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भारत में दलहन नीति की आवश्यकता

(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3: देश के विभिन्न भागों में फसलों का पैटर्न, सिंचाई प्रणाली, कृषि उत्पाद का भंडारण तथा विपणन, संबंधित विषय और बाधाएँ; न्यूनतम समर्थन मूल्य से संबंधित विषय; जन वितरण प्रणाली- उद्देश्य व सुधार)

दाल और आहार

  • भारत और विश्व में कई दलहनी फसलें उगाई जाती हैं। इन फसलों में चना, अरहर, मसूर, मटर आदि प्रमुख हैं। भारत में अखिल भारतीय चिकित्सा परिषद् की रिपोर्ट के अनुसार, आहार में विभिन्न रंगो के खाद्य पदार्थों का बहुत महत्त्व है।
  • 5 वर्ष तक के आयु के बच्चों को तीन रंग के भोजन (तिरंगा खाना) और वयस्कों को सात रंग के भोजन (सतरंगी खाना) की बात कही गई है। दालों का इसमें अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है।

    भारत में दाल उत्पादन की स्थिति 

    • भारत दालों का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता है। दालों की आपूर्ति अधिकांश योजनावधि में माँग की तुलना में कम ही रही है, जिससे देश को बड़ी मात्रा में दालों का आयात करना पड़ा है।
    • खाद्यान्न पदार्थों में अमेरिका पर निर्भरता और अकाल से ग्रस्त भारतीयों को हरित क्रांति व दुग्ध क्रांति ने खाद्य पदार्थों की मात्रा में वृद्धि तो कर दी, किंतु गुणात्मक रूप से देश की अधिकांश जनसंख्या ‘प्रोटीन इन्फ्लेशन’ के कारण प्रोटीन की कमी का सामना कर रही है।
    • वर्ष 1950-51 से 2018-19 तक की योजनावधि में अनाज और दाल से संबंधित कृषि उत्पादन की प्रवृत्ति के तुलनात्मक अध्ययन के अनुसार इस दौरान अनाज में गेहूं का इंडेक्स 64 से बढ़कर 991 तक पहुँच गया, जबकि दालों का इंडेक्स 84 से बढ़कर मात्र 240 तक के स्तर तक ही पहुँच सका है।

    माँग व आपूर्ति का अंतर 

    • माँग और आपूर्ति का अंतर मूल्यों पर दबाव डालता है और प्रोटीन के इस शाकाहारी स्रोत को सीमांत लोगों की पहुँच से बाहर कर देता है।
    • वर्ष 2050 तक देश में 39 मिलियन टन दालों की आवश्यकता होगी। इसके लिये दालों के उत्पादन में 2.2% वार्षिक वृद्धि की आवश्यकता है। इसे ध्यान में रखते हुए वर्ष 2007 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन की शुरुआत की गई और दाल उत्पादन के लिये 16 राज्यों को इसमें शामिल किया गया।
    • इस मिशन का उद्देश्य कृषि व संबद्ध क्षेत्र की वृद्धि दर 4 प्रतिशत पर लाना था जो राष्ट्रीय कृषि नीति 2000 के उद्देश्यों के ही अनुरूप था।
    • माँग व आपूर्ति के असंतुलन ने एक बड़े उपभोक्ता देश की दालों के आयात पर निर्भरता बढ़ा दी है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1980-81 में 0.7 मिलियन टन दालों का आयात हो रहा था, जो वर्ष 2016-17 में बढ़कर 5.19 मिलयन टन हो गया।

