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भविष्य में महामारियों से बचाव: जलवायु परिवर्तन पर अंकुश व पर्यावरण की रक्षा

(प्रारम्भिक परीक्षा: राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की सामयिक घटनाएँ, पर्यावरणीय पारिस्थितिकी और जलवायु परिवर्तन सम्बंधी सामान्य मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3: पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन)

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञ समूह ने महामारियों और भविष्य में उनकी रोकथाम के सम्बंध में एक रिपोर्ट ज़ारी की है।

पृष्ठभूमि

प्रत्येक वर्ष 6 जुलाई को ‘विश्व पशुजन्य रोग दिवस’ (World Zoonoses Day) मनाया जाता है। इसी दिन वर्ष 1885 में फ्रांसीसी जीव विज्ञानी लुई पाश्चर ने सफलतापूर्वक रेबीज़ का पहला टीका (Vaccine) तैयार किया था। विदित है की रेबीज़ भी एक ज़ूनोटिक बीमारी (Zoonotic Disease- पशुओं से मनुष्यों में फैलने वाला रोग) है।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट

  • संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों के अनुसार, भूमि क्षरण, वन्यजीव शोषण, गहन कृषि और जलवायु परिवर्तन कोरोनोवायरस जैसी जानवरों से मनुष्यों में फैलने वाली बीमारियों को जन्म दे रहे हैं
  • संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) और अंतर्राष्ट्रीय पशुधन अनुसंधान संस्थान (ILRI) ने संयुक्त रूप से ऐसी बीमारियों (ज़ूनोटिक) के लिये ज़िम्मेदार सात प्रवृत्तियों की पहचान की है। साथ ही, भविष्य में ऐसी महामारियों की रोकथाम के लिये सरकारों से कदम उठाने का आह्वान किया।

ज़ूनोटिक बीमारियों के लिये ज़िम्मेदार सात प्रवृत्तियाँ

  • विशेषज्ञों ने जिन सात प्रवृत्तियों का विश्लेषण किया है, वे अग्रलिखित हैं:
    • पशुजन्य प्रोटीन की बढ़ती माँग
    • प्राकृतिक संसाधनों का निष्कर्षण और शहरीकरण
    • गहन और असंधारणीय कृषि
    • वन्यजीवों का शोषण
    • यात्रा और परिवहन में हो रही वृद्धि
    • खाद्य आपूर्ति सम्बंधी बदलाव
    • जलवायु परिवर्तन
  • विज्ञान स्पष्ट रूप से कहता है कि यदि वन्यजीवों का शोषण करने के साथ-साथ पारिस्थितिक तंत्र को नष्ट किया जाता रहा तो आने वाले वर्षों में जानवरों से मनुष्यों में फैलने वाली इन बीमारियों की एक विस्तृत श्रृंखला देखी जा सकती है।

मनुष्यों, जानवरों और पर्यावरण के बीच पारस्परिक क्रियाओं में वृद्धि

  • मनुष्यों में ज्ञात संक्रामक रोगों में लगभग 60 % और सभी उभरते हुए (नए) संक्रामक रोगों में से लगभग 75 % बीमारियाँ ज़ूनोटिक हैं। बड़े पैमाने पर इसका कारण  मनुष्यों, जानवरों और पर्यावरण के बीच बढ़ता टकराव है।
  • इस बात की सम्भावना सबसे अधिक है कि कोरोनावायरस भी चमगादड़ से मनुष्यों में फैला है। साथ ही, रिपोर्ट में कहा गया है कि इबोला, मध्य पूर्व रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (MERS-CoV), पश्चिमी नील ज्वर (West Nile Fever), ज़ीका वायरस, सार्स (SARS) और रिफ़्ट वैली फ़ीवर सहित कई बीमारियाँ हैं जो हालिया वर्षों में वाहक पशुओं से मनुष्यों में प्रसारित हुई हैं।
  • प्रत्येक वर्ष लगभग दो मिलियन लोग उपेक्षित या नज़रंदाज कर दिये जाने वाले ज़ूनोटिक रोगों से मर जाते हैं। इन मरने वाले लोगों में से ज़्यादातर आबादी विकासशील देशों से है।
  • रिपोर्ट के अनुसार, पिछले दो दशकों के दौरान ज़ूनोटिक रोगों से $ 100 बिलियन से अधिक का आर्थिक नुकसान हुआ है। इसमें कोविड-19 से हुए नुकसान को शामिल नहीं किया गया है, जिसके अगले कुछ वर्षों में $ 9 ट्रिलियन तक पहुँचने की उम्मीद है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य में निवेश की आवश्यकता

  • ज़ूनोटिक रोगों को नियंत्रित करने के अधिकांश प्रयासों में ‘सक्रियता’ के बजाय ‘प्रतिक्रियाशीलता’ देखी जाती है। सरकारों को सार्वजनिक स्वास्थ्य, धारणीय कृषि, वन्यजीवों के अति-शोषण पर रोक तथा जलवायु परिवर्तन को कम करने सम्बंधी उपायों में निवेश करने की आवश्यकता है।
  • विशेषज्ञों ने कहा कि अफ्रीका ज़ूनोटिक रोगों की वृद्धि के मामलें में उच्च जोखिम पर है क्योंकि यहाँ पर दुनिया के सबसे बड़े वर्षावन होने के साथ-साथ मानव आबादी में भी तेज़ी से वृद्धि हो रही है।
  • मौजूदा ज़ूनोटिक रोगों के तीव्र होने और नए रोगों के उद्भव व प्रसार के लिये अफ्रीका महाद्वीप की वर्तमान परिस्थितियाँ अत्यधिक उपयुक्त हैं। हालाँकि, इबोला और अन्य उभरती बीमारियों के अनुभवों के कारण अफ्रीकी देश बीमारी के प्रकोप को प्रबंधित करने के लिये सक्रिय तरीकों का प्रयोग कर रहे हैं।
  • कुछ अफ्रीकी देशों ने ‘एकल स्वास्थ्य’ के दृष्टिकोण अपनाया है, जिसके अंतर्गत सार्वजनिक स्वास्थ्य, पशु चिकित्सा और पर्यावरण विशेषज्ञता को एकजुट किया जाता है। यह बिमारियों के मनुष्यों में फैलने से पूर्व जानवरों में उसकी पहचान करने के साथ-साथ इलाज़ करने में मदद कर सकता हैं।
  • विशेषज्ञों ने सरकारों से भूमि के सतत उपयोग व पशुपालन के लिये प्रोत्साहन प्रदान करने तथा खाद्य उत्पादन के लिये ऐसी रणनीति का विकास करने का आग्रह किया है जो निवास-स्थानों और जैव विविधता के विनाश पर न निर्भर हो।

आगे की राह

इस प्रकार के प्रकोपों ​​से न केवल गम्भीर बीमारी व मौतें होती हैं, बल्कि दुनिया के कुछ सबसे गरीब लोगों के लिये बड़े आर्थिक नुकसान भी होते हैं। भविष्य में इस तरह के प्रकोपों ​​को रोकने के लिये प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा के बारे में और अधिक विचारशील होने की ज़रूरत है। सार्वजनिक स्वास्थ्य, पशु चिकित्सा और पर्यावरण विशेषज्ञता को भी समन्वित करने की ज़रुरत है।

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