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हिमालयी क्षेत्र में जलविद्युत परियोजनाओं से संबंधित जोखिम

(प्रारंभिक परीक्षा- आर्थिक और सामाजिक विकास & पर्यावरणीय पारिस्थितिकी, जैव-विविधता और जलवायु परिवर्तन संबंधी सामान्य मुद्दे)
(मुख्य परीक्षा, सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र- 3 : बुनियादी ढाँचाः ऊर्जा & संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, पर्यावरण प्रभाव का आकलन।)

संदर्भ

अगस्त माह में पर्यावरण मंत्रालय ने उच्चतम न्यायालय में एक शपथपत्र के माध्यम से स्पष्ट किया कि उसने हिमालयी क्षेत्र में 7 जलविद्युत परियोजनाओं को मंजूरी प्रदान की है, जो  परियोजनाएँ निर्माण के ‘उन्नत चरणों’ में हैं। इनमें से एक जोशीमठ (उत्तराखंड) स्थित 512 मेगावाट की ‘तपोवन विष्णुगढ़ परियोजना’ भी है, जो फरवरी 2021 में आई बाढ़ से क्षतिग्रस्त हो गई थी।

पृष्ठभूमि

  • वर्ष 2013 में केदारनाथ में आई बाढ़ के उपरांत उच्चतम न्यायालय ने उत्तराखंड में जलविद्युत परियोजनाओं के विकास पर रोक लगा दी थी।
  • पर्यावरण मंत्रालय ने ‘अलकनंदा और भागीरथी बेसिन’ में 24 ऐसी प्रस्तावित जलविद्युत परियोजनाओं की जाँच के लिये पर्यावरणविद् रवि चोपड़ा के नेतृत्व में 17 सदस्यीय विशेषज्ञ समिति का गठन किया था। इस जाँच में गंगा की कई अन्य सहायक नदियाँ भी शामिल थीं।
  • ‘चोपड़ा समिति’ ने निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि 23 परियोजनाओं से उक्त क्षेत्र की पारिस्थितिकी पर ‘अपरिवर्तनीय प्रभाव’ (Irreversible Impact) पड़ेगा।
  • इसके पश्चात् छह निजी परियोजना डेवलपर्स की परियोजनाओं को बंद करने की संस्तुति की गई थी। इसके प्रतिउत्तर में  ‘निजी डेवलपर्स’ स्वयं का बचाव करते हुए कहा कि उनकी परियोजनाओं को ‘केदारनाथ त्रासदी’ से पूर्व ही मंजूरी दे दी गई थी, अतः उन्हें इसे जारी रखने की अनुमति दी जानी चाहिये।

उच्चतम न्यायालय का निर्देश

  • उच्चतम न्यायालय ने मामले की जाँच के लिये एक नई समिति गठित करने का निदेश दिया।
  • भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर के विनोद तारे के नेतृत्व में गठित समिति ने निष्कर्ष प्रस्तुत कि उक्त परियोजनाओं के ‘महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय प्रभाव’ हो सकते हैं।
  • वर्ष 2015 में पर्यावरण मंत्रालय ने बी.पी. दास की अध्यक्षता में एक और समिति का गठन किया गया। गौरतलब है कि बी.पी. दास पूर्व में गठित समिति के सदस्य रह चुके थे।
  • दास समिति ने डिज़ाइन से संबंधित कुछ संशोधनों के साथ छह परियोजनाओं को जारी रखने की सिफारिश की। ये सिफारिशें पर्यावरण मंत्रालय के रुख का समर्थन कर रहीं थीं।

वर्तमान स्थिति

  • तत्कालीन जल संसाधन मंत्री उमा भारती के नेतृत्व में उनका मंत्रालय गंगा में जलविद्युत परियोजनाओं का निरंतर विरोध कर रहा था।
  • ‘स्वच्छ गंगा के लिये राष्ट्रीय मिशन’ के प्रभारी के रूप में जल संसाधन मंत्रालय ने कहा कि नदी की स्वच्छता सभी मौसमों में ‘न्यूनतम जल प्रवाह स्तर’ पर आधारित है, अतः प्रस्तावित परियोजनाएँ इसमें बाधा उत्पन्न कर सकती हैं।
  • वर्ष 2019 में गठित नए जल शक्ति मंत्रालय ने 24 परियोजनाओं में से सात को समायोजित करने के लिये अपने रुख में परिवर्तन किया।
  • मंत्रालय का वर्तमान रुख यह है कि उक्त परियोजनाओं को छोड़कर वह गंगा नदी बेसिन में नई परियोजनाओं के ‘पक्ष में नहीं’ है।
  • गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय में अभी भी उपरोक्त परियोजनाओं पर सुनवाई चल रही है।