          आर्थिक प्रभाव 

          • दालों के आयात की वृद्धि दर वर्तमान में 2 से 3 प्रतिशत के आस-पास बनी हुई है, जबकि दालों का उत्पादन 1 से 2 प्रतिशत के बीच ही स्थिर बना हुआ है। इससे उपभोक्ता माँग बढ़ने के कारण आयात बिल में वृद्धि हो रही है।
          • भारत में दालों के उत्पादन में धीमी वृद्धि के कारण दालों की प्रति व्यक्ति उत्पादकता में लगातार गिरावट आई है। देश में दालों की बढ़ती माँग के कारण विदेशी मुद्रा की खपत बढ़ी है, जो विदेशी मुद्रा भंडार पर एक भार है।
          • हेडलाइन इन्फ्लेशन की बात की जाए तो उसमें भी खाद्य पदार्थों में प्रोटीन इन्फ्लेशन एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है, जिस पर नीति-निर्माताओं को एक दीर्घकालिक नीति बनाने की आवश्यकता है।
          • दालों के उत्पादन में तथा भण्डारण में सहकारिता मॉडल को विकसित कर किसानों को उपज का एक महत्त्वपूर्ण पोर्टफोलिया दालों के रूप में उपलब्ध कराया जा सकता है।

                कम उत्पादकता का कारण

                • भारतीय कृषि उत्पादन काफ़ी हद तक वर्षा पर निर्भर है और कुछ विशिष्ट दलहन फसलें केवल वर्षा आधारित क्षेत्रों में ही उगाई जाती हैं, जो दालों की कृषि को तुलनात्मक रूप से हतोत्साहित करता है।
                • कुछ नीतिकारों के अनुसार, हरित क्रांति मूलतः उन्नत बीज, उर्वरक और सिंचाई पर आधारित थी किंतु इसमें उन्नत बीज और उर्वरक पर सिंचाई की तुलना में अधिक निवेश किया गया। दीर्घकालिक परिणाम के रूप में सिंचाई परियोजनाओं पर निवेश दालों के उत्पादन में वृद्धि को और तीव्र करता।
                • यही कारण है कि गंगा के मैदानों में अनाज व नकदी फसलें तेज़ी से उपजाई जा रही हैं, जबकि दालों को मध्य प्रदेश व राजस्थान के कम बंजर व कम सिंचाई सुविधा वाली भूमि पर उपजाया जा रहा है। यह किसानों में दालों के प्रति आत्मविश्वास उत्पन्न नहीं कर पाता है।
                • हालाँकि, पिछले एक दशक में सिंचाई परियोजनाओं पर काफी काम हुआ है और प्रति हेक्टेयर सिंचित रकबा बढ़ा है, जो भविष्य में दाल उत्पादक किसानों को अपनी ओर आकर्षित कर सकता है।
                • विभिन्न योजनावधि में दालों के प्रति नीतिगत उपेक्षा, कम और अनिश्चित पैदावार, प्रति हेक्टेयर कम उत्पादकता और दालों का जन-वितरण प्रणाली के दायरे में ना आने जैसे कारणों से किसानों ने दाल उत्पादन पर अधिक महत्त्व नहीं दिया।
                • दालें मूलतः जन-वितरण प्रणाली का हिस्सा नहीं रही हैं, जिसके परिणामस्वरूप दालों के बफर स्टाक पर सरकारों ने ध्यान नहीं दिया। मूल्य निर्धारण के लिये राज्य हस्ताक्षेप से न्यूनतम समर्थन मूल्य की जो व्यवस्था लागू की गई, उसका लाभ कुल 24 में से सीमित फसलों- विशेष तौर पर गेहूँ और चावल को ही मिल पाया।

                          दलहन का महत्त्व 

                          • दाल उच्च स्तरीय प्रोटीन के साथ अनाज का पूरक भी है। दालों में शरीर निर्माण गुणों वाले विभिन्न अमीनो अम्ल की उपस्थिति के कारण इनका सेवन किया जाता है। इनमें औषधीय गुण भी होते हैं।
                          • दलहन के उत्पाद जैसे पत्ते, पॉड कोट और चोकर पशुओं को सूखे चारे के रूप में दिये जाते हैं। कुछ दलहनी फसलें जैसे चना, लोबिया, उरदबीन और मूंग को हरे चारे के रूप में पशुओं को खिलाया जाता है।
                          • मूंग के पौधों का उपयोग हरी खाद के रूप में भी किया जाता है जो मृदा स्वास्थ्य में सुधार के साथ-साथ इसके पोषक तत्त्वों में वृद्धि करता है।
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