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एथनोमेडिसिन : विलोपन की कगार पर

(प्रारंभिक परीक्षा : राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सामयिक घटनाएँ; मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र – 2, स्वास्थ्य) 

संदर्भ

आधुनिक चिकित्सा पद्धति से पूर्व भारत सहित विश्व के अनेक देशों में रोगों के निदान तथा उपचार के लिये पारंपरिक या नृजातीय चिकित्सा पद्धति (Ethno medicine) को अपनाया जाता था। भारत के आदिवासी एवं जनजातीय क्षेत्रों में आज भी इस पद्धति का प्रयोग होता है लेकिन पिछले कुछ समय से यह देखा गया गया है कि यह पद्धति धीरे धीरे समाप्त हो रही है और इसका स्थान आधुनिक चिकित्सा पद्धति (Allopathy) ले रही है।

नृजातीय चिकित्सा अथवा एथनोमेडिसिन (Ethno medicine) : एक परिचय

  • प्रत्येक समाज में सामान्य रोगों के उपचार के लिये कुछ पद्धतियाँ विकसित होती हैं जिनमे पारंपरिक तरीकों को अपनाया जाता है। हम कह सकते हैं कि यह स्वास्थ्य से संबंधित ज्ञान और सिद्धांत हैं जो लोगों को विरासत में मिलते हैं या वे एक संस्कृति में रहकर सीखते हैं।
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) एथनोमेडिसिन को विभिन्न संस्कृतियों के देशज सिद्धांतों, विश्वासों तथा ज्ञान, कौशल एवं प्रथाओं के योग के रूप में परिभाषित करता है।
  • इसमें पादप, जीव या खनिज आधारित औषधि, अध्यात्मिक उपचार, मानवीय तकनीक, ज्ञान या कौशल तथा व्यायाम को शामिल किया जाता है। शारीरिक तथा मानसिक रोग की रोकथाम, निदान, उपचार में इन सभी घटकों को एकल या संयोजन के आधार पर प्रयोग किया जाता है।
  • एथनोमेडिसिन इस सिद्धांत पर आधारित है कि मनुष्य शारीरिक और सांस्कृतिक/सामाजिक दोनों प्रकार का प्राणी है। यह एथनोमेडिसिन तथा आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सा के बीच का मूल अंतर है, जहाँ मानव को केवल शारीरिक प्राणी (मानसिक रोगों को छोड़कर) माना जाता है।

एथनोमेडिसिन की शुरुआत

  • आदिकाल से ही प्रजातीय समूहों में जड़ी-बूटियों का प्रयोग उपचार हेतु होता रहा है। भारत, ग्रीस तथा अरब सहित विश्व की अनेक प्राचीन सभ्यताओं ने अलग-अलग चिकित्सा पद्धतियों को विकसित किया लेकिन वे सभी मुख्य रूप से पादप आधारित थीं।
  • अलग-थलग रहने वाले जनजातीय समुदाय रोगों के उपचार हेतु स्वंय की विकसित चिकित्सा पद्धति को ही अपनाते हैं।
  • डब्ल्यू.एच.ओ. के एक अनुमान के अनुसार, विकासशील देशों में लगभग 88% लोग अपनी प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की जरूरतों के लिये मुख्य रूप से पारंपरिक दवाओं पर निर्भर हैं।
  • भारत के अधिकांश लोक समुदायों में स्वास्थ्य देखभाल की जीवंत पारंपराएँ विद्यमान हैं, जो स्थानीय रूप से उपलब्ध वनस्पतियों तथा जीवों के प्रयोग पर आधारित हैं।
  • इसके अंतर्गत माँ-शिशु की देखभाल, घरेलू उपचार के साथ-साथ सांप के विष, दंत-चिकित्सा, अस्थि-भंजन और पुरानी बीमारियों से संबंधित उपचारों को शामिल किया जाता है।

एथनोमेडिसिन की प्रक्रिया

  • एथनोमेडिसिन निदान से लेकर उपचार तक होने वाला एक समूह-आधारित अभ्यास है जिसमें बीमारियों को, किसी समूह के सदस्य के सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन से परिभाषित किया जाता है।
  • इसमें लोगों का एक समूह इलाज के लिये आवश्यक सामग्रियों को इकट्ठा करता है और लेप या काढ़ा तैयार करता है। इसमें उपचार की एक विस्तृत प्रक्रिया शामिल होती है जिसमें लोगों का एक समूह या पूरा गाँव भाग लेता है और मुख्य उपचारकर्ता की उपचार प्रक्रिया में मदद करता है।
  • कभी-कभी इसमें उपचार प्रक्रिया जनजातीय या स्वदेशी धर्म की प्रथाओं पर आधारित होती है जिसमें किसी वृक्ष या स्थान या प्रकृति की पूजा की जाती है।
  • प्रत्येक समुदाय में किसी विशेष स्थान या वृक्ष को पवित्र माना जाता है; उदाहरणस्वरूप, उराँव जनजाति साल के वृक्ष (Shorea robusta tree)  तथा कदम्ब (Nauclea parvifolia) के पेड़ के आसपास की जगह की पूजा करती है।

