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मध्यम-आय पाश से बाहर निकलने की आवश्यकता

(प्रारंभिक परीक्षा: आर्थिक और सामाजिक विकास)
(मुख्य परीक्षा : सामान्य अध्ययन, प्रश्नपत्र 2 - भारतीय अर्थव्यवस्था तथा योजना, संसाधनों को जुटाने, प्रगति, विकास तथा रोज़गार से संबंधित विषय, उदारीकरण का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव।)

संदर्भ

आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को अभी सेमध्यम-आय पाश’ (Middle-Income Trap) में फँसने की आशंकाओं से बाहर निकलने के लिये तैयार रहने की आवश्यकता है। क्योंकि इसके कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में गिरावट का जोखिम बना हुआ है।

मध्यम-आय पाश

  • भारत के पास अपने मानव संसाधनों का लाभ उठाने तथा जनसांख्यिकीय बोझ (Demographic Burden) की स्थिति का सामना करने से पूर्व संवृद्धि क्षमता के लिये लगभग 34 वर्ष कीविंडोउपलब्ध है।
  • यह अवधि, उच्च आय के संदर्भ में भारत की संवृद्धि यात्रा का एक और महत्त्वपूर्ण पड़ाव होगा।
  • बहुत-से देशमध्यम-आय से उच्च-आयवर्ग तक पहुँचने में विफल रहे हैं, जो एक समस्या से ग्रसित है, जिसे अब आमतौर परमध्यम-आय पाशकहा जाता है।
  • उक्त अवधारणा की कल्पना सबसे पहले विश्व बैंक के अर्थशास्त्रियों ने की थी, जिन्होंने पाया कि 101 विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में से, जिन्हें वर्ष 1960 मेंमध्यम आयके रूप में वर्गीकृत किया गया था, केवल 13 ही वर्ष 2008 तकसमृद्ध राष्ट्रबनने में सफल हुए।
  • भारत, इस संकट से बचने और उच्च आय वर्ग में जाने के लिये अपने जनसांख्यिकीय लाभांश का प्रयोग कर सकता है।

उत्पादकता में सुधार की आवश्यकता

  • कुछ देश उत्पादकता में सुधार जैसी विशेषता के कारण उच्च आय की स्थिति में पहुँचने अथवा संक्रमण (Transition) करने में सफल हुए हैं।
  • उत्पादकता वाली कृषि से उच्च उत्पादकता वाले क्षेत्रों में श्रम के स्थानांतरण, जैसे कि विनिर्माण, एकप्राथमिक चैनलरहा है, के माध्यम से आज की उन्नत अर्थव्यवस्थाओं ने अपने स्तर को ऊपर उठाया है।
  • भारत में, विगत एक दशक में श्रम उत्पादकता की वृद्धि में लगातार गिरावट आई है।
  • अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के एक अनुमान के अनुसार, प्रति कर्मचारी उत्पादन की वार्षिक वृद्धि दर वर्ष 2010 में 7.9 प्रतिशत से गिरकर वर्ष 2019 में 3.5 प्रतिशत हो गई है।
  • भारत के विनिर्माण क्षेत्र भी निम्न संवृद्धि दर से गुज़र रहा है। वर्ष 2020-21 में, भारत के सकल मूल्य वर्धित (GVA) में यह केवल 14.5 प्रतिशत था, जो 2011-12 में 17.4 प्रतिशत से कम था।

विनिर्माण क्षेत्रक को मज़बूत करना

  • उत्पादकता में सुधार के लिये एक आवश्यक कदम होगा कि विनिर्माण क्षेत्रक को मज़बूत किया जाए।
  • 42.5 प्रतिशत से अधिक कार्यबल अभी भी कृषि में संलग्न हैं, खेतों से कारखाने की नौकरियों में श्रमिकों का स्थानांतरण, अर्थव्यवस्था के उत्पादकता वृद्धि का स्रोत हो सकता है।
  • भारत के विनिर्माण क्षेत्र को पुनर्जीवित करने की रणनीतियों की समीक्षा की आवश्यकता है, जिसमेंऔद्योगिक श्रम संबंधसबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्वों में से एक है, विशेषतया श्रम उत्पादकता।

