगा।
भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI) के एक आंतरिक आकलन के अनुसार, इससे लगभग 90% अरावली क्षेत्र खनन एवं अन्य विकास गतिविधियों के लिए सुरक्षा कवच से बाहर हो सकता है।
पर्यावरणविदों का मानना है कि यह निर्णय पहले से क्षीण हो चुकी अरावली के लिए गंभीर पारिस्थितिक जोखिम उत्पन्न करता है।
अरावली पर्वतमाला
अरावली पर्वतमाला विश्व की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में से एक मानी जाती है, जिसकी आयु लगभग एक अरब वर्ष से भी अधिक आँकी जाती है।
यह पर्वतमाला लगभग 700 किलोमीटर की लंबाई में फैली हुई है और इसका विस्तार भारत के चार राज्यों-गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली-के कुल 37 जिलों तक है।
अरावली का सबसे बड़ा भाग राजस्थान में स्थित है, जहाँ इसका विस्तार लगभग 560 किलोमीटर तक पाया जाता है।
यद्यपि करोड़ों वर्षों से चले आ रहे प्राकृतिक अपरदन (erosion), वनों की कटाई, खनन और अन्य मानवीय हस्तक्षेपों के कारण अरावली की ऊँचाई और भौतिक संरचना में काफी क्षरण हुआ है, फिर भी इसकी पारिस्थितिक भूमिका आज भी असाधारण और अपरिहार्य बनी हुई है।
यही कारण है कि अरावली को उत्तर-पश्चिम भारत की “पारिस्थितिक रीढ़” कहा जाता है।
उत्तर भारत के लिए अरावली का जलवायु एवं वायु-सुरक्षा महत्व
(क) थार मरुस्थल के विरुद्ध रेत अवरोधक (Sand Barrier) की भूमिका
अरावली पर्वतमाला पश्चिम में स्थित थार मरुस्थल और पूर्व में फैले उपजाऊ उत्तर भारतीय मैदानों के बीच एक प्राकृतिक ढाल के रूप में कार्य करती है।
थार मरुस्थल से उठने वाली तेज़ पश्चिमी हवाएँ अपने साथ बड़ी मात्रा में रेत और महीन धूल कण लेकर आती हैं, जिनकी गति और प्रसार को अरावली की पहाड़ियाँ काफी हद तक रोक लेती हैं।
इस प्रकार अरावली मरुस्थलीकरण को पश्चिमी भारत तक सीमित रखने में एक प्रभावी अवरोधक की भूमिका निभाती है।
यदि किसी कारणवश अरावली की यह प्राकृतिक ढाल कमजोर पड़ती है-जैसे बड़े पैमाने पर खनन, पहाड़ियों का समतलीकरण या वनों की कटाई-तो मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया पूर्व की ओर फैलने लगती है।
इसका प्रत्यक्ष प्रभाव दिल्ली-NCR, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों पर पड़ेगा।
इन क्षेत्रों में वायुमंडल में धूल-कणों (PM10 और PM2.5) की मात्रा बढ़ेगी, वायु गुणवत्ता और अधिक खराब होगी तथा दमा, हृदय रोग और अन्य श्वसन संबंधी बीमारियों के कारण शहरी स्वास्थ्य संकट और गहरा जाएगा।
इस प्रकार अरावली पर्वतमाला वायु गुणवत्ता बनाए रखने में प्रत्यक्ष रूप से दिखाई न देने वाली, लेकिन अत्यंत निर्णायक भूमिका निभाती है।
(ख) वर्षा और सूक्ष्म जलवायु (Micro-climate) के निर्माण में भूमिका
अरावली पर्वतमाला स्थानीय और क्षेत्रीय सूक्ष्म जलवायु (Micro-climate) को संतुलित करने में भी महत्वपूर्ण योगदान देती है।