परियोजनाओं के समक्ष विद्यमान चुनौतियाँ

  • फरवरी 2021 में ‘रौंती ग्लेशियर’ के टूटने से उत्तराखंड स्थित ऋषिगंगा नदी में बाढ़ आई थी, जिसने 13.2 मेगावाट की ऋषिगंगा जलविद्युत परियोजना तथा तपोवन जलविद्युत परियोजना (धौलीगंगा नदी पर स्थित) को नष्ट कर दिया था।
  • धौलीगंगा, अलकनंदा नदी की एक सहायक नदी है। पर्यावरण विशेषज्ञों ने हिमनदों के पिघलने के लिये ‘वैश्विक उष्मन’ को ज़िम्मेदार ठहराया है।
  • हिमनदों के निवर्तन (अपने स्थान से हटना) व पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से पर्वतीय ढलानों की स्थिरता में कमी होने तथा हिमनद झीलों की ‘संख्या और क्षेत्रफल में वृद्धि’ का अनुमान है।
  • विशेषज्ञों का मानना है कि ‘हिमनदों के थर्मल प्रोफाइल’ में वृद्धि हो रही है, जिसका आशय है कि हिमनद का तापमान, जो ‘-6 से -20 डिग्री सेल्सियस’ तक था, अब -2 डिग्री सेल्सियस हो गया है, जिससे यह ‘पिघलने के लिये अतिसंवेदनशील’ हो गया है।
  • उक्त परिवर्तित परिघटनाओं से हिमालयी क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे से संबंधित परियोजनाएँ जोखिमयुक्त हो गई हैं। इसी आलोक में विशेषज्ञ समितियों ने सिफारिश की है कि हिमालयी क्षेत्र में 2,200 मीटर या उससे अधिक की ऊँचाई पर जलविद्युत परियोजनाएँ स्वीकृत नहीं की जानी चाहिये।
  • इसके अतिरिक्त, ‘क्लाउड-ब्रस्ट’ की बढ़ती आवृत्ति, तीव्र वर्षा और हिमस्खलन संबंधित घटनाएँ संबंधित क्षेत्र के निवासियों के ‘जीवन और आजीविका’ के जोखिमों को बढ़ा रही हैं।

आगे की राह

  • हिमालयी क्षेत्र में विकास के समक्ष ‘बहुआयामी चुनौतियाँ’ विद्यामान हैं।
  • उत्तराखंड सरकार का कहना है कि वह विद्युत क्रय के लिये वार्षिक तौर पर 1,000 करोड़ रुपए से अधिक का भुगतान कर रही है, अतः जितनी अधिक परियोजनाएँ रद्द की जाती हैं, उनके लिये अपने विकास संबंधी दायित्वों को पूरा करना उतना ही कठिन हो जाता है।
  • क्षेत्रीय निवासियों और पर्यावरणविदों का कहना है कि निजी कंपनियों द्वारा बनाई जा रही परियोजनाएँ, राज्य को उत्पादित विद्युत का केवल ‘एक सीमित प्रतिशत’ ही आवंटित करती हैं।
  • इस प्रकार राज्य पर्याप्त क्षतिपूर्ति प्राप्त किये बिना बड़े पैमाने पर पर्यावरणीय जोखिमों का सामना करता है।
  • केंद्र सरकार ने जलविद्युत परियोजनाओं के लिये प्रतिबद्धता दिखाई है, क्योंकि यह अक्षय ऊर्जा का स्रोत है लेकिन सौर ऊर्जा की लागत में कमी तथा निम्न पारिस्थितिक क्षति के कारण वह अब ‘ग्रीनफील्ड जलविद्युत परियोजनाओं’ के पक्ष में नहीं है।
  • हालाँकि, कई पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि केंद्र सरकार अपने रुख में कई मौकों पर परिवर्तन करता रहा है। उनका कहना है कि सरकार हिमालयी क्षेत्र में बुनियादी ढाँचे के विकास को प्राथमिकता देना जारी रखेगी, भले ही यह भारी पर्यावरणीय लागत पर क्यों न आधारित हो।

निष्कर्ष

हिमालयी क्षेत्र अन्य सभी क्षेत्रों की तरह ही विद्युत एवं अन्य बुनियादी ढाँचे की माँग से अछूते नहीं हैं। बेहतर संवाद के माध्यम से विद्युत कंपनियों और केंद्र सरकार को क्षेत्र के निवासियों में अधिक विश्वास उत्पन्न करने की आवश्यकता है।

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