कठोर श्रम कानून

  • भारत में श्रम कानून कठोर, जटिल और पुराने हैं।
  • वर्तमान में, औद्योगिक प्रतिष्ठानऔद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947’ के दायरे में आने से बचने के लिये 100 से कम व्यक्तियों को रोज़गार देने का प्रयास करते हैं। साथ ही, कारखानों में श्रमिकों की संख्या 20 (विद्युत रहित) ही रखते हैं।
  • उद्योग के वार्षिक सर्वेक्षण 2017-18 के अनुसार, भारत में लगभग 47 प्रतिशत कंपनियों ने 20 से कम श्रमिकों को रोज़गार दिया।
  • इन श्रम कानूनों ने फर्मों को छोटे और अप्रतिस्पर्धी बने रहने के लिये प्रोत्साहित किया, जिससे उत्पादकता प्रभावित हुई है।
  • नए श्रम कानून लागू होने के बाद, औद्योगिक प्रतिष्ठानों में छँटनी से संबंधित सीमा बढ़कर 300 श्रमिकों तक हो जाएगी।
  • हालाँकि, इस सीमा से ऊपर की कंपनियों द्वाराव्यक्तिगत और सामूहिक बर्खास्तगीके लिये अभी भी सरकार की पूर्व अनुमति की आवश्यकता होगी।
  • गौरतलब है कि चीन, वियतनाम और बांग्लादेश जैसे अन्य देश, जिनके साथ भारत, विदेशी निवेश और निर्यात बाज़ारों के लिये प्रतिस्पर्द्धा करता है, को बर्खास्तगी के लियेप्रशासनिक या न्यायिक निकायोंके अनुमोदन की आवश्यकता नहीं है।
  • इसलिये, हाल के सुधारों के बावजूद, भारत के श्रम कानून अपने प्रतिस्पर्द्धी देशों की तुलना में कठोर बने हुए हैं।

प्रौद्योगिकी-गहन विनिर्माण क्षेत्रक

  • भारत को अन्य बातों के साथ-साथअनुसंधान और विकास’ (R&D) निवेश, बेहतर प्रबंधन प्रथाओं और नई प्रौद्योगिकियों को अपनाने के माध्यम सेक्षेत्र के भीतरउत्पादकता में सुधार पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
  • मध्य-आय पाश में फँसने वाले कई देशों का अनुभव प्रौद्योगिकी-गहन क्षेत्रों के क्रमिक सुदृढ़ीकरण की आवश्यकता का प्रमाण है।
  • एक अर्थव्यवस्था के विकास-पथ में एक बिंदु आता है, जब श्रम सस्ता होना बंद हो जाता है, उसे अपने ऊपर की ओर बढ़ने के लिये किसी अन्य तरीके से खुद को बदलने की आवश्यकता होती है।
  • अर्थव्यवस्थाओं को उस मुकाम पर पहुँचने से पहले उच्च मूल्य वर्धित, प्रौद्योगिकी-गहन गतिविधियों में नवाचार को बढ़ावा देना आवश्यक है।
  • विश्व बैंक के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2019 में भारत के विनिर्माण निर्यात मेंहाई-टेक निर्यातका हिस्सा केवल 10.3 प्रतिशत था, जो वर्ष 2009 में 9.7 प्रतिशत के अपने हिस्से में मामूली सुधार था।
  • प्रतिद्वंद्वी देशों की हिस्सेदारी उक्त संदर्भ में बहुत अधिक थी, चीन में 31%, ब्राजील में 13%, वियतनाम में 40% और थाईलैंड में 24%.
  • विगत दो दशकों में भारत में कम आर.एंड डी. व्यय, सकल घरेलू उत्पाद के मात्र 0.64% से 0.86% तक, ने देश को पीछे धकेल दिया है।

प्रौद्योगिकी-गहन विनिर्माण की पहचान

  • तकनीकी गहन विनिर्माण की आवश्यकता को स्वीकार करते हुए, सरकार ने स्थानीय मूल्यवर्धन का अधिक से अधिक हिस्सा सुनिश्चित करने के लियेप्रोडक्शन-लिंक्ड इंसेंटिवयोजना शुरू की है।
  • यह योजना प्रौद्योगिकी-गहन विनिर्माण में विदेशी निवेश को आकर्षित करेगा। इसके अतिरिक्त, भारत में फर्मों द्वाराअनुसंधान एवं विकासमें निवेश के लिये अधिक प्रोत्साहन की भी आवश्यकता है।
  • इस दिशा में पहला कदम आर.एंड डी. पर कर छूट को बहाल करना हो सकता है, यहाँ तक कि उन कंपनियों के लिये भी, जो 22% से कम निगम कर  दायरे में आती हैं।

निष्कर्ष

अर्थव्यवस्था में उत्पादकता में सुधार के लिये उपयुक्त हस्तक्षेप की आवश्यकता है, क्योंकि संवृद्धि क्षमता के लिये उपलब्ध 34 वर्ष कीविंडोकी समयावधि एक छोटी अवधि है।

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