एथनोमेडिसिन के समक्ष संकट

  • एथनोमेडिसिन पद्धति में औषधि के रूप में जड़ी-बूटियों का प्रयोग किया जाता है जिन्हें जंगलों से प्राप्त किया जाता है। लेकिन जंगल के वन विभाग के अंतर्गत आने से यह पद्धति काफी हद तक प्रभावित हुई है।
  • टिम्बर राज्य के लिये राजस्व का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बन गया है जिसके कारण वनों की कटाई में वृद्धि हुई है। साथ ही, खनन, कृषि, उद्योग, निर्माण आदि के लिये भी बड़े पैमाने पर वनों की कटाई हो रही है जिससे वनों में पारंपरिक या औषधीय पादप समाप्त हो रहे हैं।
  • इसके अतिरिक्त, कई औषधीय पादपों को खरपतवार घोषित किया गया है, जिससे धीरे-धीरे यह समाप्त हो रहे हैं।
  • इस चिकित्सा पद्धति से संबंधित दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं हैं और न ही इन्हें संहिताबद्ध ही किया गया है। यह पद्धति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सामान्यता मौखिक या अनौपचारिक रूप से हस्तांतरित होती है, वर्तमान में इस पद्धति को जानने वाले कम लोग ही बचे हैं जिस कारण यह धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है।
  • वर्तमान में आधुनिक तथा एलोपैथी औषधियों का प्रयोग बढ़ रहा है, जनजातीय समूहों में भी इनका प्रचलन आरम्भ हो गया है जिससे लोग एथनोमेडिसिन की बजाय एलोपैथी को अपना रहे हैं।
  • एथनोमेडिसिन की तुलना में आधुनिक चिकित्सा पद्धति अधिक विकसित है जिस कारण लोग आधुनिक चिकित्सा को अधिक अपना रहे हैं।
  • इसके अतिरिक्त, पिछले कुछ दशकों में हर्बल उपचार में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है जिस कारण औषधीय पौधों की बड़े पैमाने पर कटाई तथा पशुओं के अवैध शिकार में भी वृद्धि हुई है। इससे एथनोमेडिसिन में प्रयुक्त होने वाले औषधीय पौधे नष्ट हो रहे हैं। 

एथनोमेडिसिन का भविष्य

  • एथनोमेडिसिन एक ग़ैर-संहिताबद्ध पद्धति है इसलिये इसकी उपयोगिता को मापना एक चुनौती है। हालाँकि, एलोपैथी के प्रभाव से, एथनोमेडिसिन ने भी आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के समान नाम वाले रोगों की पहचान करना शुरू कर दिया है।
  • एथनोमेडिसिन के कार्यान्वयन में एकरूपता लाने के तत्काल प्रयास किये जाने चाहिये हालाँकि भारतीय गुणवत्ता परिषद् तथा फाउंडेशन फ़ॉर रिवाइटेलाइजेशन ऑफ़ लोकल हेल्थ ट्रेडिशन (FRLHT) ने इसके अंतर्गत उपचार के प्रमाणन के लिये विशेष योजना तैयार की है।
  • भविष्य हेतु एथनोमेडिसिन पद्धति को संरक्षित करने के लिये इसका दस्तावेज़ीकरण आरंभ किया गया है। इसके तहत झारखंड में लगभग पचास पौधों के विभिन्न भागों का उपयोग करते हुए 29 विभिन्न प्रकार के लेप और काढ़े तैयार करने के तरीकों का दस्तावेज़ीकरण किया गया है।
  • चार्ल्स एनीनम ने अपने लेख ‘इकोलॉजी एंड एथनोमेडिसिन’ में लिखा है कि विभिन्न समुदायों के लोकगीत वर्तमान नृजातीय औषधियों को खोजने में महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शक साबित हुए हैं। कई महत्त्वपूर्ण आधुनिक औषधियों (जैसे- डिजीटॉक्सिन, रिसरपाइन, टूबोक्यूराइन, एफेड्रिन आदि) को लोककथाओं के प्रमुख नामों से खोजा गया है। अतः एथनोमेडिसिन के विकास हेतु लोकगीतों एवं लोककथाओं की पड़ताल होनी चहिये।
  • पिछले कुछ समय से लोग आधुनिक चिकित्सा या एलोपैथी औषधियों के स्थान पर पारंपरिक पद्धतियों व तरीकों को अपना रहे हैं अतः एथनोमेडिसिन के संदर्भ में भी यह उम्मीद की जा सकती है कि जनजातीय समुदायों के साथ-साथ अन्य लोग भी इस पद्धति को अपनाएंगे।

निष्कर्ष

एथनोमेडिसिन दूर-दराज के क्षेत्रों तथा नृजातीय समूहों के लिये रोगों के उपचार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। साथ ही, यह इनकी दैनिक आजीविका में भी उल्लेखनीय योगदान देती है। वर्तमान समय में जब देश की एक बड़ी आबादी अभी भी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित है तो इस आबादी के लिये यह चिकित्सा एक वरदान है। अतः एथनोमेडिसिन के विकास तथा संरक्षण की दिशा प्रयास होने चाहिये। यद्यपि कुछ क्षेत्रों में पारंपरिक औषधीय पौधों के बारे में प्राप्त जानकारी का दस्तावेज़ीकरण किया गया है लेकिन औषधीय पौधों के उपयोग से संबंधित जानकारी प्राप्त करने की दिशा में और अधिक प्रयासों व शोध की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, नृजातीय चिकित्सा पद्धति के संरक्षण के उपायों को भी तत्काल लागू किया जाना चाहिये।

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