यद्यपि इसकी ऊँचाई हिमालय जैसी नहीं है, फिर भी यह पर्वतमाला हवाओं की दिशा और गति को प्रभावित करती है, जिससे कुछ क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर वर्षा की संभावना बढ़ जाती है।
अरावली की पहाड़ियाँ वर्षा-जल को रोकने, उसे धीरे-धीरे नीचे पहुँचाने और आसपास के क्षेत्रों में नमी बनाए रखने में सहायक होती हैं।
अरावली क्षेत्र में होने वाली यह सीमित लेकिन जीवनदायी वर्षा कृषि गतिविधियों के लिए आधार प्रदान करती है, विशेषकर शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में।
इसके अतिरिक्त, यही वर्षा ग्रामीण पेयजल स्रोतों—जैसे कुएँ, बावड़ियाँ और ट्यूबवेल-को रिचार्ज करती है तथा शहरी जल सुरक्षा को भी सहारा देती है, खासकर उन शहरों में जहाँ सतही नदियाँ उपलब्ध नहीं हैं।
इस प्रकार अरावली पर्वतमाला वर्षा, तापमान और आर्द्रता के संतुलन के माध्यम से उत्तर भारत की जलवायु को अपेक्षाकृत स्थिर बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
जल पुनर्भरण (Groundwater Recharge): अरावली की अदृश्य लेकिन निर्णायक शक्ति
अरावली पर्वतमाला की सबसे महत्वपूर्ण पारिस्थितिक भूमिका उसका भूजल पुनर्भरण तंत्र है, जो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देता, लेकिन उत्तर-पश्चिम भारत की जल सुरक्षा की रीढ़ है।
अरावली की चट्टानें अत्यधिक छिद्रयुक्त, लंबे समय से अपक्षरित तथा प्राकृतिक दरारों और भ्रंशों से युक्त हैं।
इसी भूगर्भीय संरचना के कारण यहाँ गिरने वाला वर्षा जल सतह पर बहकर नष्ट होने के बजाय धीरे-धीरे जमीन के भीतर रिसता है और गहरे भूजल भंडारों (एक्विफ़र) को रिचार्ज करता है।
यही कारण है कि ऐतिहासिक रूप से इस क्षेत्र में बावड़ियाँ, कुएँ और झरने टिकाऊ जल स्रोत बने रहे हैं।
यह भूजल प्रणाली गुरुग्राम, फरीदाबाद और सोहना जैसे तेज़ी से बढ़ते शहरी क्षेत्रों के साथ-साथ राजस्थान और गुजरात की अनेक मौसमी नदियों की जलधारा को जीवन देती है।
यदि अरावली क्षेत्र में खनन, वनों की कटाई या बड़े पैमाने पर निर्माण गतिविधियाँ होती हैं, तो ये प्राकृतिक रिचार्ज ज़ोन नष्ट हो जाते हैं, जिससे भूजल स्तर तेजी से गिरता है और जल संकट अस्थायी न रहकर स्थायी रूप ले सकता है।
अरावली: एक प्रमुख जलविभाजक (Watershed System)
केंद्र सरकार की अरावली भूदृश्य बहाली कार्य योजना के अनुसार, अरावली पर्वतमाला भारत के सबसे महत्वपूर्ण जलविभाजकों में से एक है।
यह पर्वतमाला दो विशाल महासागरीय जल निकासी तंत्रों को अलग करती है। एक ओर, चंबल नदी, यमुना और उसकी सहायक नदियों के माध्यम से जल प्रवाह बंगाल की खाड़ी की ओर जाता है, जबकि दूसरी ओर माही, साबरमती और लूणी जैसी नदियों के माध्यम से जल अरब सागर की ओर प्रवाहित होता है।
इसके अतिरिक्त, अरावली क्षेत्र कई महत्वपूर्ण झीलों और आर्द्रभूमियों का घर है, जिनमें सांभर झील, पुष्कर झील, फतेह सागर, जयसमंद और सुल्तानपुर प्रमुख हैं।
ये जल निकाय भूजल और सतही जल के संतुलन को बनाए रखने के साथ-साथ स्थानीय जलवायु और जैव विविधता को भी सहारा देते हैं।
जैव विविधता एवं वन्यजीव महत्त्व
अरावली पर्वतमाला शुष्क और अर्ध-शुष्क पारिस्थितिकी तंत्र का एक अनूठा उदाहरण है, जहाँ वनस्पति और जीव-जंतुओं की विविधता पनपती है।
इस पर्वतमाला में कुल 22 वन्यजीव अभयारण्य स्थित हैं, जिनमें से 16 राजस्थान में हैं।
इन्हीं में से रणथंबोर, सरिस्का और मुकुंदरा तीन प्रमुख टाइगर रिज़र्व हैं।
यहाँ बाघ और तेंदुए जैसे शीर्ष शिकारी, भालू, सांभर, चीतल, काला हिरण, रेगिस्तानी लोमड़ी, लकड़बग्घा, भेड़िया, सियार, घड़ियाल और मगरमच्छ जैसी प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
अरावली पर्वतमाला इन प्रजातियों के लिए वन्यजीव गलियारों (Wildlife Corridors) का कार्य करती है।
यदि छोटी-छोटी पहाड़ियों को भी खनन या निर्माण के लिए नष्ट किया गया, तो ये गलियारे खंडित हो जाएंगे, जिससे मानव–वन्यजीव संघर्ष बढ़ेगा और जैव विविधता को गंभीर क्षति पहुँचेगी।
स्थानीय समुदाय और आजीविका
अरावली पर्वतमाला केवल पर्यावरणीय दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
इस क्षेत्र के ग्रामीण समुदाय जलाऊ लकड़ी, चारा, फल-सब्ज़ियाँ और औषधीय पौधों पर निर्भर रहते हैं।
अरावली का क्षरण इन पारंपरिक आजीविकाओं को कमजोर करता है, जिससे गरीबी, बेरोज़गारी और पलायन जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं और सामाजिक असुरक्षा बढ़ती है।
खनन विवाद और नई परिभाषा से उत्पन्न चुनौतियाँ
अरावली पर्वतमाला खनिज संपदा से भी समृद्ध है। यहाँ सीसा, जस्ता, तांबा, सोना और टंगस्टन जैसे खनिज पाए जाते हैं, साथ ही लिथियम, निकेल, ग्रेफाइट और दुर्लभ पृथ्वी तत्व (REE) जैसे महत्वपूर्ण खनिज भी मौजूद हैं, जो ऊर्जा संक्रमण, उच्च-प्रौद्योगिकी विनिर्माण और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए रणनीतिक रूप से आवश्यक माने जाते हैं।
समस्या यह है कि एक ओर सरकार अरावली ग्रीन वॉल परियोजना के माध्यम से मरुस्थलीकरण रोकने और पारिस्थितिकी बहाल करने की बात करती है, वहीं दूसरी ओर नई परिभाषा के कारण बड़े हिस्से को खनन और विकास गतिविधियों के लिए खोलने की संभावना बन रही है।
यह स्थिति विकास बनाम पर्यावरण की क्लासिक दुविधा को उजागर करती है।
आगे की राह
अरावली पर्वतमाला केवल एक पर्वत श्रृंखला नहीं है, बल्कि यह उत्तर भारत के लिए जलवायु नियंत्रक, वायु रक्षक, भूजल भंडार, जैव विविधता हॉटस्पॉट और सामाजिक–आर्थिक आधार का कार्य करती है।
इसलिए आवश्यक है कि अरावली की पारिस्थितिकी-आधारित परिभाषा अपनाई जाए, क्षेत्र-विशिष्ट सतत खनन योजनाएँ बनाई जाएँ, वन्यजीव गलियारों को कानूनी संरक्षण दिया जाए और भूजल पुनर्भरण क्षेत्रों को ‘नो-माइनिंग ज़ोन’घोषित किया जाए।
अरावली की रक्षा करना वास्तव में उत्तर भारत के भविष्य की रक्षा करना है।